आज कल की चर्चा
-डॉ. अर्जुन दूबे
1.एक तारीख के इंतजार में
अंग्रेजी महीने में विशेष कर फरवरी माह की अंग्रेजी तारीख़ 29 कितनी दोषपूर्ण हो जाती है जब चार साल के अंतराल पर 29 तारीख आती है। 28 अथवा 1 तारीख को, 29 तारीख में जन्म लिए हुए, जातक /बालक/बालिका का जन्म दिन मनाने के लिए 28 February अथवा 1 March तिथि अटपटी लगती है।
तब होना क्या चाहिए? वही विक्रम पंचांग से चलें, पर इसमें तो दी हुई तिथियां अंग्रेजी तारीख़/माह, पंचांग के तिथि/माह से मेल नहीं खाती है। फिर भी ध्यान देने वाली बात है कि विक्रम पंचांग में तिथियां प्रथमा से अमावस्या, कृष्ण पक्ष में और प्रथमा से पूर्णिमा शुक्ल पक्ष में अर्थात एक महीने में १-१५ एक पक्ष में और पुनः १-१५ दूसरे पक्ष में पड़ता ही रहता है। इस प्रकार एक माह में २ पक्ष x १५ =३०×१२=३६० दिन= १ वर्ष। परंतु अधिक मास ( तीन साल के अंतराल पर अधिक मास पड़ता है) और इसके पश्चात माह के आलोक में माह/तिथि में बदलाव आते रहते हैं। पंचांग के हिसाब से जन्म पत्रिका बनाने में तिथि /पक्ष का स्पष्ट उल्लेख रहता है, पर कभी कभी एक तिथि विलुप्त होकर तुरंत दूसरे तिथि में समाहित हो जाती है और कभी कभी एक तिथि की अवधि बढ़कर दो तिथियों के बराबर हो जाती है।
पुण्य तिथि मनाने का हिंदू पंचांग में पितृपक्ष के अलावा अलग माह का प्राविधान नहीं है; हां मनुष्य के दिवंगत होने पर जो भी माह /तिथि पड़े उदया तिथि के अनुसार कर्मकांड और षट्कर्म किया जाता है।
यहां प्रश्न जन्मदिन मनाने का है; यह शोध का विषय है और नवीन परिणाम प्राप्त होगा यदि तिथि/तारीख का संशय किसी भी पंचांग के अनुसार मिट जाये।
2.परिवर्तन ही प्रजातंत्र का सौंदर्य है
वर्ष था १९४७, माह था अगस्त और तारीख थी १५, विभाजन के साथ मिली थी आजादी। संविधान निर्माण से लेकर प्रजातांत्रिक व्यवस्था अपना कर चुनाव हुए थे; सरकारें आज भी उसी प्रक्रिया के तहत गठित होती हैं। कभी कभी आरोप लगते हैं कि प्रजातंत्र जबरदस्ती थोपा गया है; तर्क है बहुदलीय प्रणाली के अंतर्गत अवांछनीय एवं बीभत्स तरीके के आरोप प्रत्यारोप लगते हैं।
हमारा प्रजातंत्र ट्रांसफार्मेशन के दौर से गुजर रहा है; लगभग ५० वर्ष से मैं चुनावी ट्रांसफार्मेशन प्रक्रिया का साक्षी हूं। डिजिटलाइजेशन चुनाव की दशा और दिशा बदलने में अहम भूमिका निभा रहा है; आने वाले समय में आनलाइन नामांकन से लेकर आनलाइन मतदान क्रियान्वित होने की संभावनाएं दिख रही है; डिजिटल मोड में धन व्यय में तुलनात्मक रूप से अंकुश लग जाता है। प्रजातंत्र में तरह तरह की लोक लुभावनी घोषणाएं होती रहती हैं; इनका दौर भी ट्रांसफार्मेशन की क्रिया का ही परिणाम है।
ब्रिटेन में औपचारिक राजतंत्रीय व्यवस्था से वास्तविक प्रजातांत्रिक पद्धति में अनेक परिवर्तनों का दौर चला है। अमेरिका में वहां की आजादी के बाद प्रजातांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत अब तक चुनाव होते रहे हैं; फ्रांस में बहुदलीय व्यवस्था के तहत प्रजातंत्र अस्तित्व में है।
हमारे देश में दलीय राजनीति के बैनर तले प्रजातंत्र पुष्पित, पल्लवित और फलित हो रहा है; घोषणाएं, छद्म घोषणाएं, बढ़ा चढ़ा कर घोषणाएं, जाति, धर्म, क्षेत्र और भाषा आदि के आधार पर चुनाव में भाग लेना ट्रांसफार्मेशन का ही पार्ट है जो स्थाई नहीं रह पायेगा क्योंकि परिवर्तन ही प्रजातंत्र की विशेषता है।
3. महाशिवरात्रि का पावन महापर्व की महिमा:
सनातन परंपरा में श्रद्धा के साथ महाशिवरात्रि मनाई जाती है; शिवालयों में ब्रह्म वेला से ही शिवलिंग का जलाभिषेक, दुग्धाभिषेक और पूजा अर्चना आस्था के साथ की जाती है। ऐसी मान्यता है कि आज ही के दिन जगत पिता-जगत माता एक शब्द में पितरौ वैवाहिक बंधन में बंधे थे। इन दोनों का संबंध अविभाज्य है जैसे वाणी और अर्थ का, “वागर्था विव संपृक्तौ वागर्था प्रतिपत्तये, जगत:पितरौ वंदे पार्वती परमेश्वरौ”-कालिदास
