शोध आलेख: आधुनिक हिन्दी साहित्य में राष्ट्र भक्ति-तुलसी देवी तिवारी (भाग-1)

शोध आलेख:

आधुनिक हिन्दी साहित्य में राष्ट्र भक्ति

इकाई-1 प्रस्तावना

-तुलसी देवी तिवारी

शोध आलेख: आधुनिक हिन्दी साहित्य में राष्ट्र भक्ति-तुलसी देवी तिवारी
शोध आलेख: आधुनिक हिन्दी साहित्य में राष्ट्र भक्ति-तुलसी देवी तिवारी

किसी विद्वान ने सत्य ही कहा है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। वह विषय वस्तु समाज से ही ग्रहण करता है। समाज की दशा और दिशा का जीवंत चित्रण तत्कालीन साहित्य में  स्पष्ट परिलक्षित  होता है, इसके अतिरिक्त साहित्य में परिर्वतन का स्वर भी मुखरित होता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार हिन्दी साहित्य को चार प्रमुख कालों में विभाजित किया गया है।

  1. वीर गाथा काल -(सन् 1050 से 1350 तक)
  2. भक्तिकाल — (1350 से..1643…).
  3. रीतिकाल
  4. आधुनिककाल (1843 से अब तक)

1. वीर गाथा काल -(सन् 1050 से 1350 तक)-

उस समय जीवन के अधिकांश फैसले तलवार की नोक पर ही होते थे । देश छोटे- छोटे राज्यों में विभक्त था, अपने छोटे – छोटे अभिमान के लिए भी राजे जी- जान से लड़ा करते थे। देश के उत्तर पश्चिम से लगातार मुसलमानों के आक्रमण हुआ करते थे जिन्हें रोकने के लिए राजपूत हमेशा शहीदी बाना धारण किये रहते थे , उनके साथ बहुमुखी प्रतिभा के धनी सैनिक जो कवि भी हुआ करते थे, उन्हें प्रेरणा देने एवं मातृभूमि की रक्षा के लिए तन, मन, धन न्यौंछावर करने की भावना को दृढ़ता पूर्वक धारण किये रहने के उद्देश्य से,  उनकी वीरता का अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन करने वाले दरबारी कवि हमेशा उनके साथ रहते थे। राजा अपनी विरूदावली सुन कर इन कवियों को धन के साथ जागीरें भी दिया करते थे।  पृथ्वी राज रासो के महान् कवि चंदबरदाई पृथ्वीराज के अंतिम समय तक तक उनके साथ थे। इस समय की भाषा डिंगल और प्रवृत्ति वीर रस थी। इस समय की प्रमुख रचनाएं -पृथ्वीराज रासो, लेखक चंदबरदाई,हम्मीर रासो के  लेखक सारंगधर और दलपति विजय ,  खुमाण रासों के प्रणेता थे।

डिंगल अथवा प्राकृत के अतिरिक्त जन भाषा में भी दोहे चैपाइयों में रचनाएं होती थीं चंदबरदाई का इतिहास प्रसिद्ध दोहा जिसे सुनकर पृथ्वीराज चैहान ने मुहम्मद गोरी को दोजख रसीद किया था —

चारि बांस चैबीस गज , अंगुलि अष्ट प्रमाण,
  ता ऊपर सुल्तान  है मत चूको चैहान ।

हिन्दी भाषा के अभ्युदय का समय लडाई -भिड़ाई और वीरता के गौरव का था,चूंकि कवि गण वीरों  के सम्पूर्ण जीवन का वर्णन करते थे, इसलिए उसमें कल्पना और यथार्थ का सम्मिश्रण होता था, वीर रस के साथ- साथ श्रृगार रस का वर्णन भी आवश्यकतानुसार किया जाता था।

2.भक्तिकाल (1350 से 1643 तक)-

यह पूर्व मध्यकाल था।. इस समय तक देश में मुगल सत्ता भलि-भाँति अपने पैर जमा चुकी थी, हिन्दू जनता का जीवन पूरी तरह भगवान् भरोसे हो चुका था, मुगलों के अत्याचारों से बचने के लिए महिलाओं को चहार दीवारी में कैद रखा जाने लगा, पर्दा प्रथा के साथ ही सती प्रथा, जांति प्रथा, बाल विवाह , पुरूषों में बहुविवाह , तंत्र-मंत्र में विश्वास ,साम्प्रदायिक झगड़े, बढ़ गये थे। समाज को रसातल से निकालने का बीड़ा साहित्य ने उठाया – सगुण भक्ति और निर्गुण भक्ति धारा का निरूपण करके। जो लोग मूर्ति पूजा में विश्वास करते हैं वे भी भक्त और जो भगवान् को निर्गुण निराकार मानते हैं वे भी भक्त, ये धाराएं कई उपधाराओं में विभक्त होती गईं। इनमें ज्ञान मार्ग,और प्रेम मार्ग प्रमुख हैं। ज्ञान मार्ग के प्रणेता और मुख्य कवि कबीरदास जी हुए, तो प्रेम मार्ग के मुख्य कवि  मलिक मुहम्मद जायसी , इस मत के साहित्य पर सूफी मत का विशेष प्रभाव पड़ा। आगे सगुण भक्ति धारा की और दो उपधाराओं का विकास हुआ, रामश्रयी भक्ति धरा और कृष्णाश्रयी भक्तिधारा ।

