शोध आलेख:गतांक से आगे
आधुनिक हिन्दी साहित्य में राष्ट्रभक्ति
इकाई-4 राष्ट्र भक्ति के प्रणेता साहित्यकार-3
-तुलसी देवी तिवारी
आधुनिक हिन्दी साहित्य में राष्ट्रभक्ति –
राष्ट्रकवि सोहन लाल द्विवेदी (फरवरी1906-मार्च 1988 )-
गांधी जी के परम भक्त और उनके सिद्धान्तों के मुखर प्रचारक द्विवेदी जी का जन्म उत्तरप्रदेश के फतेहपुर जिले के बिन्दकी कस्बे में हुआ था उन्होंने स्नातकोत्तर तक की शिक्षा प्राप्त की। उन्हें बचपन से ही राष्ट्रप्रेम का मंत्र प्राप्त हो गया था। उन्होंने अपनी प्रथम रचना ’भैरवी’ गांधी जी को समर्पित की । उन्होंने भारत देश, ध्वज, राष्ट्रप्रेम, और राष्ट्रीय नेताओं को केन्द्र में रख कर उच्चकोटि के साहित्य की रचना की।
दांडी यात्रा, बढ़ो अभय, जय जय जय,के साथ ही कई प्रयाण गीत भी लिखे। वह मेरी जन्म भूमि ‘देश भक्ति की भावना से लवरेज कविता है। सन् 1930 में गांधी जी की सभा में उन्होंने अपनी कविता सुनाई जो उन्होंने खादी पर लिखा था, गांधी जी को कविता बहुत पसंद आई-
खादी के धागे-धागे में अपनेपन का अभिमान भरा, माता का इसमें मान भरा, अन्यायी का अपमान भरा। खादी के रेशे- रेशे में बहन भाई का प्यार भरा। मॉं बहनों का सत्कार भरा बच्चों का मधुर दुलार भरा। छाह छिपी कितनों की, कसक कराह छिपी, कितनो की आहत आह छिपी।
द्विवेदी जी ने गांधी जी को युगाधार, स्वतंत्रता आन्दोलन के जन कर्णधार की सनम्र भाव से वंदना की। सत्य, अहिंसा,सत्याग्रह आदि उनके काव्य के प्रेरक स्वर बने। अहिंसा की शक्ति को स्वर देते हुए उन्होंने लिखा-
न हाथ एक अस्त्र हो न हाथ एक शस्त्र हो, न अन्न नीर वस्त्र हो, हटो नहीं डरो नहीं, बढ़े चलो! बढ़े चलो!… रहे समक्ष हिम शिखर,तुम्हारा प्रण उठे निखर, भले ही जाय जन बिखर। रुको नहीं! झुको नहीं! बढ़े चलो! बढ़े चलो! घटा घिरी अटूट हो, अधर में कालकूट हो, वही सुधा का घूंट हो! जिये चलो! मरे चलो्! बढ़े चलो! बढ़े चलो !
संसाधन विहीन भारतीयों के पास स्वतंत्रता संग्राम लड़ने के लिए आत्म शक्ति , आत्म बलिदान के सिवा कुछ नहीं था। कवि सत्याग्रहियों की हिम्मत बढ़ाते हुए लिखते है-
लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती, कोशिश करने वाले की हार नहीं होती। नन्ही चींटी चढ़ती दीवारों पर सौ बार फसलती है जब दाना लेकर चलती है।
श्याम नारायण पांडे(1907–1991)-
पांडे जी वीर रस के प्रखर प्रस्तोता थे। उत्तर प्रदेश में आजमगढ़ के डुमराँव नामक गाँव में जन्म लेकर आप ने अपने आपने अपने लेखन से देश के समस्त युवावर्ग को ब्रितानी शासन को उखाड़ फेंकने की प्रेरणा दी। ये लोकप्रिय मंचीय कवि थे। वैसे तो इन्होंने बहुत सारी कविताएं लिखीं किंतु इनमें ’हल्दी घाटी’ नामक खंड काव्य’ में ‘राणा प्रताप की तलवार’ नामक कविता महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है इसका एक छोटा सा अंश हमारी पाठ्य पुस्तकों में भी रहता आया है कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं –
चढ़ चेतक पर तलवार उठा, रखता था भूतल पानीको । राणा प्रताप सिर काट-काट, करता था सफल जवानी को। कल-कल कहती थी रणगंगा, अरिदल को डूब नहाने को। तलवार वीर की नाव बनी, चटपट उस पार लगाने को । वैरी दल को ललकार गिरी, वह नागिन सी फूंफकार गिरी था शोर मौत से बचो- बचो, तलवार गिरी तलवार गिरी। पैदल हय दल गजदल में छप- छप करती वह निकल गई । क्षण कहाँ गई कुछ पता नहीं फिर, देखो चम- चम वह निकल गई । ………… क्षण भीषण हलचल मचा- मचा, राणा कर की तलवार बढ़ी। था शोर रक्त पीने को यह? रण चंडी जीभ पसार बढ़ी।
