शोध आलेख:गतांक से आगे
आधुनिक हिन्दी साहित्य में राष्ट्र भक्ति
इकाई-2 हिन्दी साहित्य में राष्ट्रीय जागरण
-तुलसी देवी तिवारी
हिन्दी साहित्य में राष्ट्रीय जागरण
राष्ट्रगीत ‘वंदे मातरम्’ का उद्घोष-
बंगाल के कांतलपाड़ा गाँव में 27जून सन् 1838 में एक धनी-मानी और शिक्षित परिवार में जन्में प्रतिभा संपन्न बालक बंकिमचंद्र ने अपने पिता के समान ही डिप्टी कलेक्टर का पद प्राप्त किया। उन्हें बचपन से ही संस्कृत भाषा से लगाव था, संस्कृत ग्रन्थों को पढ़ कर उन्हें भारतीय संस्कृति की पहचान हुई। अंग्रेजों ने सन् 1870-80 में प्रत्येक जलसे यहाँ तक कि भोजन के पहले भी ‘गॉड सेव द क्वीन’ का सस्वर गायन अनिवार्य कर दिया था। अपनी संस्कृति से प्यार करने वाले बंकिमचंन्द्र को कपट और धोखे से राज्य हरण कर देश को गुलाम बना लेने वालों की रानी के लिए ईश्वर से प्रार्थना करना नागवार गुजरता था, प्रतिकार में उन्होंने 7 नवंबर 1876 में एक रेल यात्रा के समय अपने हृदयहारी शब्दों में मातृभूमि की वंदना में ‘वंदे मातरम्’ नाम का गीत लिखा।
इसके दो पद देश की वंदना में हैं बाकि के पद हिन्दू देवी देवताओं की छवि का निर्माण करते हैं जिसके कारण अब तक मुसलमान् यदा- कदा दबे स्वर में इसके विरोध में लामबंद होते रहते हैं। बंगाल में आये भीषण अकाल से प्रेरित होकर बंकिम चंद्र जी ने एक कालजयी उपन्यास रचा जिसका नाम ‘आनंदमठ’ है इसमें इतिहास प्रसिद्ध सन्यासी विद्रोह को स्थान दिया, पहले पहल इसी उपन्यास में भारत माता की मूर्ति दुर्गा माता के चतुर्भुजी रूप के समान विरूपित की गई। सन् 1896 में कलकत्ते के कांग्रेस अधिवेशन में ‘वंदे मातरम्’ गाया गया। 1905 में कांग्रेस की कार्य कारिणी ने इसे राष्ट्रगीत का दर्जा दिया। इसी समय इसे देवनागरी लिपि में लिखा गया।
गुरूदेव रविन्द्रनाथ ठाकुर ने इसे संशोधित रूप में प्रस्तुत किया। इसकी धुन यदुनाथ भट्टाचार्य ने बनाई थी। हृदय में देशभक्ति का उत्कट भाव जगाने वाला यह गीत स्वतंत्रता संग्राम रूपी बेड़े का खेवनहार सिद्ध हुआ। आजादी के बाद देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने सन्1950 में वंदे मातरम् को राष्ट्रगीत के रूप में अपनाने का वक्तव्य पढ़ा, जिसे ध्वनिमत से स्वीकार कर लिया गया। समय के साथ वंदेमातरम् भारतीयों का प्राणों से प्यारा राष्ट्रगीत बना, यह संसार के सर्व लोकप्रिय दस गीतों में दूसरे नंबर पर है। जीवन में अनेक बार गाये गीत को एक बार फिर पढ़ते हैं-
वंदेमातरम् वंदेमारतम् वंदेमातरम् वंदेमातरम् सुजलाम् सुफलाम् मलयज शितलाम् शस्य श्यामलाम मातरम् वंदे मातरम्..।. शुभ्र ज्योत्सना पुलकित यामिनीम् , फुल्ल कुसुमित द्रुम दल शोभिनिम्, सुहासिनीम सुमधुर भाषिणीम् , सुखदाम्, वरदाम् मातरम् वंदे मातरम्………..
