हमारे गांव के घर में एक रउताइन थी जिसका नाम तो पता नहीं है किंतु वह मेरे मां की उम्र की थी जिसे मेरी मां आदर के साथ रउताइन कहती थी; साथ ही दो चाचा का परिवार बटवारा होने के बाद भी उसी कच्चे मकान वाले घर में रहता था,अब वह घर नहीं रहा, सभी अपने पक्के मकान बनवाकर रहते हैं । रउताइन अपने दो पुत्रों के साथ रहती थी; उसका भी अपना एक छोटा कच्चा घर था जिसे हम लोगों के परदादाओं ने बनवाकर दे दिया था । उसका पति जिसे मेरी मां राउत जी कहकर पुकारती थी, बाद में उसे छोड़ दिया और गांव में ही अपने विधवा भौजाई के साथ रहने लगा जिससे उसे एक पुत्र भी है जो मेरे स्व.बड़े भाई का गुरूमुख परंपरा के तहत चेला बन गया।
रउताइन का छोटा पुत्र मेरे उमर का था;हम दोनो साथ खेलते रहते और खेत में जाकर अकरी उखाड़ने से लेकर चारा काटकर लाते थे; उसका बड़ा भाई कभी गांव छोड़ देता था और कभी वापस आ जाता था.बाद में उसने मुझे अपना गुरू बना लिया, गुरूमुख प्रक्रिया के द्वारा जिसे उसके सौतेले छोटे भाई राजकुमार ने संपन्न कराया था ।
रउताइन का छोटा लड़का शिवजतन बचपन में ही गांव छोड़ कर कहीं चला गया, तलाश हुई लेकिन नहीं मिला; बाद में नवजवान होने पर उसका पता लगा; मेरे पिताजी उससे मिलने लखनऊ के पास मलीहाबाद गये थे । बाद में वह एक महिला जिसे वह अपनी पत्नी बताया के साथ आकर अपने घर में रहने लगा । रउताइन बहुत खुश थी किंतु उसकी खुशी कुछ दिन की रही । वह अपनी पत्नी के साथ गांव से चला गया. एक साल के बाद वह अकेले आया,पता चला कि उसकी पत्नी उसे छड़ कर कहीं और चली गई !
इसी बीच उसका बड़ा भाई भी एक महिला के साथ पत्नी बनाकर रहने लगा । काफी दिन बाद उसका छोटा भाई गांव आया और अपने भाई के साथ रहने लगा; भाई की पत्नी के साथ रहते हुए वह उसी के साथ पुन:मलीहाबाद जहां काम करता था चला गया; बाद में उसकी पत्नी अकेले आई और रउताइन को साथ लेकर इस भरोसे के साथ कि उसके छोटे पुत्र ने उसे बुलाया है लेकर चली गयी।
उस समय मैं अपने गांव मीठाबेल से ,३८ साल पहले का वाकया है, मोटर साइकिल के द्वारा म.मो.मा. इंजीनियरिंग कालेज पढाने के लिए आता जाता था; मैं चौरी चौरा के पहले बंजारी माई के पास पहुंचा ही था कि रउताइन को पैदल आते देखा: मैं रुक गया, वह मुझे देखकर रोने लगी,मैने कारण पूछा.वह बताने लगी कि उसकी बहू उसे गोरखपुर रेलवे स्टेशन पर छोड़ कर भाग गई; साथ में उसकी जमा पूंजी जो वह मेहनत से इकट्ठा करी थी भी ले गयी। वह बिना कुछ खाये पीये, पैसा नहीं था, पैदल आने को विवश थी; बाद में पता चला जैसा कि रउताइन पढ़ी लिखी नहीं थी पूछ पूछ कर गोरखपुर के आगे से रेलवे लाइन पकड़ कर आ रही थी.
मैने एक खाली रिक्सा रुकवाया और उसे गांव ले जाने को कहा और रिक्शे का किराया और कुछ खाने के लिए कुछ रुपया रउताइन को दिया ताकि वह फिर किसी मुशीबत में न पड़ जाए .
उसके बाद रउताइन अपने बड़े पुत्र रामजतन के साथ रहने लगी;राम जतन गांव के बाहर झोपड़ी डाल कर मां के साथ रहने लगा । बाद में मां के नहीं रहने पर अकेला पड़ गया; वह हमारे घर पर ही रहने लगा और झोपड़ी मय जमीन अपने सौतेले भाई को दे दिया;
रामजतन का नैशर्गिक लगाव था कि वह हमारे यहां ही रहने लगा; हमें भी एक सुकून था कि परिवार में कोई अभिवावक है.परिवार में भी हमारे भतीजे,उनके परिवार के सभी सदस्य रामजतन का स्नेह सहित सम्मान करते थे । राम जतन तो अब इस दुनियां में नही है लेकिन उसकी और उसके मां की स्मृतियां रह रह कर पुराने दिनों की ओर ले जाती हैं!
कोई क्या लेकर आया है क्या लेकर जायेगा सिवाय वह स्नेह,लगाव और समर्पण जो मानव मानव के बीच रहे तो मानव धन्य हो गया नही तो एक दिन यहां से जाना ही है !
प्रोफेसर अर्जुन दूबे