दसवीं कक्षा की पाठ्य पुस्तक में पढ़ी गई इस जोशो खरोश वाली कविता को आजन्म कंठस्थ रखना निहायत सहज है।
चन्द्रशेखर आजाद-(23 जुलाई1906-27 फरवरी1931)-
वर्तमान् मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले (अलिराजपुर)के भाबरा ग्राम में जन्म लेकर पूरे संसार में चन्द्रशेखर आजाद के नाम से विख्यात होने वाले अमर शहीद ,अचूक निशानेबाज, पंडित हरिशंकर ब्रह्मचारी के रूप में बालकों को पढ़ाने वाले, शेर ए हिन्दुस्तान, सन् 1920 में गांधी जी के असहयोग आंदोलन में भाग लेने के कारण 15बेंतों की सजा पाकर प्रत्येक बेंत के बाद भारत माता की जय बोलने वाले चौदह वर्षीय बालक चंद्रशेखर आजाद का कांगे्रस से मोहभंग तब हुआ जब सन् 1920 में चरम पर पहुँचे असहयोग आंदोलन को हिंसक हो जाने के कारण गांधी जी ने वापस ले लिया।
उन्होंने क्रन्तिकारीसंगठन हिदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड़कर राम प्रसाद बिस्मिल के साथ काकोरी कांड को अंजाम दिया। लाहौर में लाला लाजपत राय की मौत का बदला साँण्डर्स की हत्या करके लिया , दिल्ली की असेम्ली में बम फेंक कर उस धमाके से सारे देश को जगाकर बता दिया कि कांगे्रस के नरम दल के कछुआ चाल से आजादी मिलने वाली नहीं है, उसके लिए आंदोलन का रूप बदल कर उसमें तेजी लानी होगी। उन्होंने आजमा कर देख लिया है और यह जाना है कि-
सिर्फ चरखे से आजादी आती तो आज’ आजाद न होता, गर स्वतंत्रता सिर्फ शांति से मिलती तो आज’आजाद’ न होता, गर आँखों में मुक्ति का जुनून न होता तो आज’ आजाद न होता, गर सीने में देश प्रेम का बारूद न होता तो आज’ आजाद न होता, दुश्मनों का सिर कुचलने को गर बाजुओं में अंगार न होता तो आज ’ आजाद न होता शत्रुओं के सामने सीना तान खड़े होने ताकत न होती तो आज ’आजाद’ न होता।
इस कविता के ,द्वारा उन्होंने सशस्त्र क्रांति की अनिवार्यता की घोषणा की। वे अपने पास हमेशा एक गोली अपने लिए सुरक्षित रखा करते थे। उनकी दृढ़ प्रतिज्ञा थी कि ’आजाद’ आजाद ही रहेगा
’दुश्मन की गोलियों का सामना हम करेंगे, आजाद हैं आजाद ही रहेंगे।’
प्रयाग राज के अलफ्रेड पार्क में दुश्मनों से घिर जाने पर उन्होने अदम्य साहस के साथ अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण की।
रामधारीसिंह ’दिनकर’(23सितम्बर1908 — 24 अप्रैल 1974)-
बिहार प्रदेश के बेगूसराय में सेमरिया नामक गाँव में जन्में महान् राष्ट्रवादी कवि रामधारी सिंह दिनकर जी की कविताएं राष्ट्रीय भावना की फसल के लिए उर्वरक के समान हैं । उर्वशी, रेणुका, रश्मिरथी, हुंकार, सामधेनी,नीम के पत्ते, संस्कृति के चार अध्याय आदि इनकी प्रसि़द्ध कृतियाँ हैं। अर्थ कामी जमींदारों को सचेत करते हुए उन्होंने लिखा था-
‘’नहीं पाप का भागी केवल ब्याध,
जो तटस्थ है समय लिखेगा उनका भी अपराध।’’
एक लंबे समय तक राज्य सभा के सदस्य रहे दिनकर जी की रचनाओं से प्रभावित होकर देश के पहले प्रधान मंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें राष्ट्रकवि का दर्जा दिया था। आजादी की पहली लड़ाई में शौर्य और पराक्रम का प्रदर्शन करते हुए जिन वीरों ने अपने शीशपुष्प की भाँति भारत माता के चरणों में चढ़़ा दिये दिनकर जी की कलम उनकी जय गाथा लिखने लगी-
