प्रो रवीन्द्र प्रताप सिंह की कवितायेँ
नींद कोसों दूर
फिर झपट लेगीं इसे वो बिल्लियां ताक में कबसे धंसी हैं उधर अटकीं है तो मगर ये बाज़ , पर भला क्या , अभी छोटा एक बच्चा कहाँ से उड़ता हुआ, बिछड़ा हुआ ये आ गया। कौन जाने क्या हुये हैं खेल कहाँ से ये कहाँ तक फैली बेल। ये बिल्लियां भी बेचारी , क्या करें मज़बूर , बाढ़ बारिश भरा पानी नींद कोसों दूर। कौन जो इनको निकाले खुद मालिकों के हैं दिवाले। बस दिखाते और बजता कहाँ कैसा राग सुन रही ये हर तरफ फैली हुई चीत्कार ।
आश्चर्यों को उत्तर देते–
आश्चर्यों को उत्तर देते कितना समय बीतता जाता अब तो हर आश्चर्य सुना है अपनी ही परिभाषा लाता अपनी ही वह व्याख्या है। पहले राजा की ,फिर समाज की, फिर कई सतह में राजनीति आखिर में सब छोड़ प्रकृति पर सिद्धांत बना कर चल देते हैं। देखेंगे इस बार प्रकृति भी कैसी व्याख्या देती है लिपियाँ तो उसकी ही हैं उसकी ही तो शैली है।
दरवाज़ा–
कुछ शब्दों की टिकी किवाड़ें मंत्रमुग्ध सन्नाटे में कुछ , कहना क्या , मन की आवाज़ें कुछ आह्लादित बिना भाव के कुछ यूँ विचलित बिना भाव के कुछ ध्वनित पड़ी यूँ अंतर्गत ही। अंतर्मन की लाख तरंगें आती ढककर आहत करतीं खुलता न चरमर दरवाज़ा आहट भी मन मसोस कर ढलती चलती रहती कुछ अनमन यूँ , अंतर्मन ही न दरवाज़े में कहीं कभी कुछ , न ही कभी प्रेरणा में ही कुछ। कुछ तो यूँ ही रह जाता है ।
और फिर गुलाब क्या–
और फिर गुलाब क्या , बचा कहाँ , अनंत में विलीन , अगाध प्रेम ले उदधि कर्म से धर्म से और मनन प्रयत्न से , एक रंग एक गंध एक स्वप्न एकनिष्ठ प्रेम नीर में जड़ा जल और मीन अब कहाँ , गुलाब क्या !
-Dr R. P. Singh Professor of English
Department of English and
Modern European Languages
University of LucknowDirector ,International Collaborations and ISA , University of LucknowVice Chairman, Delegacy , University of Lucknow
Lucknow – 226007, U P, INDIA
Cell : +91 94151 59137
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