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की मराठी पत्रिका ‘केसरी’ की दुंदभी-
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक–(1856 –1920) महाराष्ट्र के रत्नागिरि जिले में जन्में देश के प्रथम लोकप्रिय नेता राष्ट्रीय भावना जगाने वाले शिक्षक, समाजसुधारक, प्रथम भारतीय वकील और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, तिलक जी को अंग्रेज अधिकारी भारतीय अशांति का पिता कहा करते थे। उन्होंने लंबे समय से सोये हुए देश के जनमानस को झकझोर कर जगा दिया । कुछ वर्षों से भारत में राष्ट्रीय भावना पर जो क्षेत्रीयता हावी हो गई थी जिसके कारण देश के लोग सीमित स्थान को ही अपना देश मानने लगे थे और जिसका लाभ उठा कर अंग्रेजों ने पूरे देश में फूट डालो और राज करो की नीति अपना कर अधिकार कर लिया था, तिलक जी ने लोगों के हृदय पट खोल कर दिखाया कि हम सबसे पहले भारतीय हैं, उसके बाद किसी भी प्रान्त के रहवासी , हमारी संस्कृति साझा है काश्मीर से लेकर कन्या कुमारी तक भारत एक है, हम अवतारवाद और पुर्नजन्म में विश्वास करते हैं ।
उनके हृदय परिर्वतनकारी प्रबल व्यक्तित्व ने देश को समझा दिया कि हम गुलाम रहने और पशुओं से बदतर जीवन जीने वाले लोग नहीं हैं ’स्वराज्य हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है और हम इसे लेकर रहेंगे।’
इन्होंने विपिनचंद्र पाल, लाला लाजपत राय अरविंद घोष , वी. ओ चिदंबरम्,आदि कांग्रेसी मित्रों की चर्चा से आशान्वित होकर सन् 1890 में कांग्रेस में प्रवेश तो ले लिया किंतु उसकी लचर नीतियाँ अधिक समय तक इन्हें बांधे न रख सकीं और सन् 1907 में कांग्रेस दो फाड़ हो गई – नरम दल और गरम दल, तिलक जी गरम दल के सर्व मान्य नेता हुए। इनका मराठी पत्र ‘केसरी’ इनके विचारों को जनता तक पहुँचानें के लिए सरल माध्यम बना था। लोक दमनकारी सरकारी नीतियों के खिलाफ ‘देश का दुर्भाग्य’ नामक लेख के केसरी में छपने के कारण उन पर देश द्रोह का मुकदमा चला जिसमें इन्हें छः वर्ष के लिए मांडले जेल भेज दिया गया (27 जुलाई सन् 1897)।
‘गीता रहस्य’ नामक ग्रन्थ का राष्ट्रीय जागरण में योगदान-
इन्हीं दिनों भीषण शारीरिक मानसिक कष्टों के बीच उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन की रूप रेखा के मद्दे नजर 400 पेज के ‘गीता रहस्य’ नाम के महान् ग्रन्थ का प्रणयन किया। इसमें कौरवों पांडवों के बहाने समझाया गया कि हमने आसानी से गुलामी स्वीकार कर ली है और पांडवों की भांति अपनी मान मर्यादा दांव पर लगा कर अब भिक्षुक बने हाथ फैलाये रोटी के लिए दुत्कारे जा रहे हैं, जैसे अर्जुन ने अपनी धर्नुविद्या के बल पर श्री साधनहीन होने पर भी द्रुपद कन्या को प्रतियोगता में जीता वैसे ही हम अपने कौशल से अपना राज्य वापस पा सकते हैं । जैसे आज हम समृद्धि और शिक्षा से दूर कर दिये गये हैं वैसे ही पांडव भी अन्न वस्त्र के लिए दूसरों पर आश्रित होकर एकाकी वनों में वनचरों की भाँति जीवन जी रहे थे किंतु जब उन्होंने अपने हक के लिए समर ठाना तब साक्षात् नारायण अर्जुन के सखा और सहायक बन सारथी बन गये वैसे ही हमें अपनी संकल्प शक्ति जगाना है, जब हम आगे बढ़ेंगे बहुत सारी शक्तियाँ हमारे पीछे आयेंगी हमारी सहायता के लिए और पांडवों की तरह हम भी विजयी होंगे।
‘सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्ताँ हमारा’ का उद्घोष-
उन्नीसवीं सदी में ईश्वर ने भारत भूमि के उद्धार के लिए अनेक महापुरूषों को भेजा, जिन्होंने अपने तन मन धन का बलिदान करके भी भारत माता को आजाद कराने का प्रण निभाया राष्ट्रभक्ति एवं राष्ट्रीय एकता के गीत लिखे, इन्हीं में एक नाम ब्रिटिश भारत में पंजाब के सियालकोट में जन्मे मोहम्मद इकबाल का है। पेशे से वकील कवि और दार्शनिक इकबाल की अधिकांश रचनाएं फारसी में हैं। कुछ रचनाएं उर्दू में भी है उन्हीं में है देश प्रेम की गज़ल ‘सारे जहाँ से अच्छा ……जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय ब्रिटिश विरोध का प्रतीक बन गया था। इस गीत को राष्ट्रय गीत का दर्जा प्राप्त है ।
सन् 1905 में इसे इकबाल ने लाहौर के सरकारी कॉलेज में एक कार्यक्रम की अध्यक्षता के दौरान सुनाया था। ये उस समय वहाँ व्याख्याता थे। । देश की आजादी के पश्चात् महान् सितार वादक पंडित रविशंकर ने इसे सुरबद्ध किया। इसमें देश की वंदना की गई है सभी सम्प्रदायों में भाईचारे का संदेश दिया गया है। इसे अनौपचारिक रूप से राष्ट्र गीत का दर्जा प्राप्त है। प्रथम भारतीय चंद्रयान यात्री राकेश शर्मा से जब तत्कालीन प्रधान मंत्री इन्दिरा गांधी ने पूछा था -’’आकाश से भारत कैसा दिख रहा है तो उन्होंने कहा था –’’ सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्ताँ हमारा।’’ आइए एक बार फिर देखे इस गीत के शब्दों को-
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्ताँ हमारा हमारा सारे जहाँ से... हम बुलबुलें हैं इसकी ये गुलस्तिाँ हमारा हमारा सारे जहाँ...... परवत ओ सबसे ऊँचा, हम साया आसमाँ का । ओ संतरी हमारा, ओ पासवाँ हमारा हमारा सारे जहाँ...... गोदी में खेलती है जिसके हजारों नदियाँ , गुलशन है जिनके दम सेे ओ, रश्के जिना हमारा हमारा सारे जहाँ से........ मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना , हिन्दी हैं हम हिन्दी हैं हम हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा हमारा। सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्ताँ ..........