--‘कलम आज उनकी जय बोल’ जला अस्थियाँ बारी- बारी,चिटकाई जिनमें चिंगारी, जो चढ़ गये पुण्य वेदी पर ,लिए बिना गर्दन का मोल, कलम आज उनकी जय बोल जो अगणित लघु दीप हमारे,तूफानों में एक किनारे, जल- जला कर बुझ गये किसी दिन , माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल ---,कलम आज…….। पीकर जिनकी लाल शिखाएं, उगल रहीं सौ लपट दिशाएं, जिनके सिंहनाद से सहमी, धरती रही अभी तक डोल ,-- कलम आज उनकी….। अंधा चकाचैंध का मारा , क्या जाने इतिहास बेचारा, साखी हैं उनकी महिमा के, सूर्य चन्द्र भूगोल खगोल। --कलम आज उनकी जय बोल।
दिनकर जी की कविताएं मात्र जन मन रंजन हेतु न थी उनमें तत्कालीन प्रश्नों के उत्तर भी छिपे होते थे ।
द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी (1916-1998)-
आगरे के रोहतक गाँव में जन्में द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी जी देश के बच्चों को देश का भविष्य मानते थे, वे उनके लिए गीत लिखते थे । रैलियों में बच्चे भी शामिल होते हैं, उनके उत्साह वर्धन के लिए माहेश्वरी जी ने बड़े जोशो खरोस वाले गीतों की रचना की। आज भी राष्ट्रीय पर्वो पर प्रभात फेरी के समय इसे बड़े सम्मान के साथ गाया जाता हैं, आइऐ एक बार हम भी गाते हैं-
वीर तुम बढ़े चलों, धीर तुम बढ़े चलो। हाथ में ध्वजा रहे, बालदल सजा रहे। ध्वज कभी झुके नहीं, दल कभी रुके नहीं। वीर तुम बढ़े चलो ……. सामने पहाड़ हो, सिंह की दहाड़ हो, तुम निडर डरो नहीं! तुम निडर डटो वहीं! प्रात हो कि रात हो, संग हो न साथ हो। सूर्य से बढ़े चलो! चन्द्र से बढ़े चलो! वीर तुम बढ़े ……. ध्वज लिए हुए एक प्रण किये हुए, मातृभूमि के लिए पितृ भूमि के लिए। वीर तुम……….. अन्न भूमि से भरा, वारि भूमि से भरा, यत्न कर निकाल लो ! रत्न भर निकाल लो! वीर तुम………
ऐसे गीतों ने तत्कालीन बालकों को देश भक्ति की घुट्टी पिला कर बड़ा किया। आजादी प्राप्त करने और उसे संभालने का प्रशिक्षण दिया।
श्रीकृष्ण ’सरल’(सन् 1919-2000)-
जनवरी सन् 1919 में माता जमुना देवी और पिता भगवती प्रसाद के अंश से जन्में श्री कृष्ण सरल जी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के आपबिती की एक इकाई हैं। गुना में सरल जी का जन्म ऐसे परिवार में हुआ जो जमाने से अंग्रेजों का सताया हुआ था। इनके पूर्वज अंग्रेजों से युद्ध में मारे गये थे, जो बचे थे उन्हे देशद्रोह के आरोप में फाँसी दे दी गई थी। एक गर्भवती महिला से जन्मे पुत्र से जो वंश चला उसी में सरल जी का जन्म हुआ । हम कह सकते हैं कि उनके रक्त में ही अंग्रेजों के प्रति जहर घुला हुआ था। उनकी साहित्य साधना उज्जैन में हुई ।
जीवित शहीद की उपाधी से अलंकृत सरल जी तेरह वर्ष की उम्र से ही क्रांतिकारियों के साथ रहने के कारण विदेशी सरकार की आँख के काँटे बने रहे। । ये महर्षि पुरूषोत्तम दास टंडन से प्रभावित थे, इन्होंने भगत सिंह की माता विद्यावती के सानिध्य में रहकर प्राणदानी शहीदों को अपने साहित्य का विषय बनाया। इन्होंने सर्वाधिक 15 महाकाव्य लिखे ,कुल ग्रंथों की संख्या 124 है।
इन्होंने अपनी पुस्तकों की पाँच लाख प्रतियाँ स्वतः के प्रयास से बेचने में कामयाबी हासिल की। क्रांतिकारियों के जीवन पर केन्द्रित पुस्तक क्रांति की गंगा के लेखन में 27 वर्ष का लंबा समय लग गया। उनकी साधना को देशवासियों की श्रद्धा नमन करती है। बनार्सीदास चतुर्वेदी ने इनके संबंध में ठीक ही कहा है- ‘’भारतीय शहीदों का समुचित श्राद्ध सरल ने किया।’’उनकी दो पंक्तियाँ-
‘’पूजे न गये शहीद तो, आजादी को कौन बचायेगा?