रामाश्रयी भक्ति धारा-

राम भक्ति शाखा–इस शाखा के कवियों ने श्री राम के शील, शक्ति ,सौंदर्य का चित्रण किया है। इस मत के प्रतिनिधि कवि तुलसी दास जी हुए हैं । इन्होंने अपनी महान् रचना रामचरित मानस में शैव शाक्त एवं वैष्णव सम्प्रदाय का सम्मिलन करवा दिया, तीनों एक ही परमात्मा के रूप हैं, इसे अपनी रचना में सिद्ध किया। शंकर भगवान् राम नाम का जाप करते हैं, राम जी शिव जी को निरंतर भजते हैं । रावण वध के लिए श्री राम दुर्गा माता की उपासना करके शक्ति प्राप्त करते हैं।  आतताई रावण से युद्ध के समय राम के पास न तो सेना थी न ही किसी प्रकार के आयुध, वानर भालुओं की सेना और पेड़ पर्वत आयुध थे, फिर भी आत्मबल से रावण जैसे सामथ्र्यशाली राजा का नाश करके उन्होंने एक विचार को जीवंत किया, वानर भालुओं जैसे ही थे उस समय भारत वासी, और तो और अपने आत्मबल को भी विस्मृत करके तिरस्कार और गुलामी का जीवन जी रहे थे। राम के रूप में उन्हें जैसे अपना अस्तित्व ही मिल गया।

कृष्‍णाश्रयी भक्ति धारा-

कृष्णाश्रयी भक्तिधारा –इस धारा के सबसे महान् कवि सूरदास जी हुए , इन्होंने कृष्ण की बाल लीलाओं का इतना जीवंत वर्णन किया है कि पाठकों को इनके नेत्रहीन होने में संदेह होने लगता है। मीरा बाई , संतशिरोमणि भक्त रैदास, हरिदास जी,  नंददास जी चैतन्य महा प्रभु, रसखान आदि कवियों ने भी कृष्णभक्ति की गंगा बहाई । इस समय की अधिकांश रचनाएं ब्रज एवं अवधी में हुई । लगभग सभी रचनाएं पद्य में लिखीं गईं और शांत रस इस काल की मुख्य प्रवृत्ति कहा जाता है।  कृष्ण चरित्र से लोगों ने व्यवहारिक ज्ञान प्राप्त किया, कंस के कारागार में जन्में कान्हा ने अपने बुद्धि चार्तुय के बल पर पूतना, बकासुर ,वृषभासुर  कालियानाग , कुवलियापीड़, जय- विजय सहित अपने मामा कंस का बध कर अपने माता- पिता और नाना को कारा मुक्त कराया  इस समय तक उनके पास क्या था? उनके आत्म बल के सिवा। आगे वे विश्व वन्द्य हुए ।। राम और कृष्ण ईश्वर के अवतार माने गये । इनके रचयिताओं ने उस युग में इनके प्रचार- प्रसार में अपना जीवन खपा दिया । यह उनका परिश्रम ही है कि इनकी रचनाएं जनकंठहार बन गईं, समय गुजरा और ये भारतियों के वजूद का अंग बनती गईं, सच कहें तो इन्होंने ही स्वतंत्रता प्राप्ति की कामना का बीजारोपण किया, जिसे आधुनिक काल के कवियों ने पुष्पित-पल्लिवत किया। भक्तिकाल को ही हिन्दी साहित्य का स्वर्णकाल कहा जाता है।

3. रीतिकाल-

उत्तर मध्यकाल में रस, छंद अलंकार में आबद्ध रचनाएं हुईं, इसीलिए इसका नाम रीतिकाल पड़ा। इस काल के सारे कवि राज्याश्रयी थे अतः अन्नदाता की प्रसन्नता के लिए श्रंृगार रस की कविताएं लिखी जाती थीं, संयोग एवं वियोग श्रृगार के अतिश्योक्तिपूर्ण वर्णन होते थे। बिहारी इस काल के प्रतिनिधि कवि हुए। केशव दास,घनानंद, चिंतामणि, पद्माकर ,सेनापति आदि का नाम भीउल्लेखनीय है।  इस युग के कवियों ने राधा -कृष्ण के बहाने श्रृंगार रस  का ऐसा वर्णन किया कि सारी मर्यादाएं तार-तार हो गईं । समाज में विलासिता पूर्ण वातावरण का बाहुल्य हो गया।