जनगण मन अधिनायक जय हे-
राष्ट्रभक्ति वाले साहित्य की चर्चा राष्ट्रगान के बिना आगे कैसे बढ़ सकती है? ‘जनगण मन अधिनायक जय हे’’ भारतीय एकता अखंडता और भारतियों के उत्कट राष्ट्र प्रेम का प्रतीक है। इसकी रचना ठाकुर रविन्द्रनाथ टैगोर ने सन् 1905 में ’गॉड सेव द क्वीन’ के प्रतिकार के रूप में की। पहले इसे बांग्ला भाषा में ही लिखा गया था, बाद में जनाब आबिद अली ने हिन्दी और उर्दू में इसका अनुवाद किया। सर्व प्रथम सन् 1911 में कलकत्ते में होने वाले कांगे्रस के वार्षिक अधिवेशन के दूसरे दिन गुरूदेव की भतीजी सरला देवी चैधरानी ने इसे गाया था। सन्1919 में गुरूदेव ने स्वयं इसका अंगे्रजी में अनुवाद किया था। और इसका नाम ’मार्निग सॅाग ऑफ इन्डिया रखा।
पंडित जवाहरलाल नेहरू के विशेष आग्रह पर अंग्रेज संगीतकार हर्बट मुरिल्ल ने इसे आर्केस्ट्रा की धुन पर भी गाया था। नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने ’ जय हे’ के नाम से इसे सबसे पहले अपनाया था। सन् 1912 में तत्वबोधिनी नामक पत्रिका में इसका प्रकाशन हुआ । इसकी प्यारी सी धुन हिमांचल के यशस्वी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी कैप्टन राम सिंह ने बनाई। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ही यह बहुत लोक प्रिय हो गया था। स्वतंत्रता के पश्चात् 24 जनवरी सन् 1950 को इसे राष्ट्रगान के रूप में मान्यता मिली। इसे गाने में 49 से 52 सेकेन्ड का समय निर्धारित किया गया। प्रत्येक राष्ट्रीय समारोह राष्ट्रगान से ही आरंभ और समाप्त होता है। जब भी जहाँ भी इसकी धुन श्रवणगोचर होती है प्रत्येक भारतीय राष्ट्रगान के सम्मान में सावधान खड़ा हो जाता है, भारत के स्वतंत्र नागरिक गर्व से भर जाता है-
‘जनगणमन अधिनायक जय हे भारत भाग्य विधाता पंजाब सिंध गुजरात मराठा द्राविण उत्कल बंग, विन्द्य हिमांचल यमुना गंगा उच्छल जलधि तरंग, तव शुभ नामे जागे तब शुभ आशीष मांगे गाहे जव जयगाथा जनगण मंगलदायक जय हे भारत भाग्य विधाता जय हे! जय हे! जय हे! जय जय जय जय हे!--
शेष अगले अंक में …….
श्रीमती तुलसी तिवार, जिनकी जन्मभूमि उत्तरप्रदेश एवं कर्मभूमि छत्तीसगढ़ है, एक चिंतनशील लेखिका हैं । आप हिन्दी एवं छत्तीसगढ़ी दोनों भाषाओं समान अधिकार रखती हैं और दोनों भाषाओं में लेखन करती हैं । आपके पिंजरा, सदर दरवाजा, परत-दर-परत, आखिर कब तक, राज लक्ष्मी, भाग गया मधुकर, शाम के पहले की स्याह, इंतजार एक औरत का आदि पुस्तकें प्रकाशित हैं ।