फिर कौन मौत की छाया में, जीवन के रास रचायेगा?’’
प्रोफेसर बाल कृष्ण सरल जी ने पुस्तकों के प्रकाशन हेतु पत्नी के गहने तक बेंच दिये। जीवन के उत्तरकाल में कुछ अध्यात्म की पुस्तकों के सिवा उन्होंने जो कुछ लिखा देश के अमर शहीदों के लिए ही लिखा और इतना जानदार लिखा कि पढ़ कर मुर्दों में भी जान आ जाती है। चन्द्रशेखर आजाद को समर्पित ये दो पंक्तियाँ –
नाम चन्द्रशेखर आजाद सूरज का प्रखर उत्ताप हूँ मैं फूटते ज्वालामुखी सा क्रान्ति का उद्घोष हूँ मैं, कोष जख्मों के जो लगे इतिहास के वक्ष पर , चीखते प्रतिरोध का जलता हुआ आक्रोश हूँ मैं।
उनकी प्रमुख कृतियों में– बलिपंथी शहीदों के चरित, शहीदों से सम्मानित, तरुणाई के गौरव गायक,किरण कुसुम, काव्य गीता,राष्ट्रगीता ,इंकलाबी गजले, बागी गजले, जीवंत आहुति,शहीदों की काव्य गाथाएं, राष्ट्रभारती, रक्त गंगा,राष्ट्र की चिंता, बापू समृति ग्रन्थ, क्रान्ति कारी कोश (दस खंड में ) आदि- आदि हैं । वे अपने आप को अमर शहीदों के चारण के रूप में याद किया जाना चाहते थे-
सरल शहीदों का चारण कहकर याद किया जाऊँ, लोग कहें वह दीवाना था जिसे देश की धुन थी, देश उठे ऊँचे से ऊँचा,यही मन में ठाना था, भारत माता की अच्छी मूरत ही सदा रही मन में, अन्याइयों को ललकारा, रहा घुड़कता गद्दारों को ।
सरल जी ऐसे कवि थे जिन्होंने स्वतंत्रता के संघर्ष के साथ भारत माता की कटती बेड़ियाँ भी देखी , देश का बँटवारा और पड़ोसी देशों से होने वाले युद्ध भी देखे, इन सबका उनके साहित्य पर स्पष्ट प्रभाव पड़ा है। उनकी साधना के प्रति आभार प्रगट करते हुए उन्हें भारत गौरव,राष्ट्रकवि, क्रांति रत्न अभिनव भूषण, मानव रत्न आदि सम्मानों से सम्मानित किया गया। उन्होंने भगत सिंह, राज गुरू, और सुखदेव की फाँसी पर लिखा था-
आज लग रहा कैसा जी को? कैसी आज घुटन है,? दिल बैठा सा जाता है हर साँस आज उन्मन है।, बुझे-बुझे मन पर ये कैसी बोझिलता भारी है, क्या वीरों के आज कूच करने की तैयारी है? हाँ सचमुच ही तैयारी है, आज कूच की बेला है .,माँ के तीन लाल जायेंगे, भगत न अकेला जायेगा, मतृभूमि पर अर्पित होंगे ये तीन फूल पावन। यह उनका त्यौहार सुहावन, यह दिन उन्हें सुहावन……………..।
सरल जी ने शहीदों के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए देश -विदेश की लंबी- लंबी यात्राएं कीं, अपनी पैतृक सम्पत्ति बेच कर खर्च जुटाया। उनके अवदान के लिए भारत की आगामी पीढ़ियाँ उनकी ऋणि रहेंगी।
महात्मा रामचंन्द्र वीर ( सन्1909—2009)-
औरंगजेब के दरबार में जजिया कर के विरोध में अपनी ही कृपाण से अपना पेट चीर कर शहीद हो जाने वाले स्वामी गोपालदास की बारहवीं पीढ़ी में जन्में महात्मा राम चंद्र वीर एक प्रखर वक्ता धार्मिक नेता, कवि, लेखक, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ,और समर्पित गोरक्षक थे। उन्होंने चैदह वर्ष की उम्र में ही गौ माता की रक्षा के हित अन्न और लवण का त्याग कर दिया था। विभिन्न आंदोलनों में भाग लेते हुए वे अट्ठाइस बार जेल गये।