संबंध जरा देखें, कितनी समानता है, न कोई ऊपर न कोई नीचे; एक ही शिला पर साथ साथ बैठे मिलते हैं। तभी तो परंपरानुसार विवाह रीति में, मेरे मत से, एक ही पीढे पर वर वधू को एक साथ बिठाते हैं।
अब जरा शिव सती के संबंध की चर्चा करने का प्रयास करते हैं। ऐसी मान्यता है कि सती और पार्वती एक ही हैं। पार्वती को भवानी के रूप में वंदना करते हैं।” भवानी शंकरौ वंदे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ,याभ्यां बिना न पश्यतिं सिद्धा: स्वातं:स्थमीश्वरम्”-गोस्वामी तुलसीदास
देवी सती स्वयं शक्ति हैं, इसी लिए शक्ति पीठ स्थापित हैं; या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः। सती का शिव के प्रति प्रेम अथवा शिव का सती के लिए प्रेम नैसर्गिक था, इतना नैसर्गिक था कि यह कहना कठिन था कि कौन किसे अधिक अथवा कम प्रेम करता है!; देवी पार्वती को तो शिव के लिए तपस्या करनी पड़ी थी किंतु सती को? प्रेम ऐसा कि व्यक्त ही न हो, प्रेम इतना कि भौतिक बाधाएं कुछ नहीं कर सकी, प्रेम की पराकाष्ठा इतनी कि अपमान सहन नहीं हो और भौतिक शरीर को त्याग कर पराभौतिक में समा जाए; शिव की भी प्रेम की व्यथा इतनी कि अपनी सुध बुध खो बैठे और शव सदृश हो गये थे।
जन्म पुनर्जन्म के चक्र में प्रेम करने वाली सती रूपी पार्वती का आगमन हुआ और शव पुनःशिव बन गये। मानस में सती द्वारा राम के सम्मुख सीता के रूप में परीक्षा लेने के निमित्त जाने का प्रसंग आता है। किस राम के? ऐसा कहा जाता है कि अठ्ठाईसवें राम थे जो त्रेता युग में रावण का वध किए थे, यह वह काल था जब देवी पार्वती ने सीता जी को उनके राम के प्रति प्रेम को देखते हुए आशीष दिया था,”सुन सिय सत्य आशीष हमारी, पूजहिं मन कामना तुम्हारी”। यह राम की लीला ही थी जिनकी सती ने परीक्षा ली थी। किस राम की? सत्ताईसवें राम की? भक्ति में संशय नहीं, हरि अनंत हरि कथा अनंता। शिव द्रोही मम दास कहावे, स्वीकार नहीं। पितरौ-शिव पार्वती–सभी का कल्याण करें, ओम्।
4.कालजयी चरित्र
मैं तीन चरित्र–प्रेम, मृत्यु और इज्जत/प्रतिष्ठा जिसे सत्रहवीं सदी के अंग्रेज नाटककार जान बेब्स्टर ने अपनी कृति डचेज ऑफ माल्फी (John Webster : Duchess of Malfi) में उल्लिखित किया है। इन्हें मैं आज के परिप्रेक्ष्य में जानने की कोशिश करता हूं तो पाता हूं कि ये तीनों चरित्र तो कालजयी हैं; जब तक मानव है तब तक इन्हें रहना ही है।
कौन है जो प्रेम की तलाश में अथवा लालशा में नहीं पड़ता है चाहे यह भौतिक प्रेम हो अथवा पराभौतिक! भौतिक प्रेम तो शरीर, आवरण, यश, उपलब्धि और सुख सुविधाओं तक सीमित हो जाता है, यूं कहें कि भौतिक प्रेम माया के इर्द-गिर्द रहता है किंतु माया भी कितनी निश्छल होती है? कैसे होगी? माया में स्वार्थ जिसका कोई स्थूल आकार नहीं है, स्थूल के लिए यह आसक्ति की ओर मुड़ जाता है, घृणा रूप भी धारण कर लेता है और कभी कभी तो प्रेम वैराग्य मार्ग का अनुसरण करने लगता है।
मृत्यु शास्वत एवं प्रत्यक्ष रूप में मानव और प्रत्येक जीव के जीवन और इसके संदर्भ में विद्यमान रहती है, जिसे प्रत्येक मानव जानता है, समस्त स्थूल तत्व स्थूल में ही समाहित हो जाते हैं, फिर भी माया रूपी आशक्ति स्थूल को अलग नहीं होने देना चाहती है।वह मनुष्य रूप में जानती है कि मृत्यु का कोई आकार नहीं होता है फिर भी आकार रूप के कारण की खोज में रहती है।
प्रतिष्ठा तो भाव रूप में निराकार स्वरूप में मानव के साथ रहती है किंतु किसकी ? जिसकी कोई भौतिक उपलब्धि हो। उपलब्धि हासिल करने के लिए मानव अहर्निश जी-तोड़ प्रयास करते रहता है। पुनः स्थूल पर आ जाता/जाती है, जिसका कोई ठिकाना नहीं होता है ; इसी लिएकहा जाता है कि लक्ष्मी चंचला होती है।मानव स्थूल रूपी लक्ष्मी और निराकार रूपी पावर जिसे वह आकर देने का कार्य करते हुए इह लोक को त्याग देता है सतत् संलग्न है। माया महा ठगिनि हम जानी।
-डा.अर्जुन दूबे
सेवा निवृत्त आचार्य, अंग्रेजी
मदन मोहन मालवीय प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, गोरखपुर