आधुनिककाल (1843 से अब तक)-

इस समय तक देश में अंगे्रजों का शासन स्थापित हो चुका था,और देशवासियों ने आजादी की कीमत पहचान ली थी, देशभक्ति की भावना से ओत- प्रोत  इस काल में हर साहित्यकार ने देश भक्तों की अभ्यर्थना में कसीदे लिखे, उनकी जय- जयकार कर अपनी कलम को धन्य किया। ईसाई धर्म के प्रचार प्रसार के लिए हिन्दी गद्य की उपयोगिता पहचान कर पादरी उसका उपयोग करने लगे थे, आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती ने अपने ग्रन्थों का प्रकाशन हिन्दी में ही करवाया। यह काल हिन्दी भाषा का सर्वश्रेष्ठ काल है इस समय कहानी, कविता,उपन्यास, नाटक, समालोचना, यात्रा संस्मरण,निबंध , व्यंग आदि सभी विधाओं में रचनाएं रची गईं, हिन्दी भाषा एक पूर्ण विकसित भाषा के रूप में दुनिया के सामने उपस्थित हुई।  छापेखाने के आविष्कार ने साहित्य के क्षेत्र में क्रान्ति को जन्म दिया।  अपने जीवन से ऊपर उठ कर मनिषियों ने अपने आस-पास दृष्टि डाली और देश की दुर्दशा देखकर खून के आँसू रो पड़े । काश्मीर से कन्याकुमारी तक, उत्तर में नगाधिराज हिमालय से लेकर दक्षिण में बंगाल की खाड़ी तक पूर्व में बंगाल सागर से लेकर पश्चिम में अरबसागर तक भारतवर्ष हमारा है, अनेक भाषाओं और सम्प्रदायों के बावजूद हम सभी आत्मा और पामात्मा में  विश्वास रखते है , हमारी संस्कृति साझी है फिर हमारे देश में हमारी सरकार क्यों नहीं है?उनके सामने यक्ष प्रश्न उपस्थित था।

साहित्यकारों का आत्‍म चिंतन-

अंग्रेज हुकुमत के समय कच्चे माल का निर्यात और तैयार माल का आयात करने से हमारे कारीगर , हमारे मजदूर बेरोजगार हो गये। अशिक्षा, गरीबी, भूखमरी, ऊपर से  धार्मिक उन्माद,  जाति-पाँति के झगड़े, स्‍त्रियों की दुर्दशा, अपने देश की सनातन संस्कृति और एकता की डोर से बांधने वाली परंपराओं को हेयदृष्टि से देखने वालों को शिक्षित समझे जाने के चलन ने साहित्यकारों के मन में हलचल पैदा की । सन्1857 में हुए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की विफलता ने भी आत्मचिंतन की प्रेरणा दी—

आधुनिक हिन्दी साहित्य के पितामह भारतेंदु हरिश्चद्र का राष्‍ट्र को काव्‍यंजलि –

सन् 1850 में बनारस में जन्में आधुनिक हिन्दी साहित्य के पितामह भारतेंदु हरिश्चद्र ने अपने नाटक (1880)  -’भारत दुर्दशा’ में प्रतीकों के माध्यम से देश की अधोगति का वर्णन करते हुए देशवासियों को उनके स्वत्व  की याद दिलाकर तत्कालीन दुरावस्था को दूर करने के लिए प्रेरित किया–

रोवहू सब मिल के रोवहू भारत भाई,
 हा ! हा!भारत दुर्दशा न देखी जाई।

भारतेंदु जी ने हिन्दी भाषा की मुख्य विधाओं गद्य और पद्य दोनों में ही न केवल विपुल पैमाने में रचनाएं लिखीं बल्कि भविष्य के  साहित्यकारों को लिखने के लिए विषय  भी निर्दिष्ठ कर दिया। उनके द्वारा निर्मित राज मार्ग पर चल कर उनके बाद के साहित्य कारों ने ऐसी समयोचित रचनाएं की जिनकी मेघगर्जना से विदेशियों के हृदय थर्रा उठे और  एक दिन हमें स्वतंत्रता रुपी लक्ष्य प्राप्त हो सका, इस स्वातंत्र्य यज्ञ में सामगान की भूमिका में रहने वाला मंत्र सदृश्य गीत संस्कृत और बांग्ला भाषा से हिन्दी भाषा में सादर आमंत्रित किया गया था।

शेष अगले अंक में……

श्रीमती तुलसी तिवार, जिनकी जन्‍मभूमि उत्‍तरप्रदेश एवं कर्मभूमि छत्‍तीसगढ़ है, एक चिंतनशील लेखिका हैं । आप हिन्‍दी एवं छत्‍तीसगढ़ी दोनों भाषाओं समान अधिकार रखती हैं और दोनों भाषाओं में लेखन करती हैं । आपके पिंजरा, सदर दरवाजा, परत-दर-परत, आखिर कब तक, राज लक्ष्‍मी, भाग गया मधुकर, शाम के पहले की स्‍याह, इंतजार एक औरत का आदि पुस्‍तकें प्रकाशित हैं ।

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