उन्होंने -हमारी गो माता, वीर रामायण, ’विजय पताका’ आदि पुस्तकों का प्रणयन किया। मंदिरों में होने वाले पशु बलि का प्रबल विरोध करके अनेक मंदिरों से इस जघन्य कृत्य का अंत करवा दिया। सदा देश हित की चिंता करने वाले महात्मा जी ने हिन्दू धर्म के उत्थान हेतु अपना तन-मन अर्पित कर दिया किंतु देश धर्म को सबसे ऊपर रखा। इन्होंने ‘विजय पताका’ में देश धर्म के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने वाले हुतात्माओं का इतिहास लिखा । विधर्मियों द्वारा लिखी गई अनर्गल बातों का खंडन करते हुए पिछले एक हजार वर्ष के इतिहास को पराजय और गुलामी के बजाय संघर्ष और विजय का इतिहास कहा।
इस पुस्तक को पढ़कर हजारों नवयुवक स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े, इनमें तीन बार स्वतंत्र भारत के प्रधान मंत्री रहे स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी जी का नाम उल्लेखनीय है। कम्यूनिष्ट विचार धारा से प्रभावित नवयुवक अटल बिहारी ‘विजय पताका’ से प्रभावित होकर राष्ट्रीय विचार धारा वाली संस्था राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के आजीवन प्रचारक बन गये। महाराज जी ने देश की वंदना में देशभक्ति वाले पद्यों की भी रचनाएं कीं- एक रचना देखने योग्य है –
जगा दो भारत को हे! भगवान्! बिहार जागे उत्कल जागे, जागे बंग महान् कर्नाटक, गुजरात, मराठा सिंध बलोचिस्तान, जगा दो….. काश्मीर,, पंजाब, अवध व्रज, प्रिय नेपाल, भूटान, महाकुशल मालव उठ बैठे, गरजे राजस्थान, जगा दो…… मैं बंगाली तू मदरासी, इसका रहे न भान, गंगा-यमुना सम मिल जायें, सब हिन्दू संतान जगा दो….. ब्राह्मण हों तेजस्वी, त्यागी, गौतम, कपिल समान, तन्मय हो मृदु स्वर में गायें सामवेद का गान, जगा दो… क्षत्रीय हों राणा प्रताप से, रण बांकें बलवान देश धर्म हित करें निछावर, हँस हँस कर निज प्राण, जगा दो…. भामाशाह समान बैश्य हों, करें देश हित दान, शुद्र बने रैदास भक्त से कबीर से मतिमान, जगा दो…. मुस्लिम हों दारा सिकोह से, गीता के विद्वान, कृष्ण प्रेम में पागल होकर,फिर बिहरे रसखान,जगा दो… सावित्री सीता दमयन्ती,फिर से प्रगटे आन, दुर्गावती,लक्ष्मीबाई ,की चमके चपल कृपाण, जगा दो…….
वे हिन्दू वीरों के वीरत्व को जगाते हुए लिखते हैं–
जागो- जागो हे हिन्दू वीरों हुआ है प्रातःकाल, बहुत समय से बेसुध होकर पड़े रहे तुम लोग, धूर्त ठगों से अपने घर की रखी नहीं संभाल,जागो……..जागो…. चोर लुटेरे लम्पट डाकू लूट रहे धन धाम तुम्हे मिटाने के हित कैसा फैलाया है जाल,जागो…..जागो… जागो आँख खोलकर अब भी,दशा सुधारो अपनी, अखिल जगत में भारत माँ का फिर चमका दो भाल, जागो….जागो…..।
स्वतंत्रता के बाद वे सदैव देश वासियों को अपनी आजादी अक्षुण रखने हेतु सचेत किया करते थे।
(पंच खंडपीठाधिश्वर परम पूज्य गुरूदेव आचार्य श्री धर्मेन्द्र जी की पुस्तक ‘दिव्या’ से साभार)
शेष अगले अंक में …….
श्रीमती तुलसी तिवार, जिनकी जन्मभूमि उत्तरप्रदेश एवं कर्मभूमि छत्तीसगढ़ है, एक चिंतनशील लेखिका हैं । आप हिन्दी एवं छत्तीसगढ़ी दोनों भाषाओं में समान अधिकार रखती हैं और दोनों भाषाओं में लेखन करती हैं । आपके पिंजरा, सदर दरवाजा, परत-दर-परत, आखिर कब तक, राज लक्ष्मी, भाग गया मधुकर, शाम के पहले की स्याह, इंतजार एक औरत का आदि पुस्तकें प्रकाशित हैं ।