आज की कविताएं
-वीरेन्द्र कुमार पटेल ‘पिनाक’
बेरोजगार की पीड़ा
तरसता रहता हूं
अपने हिस्से की नौकरी को
हाथ डालकर बैठे हुए हैं
नौकरशाह, नेता,
खाने को पैसे,
और
पहुंच भी गया तो,
काम मिलने से पहले ही,
पेशिगी पहुंचा दी जाती है,
कोई पैसे,
कोई जाति,
कोई धर्म और कोई राजनीति पहुंच,
अक्सर पूछे मेरा ज़मीर
की कब तक यूं ही
बैठे हुए निहरोगे और
कोसेगे क़िस्मत को
बेरोजगारी के मार को
बेच दो अपने आत्मसम्मान,
अपनी ईमानदारी और ज़मीर को,
पढ़कर भी तुम,
कुछ कर नहीं पाए,
तो
उठा लो हाथों में बोझ तले
दबे हुए ईमान को
अपने हिस्से की रोटी, कपड़ा, मकान
पाने को
आखिर कब तक यूं ही?
लूट, हत्या और बेबसी
रहेगी
इस बेरोजगारी के श्राप को
अपने हौसलों से मिटा डालो ।।
कपड़ा
कपड़े तरह-तरह की
सफ़ेद, काले, खाकी, भगवे रंग में
पहन कर रहते हैं लोग
इज्जत ढकनें को,
कुछ तो सफेद वस्त्र धारण कर
समाजसेवी बने जनहित में लगे,
और तो और
इमान बचाने को खाकी वर्दी में
फर्ज अदा करने में लगे लोग।
काले-काले रंग कपड़े पहनकर
सराबोर होकर तमाशा देखने में आया करते हैं ,
कानून रक्षा करने के नाम पर लोगों को लूट गए ।।
भगवे रंग आज महान,
ईश्वर के नाम पर व्यवसाय कर
धर्म कर्मकाण्ड, आडम्बर, पाखंड से भरे
जाति धर्म समुदाय के कपड़े पहनकर घूमने चले
आदमखोर भेड़िए।।
बचे खुचे पोशाक नेताओं, अमीर और बिजनेस मैन की,
बड़े शान से पहनते,
बोलते कुछ और करते कुछ
चार जगह में जाकर विष उगलते,
कुछ और है जी
जो तन ढकने के लिए पहना करते,
जिन्हें लोग गरीब हैं कहते,
पक्का विश्वास इमान, मेहनत से,
काम चलाते जो कुछ भी हो,
जीवन सुख में बिताते।।।
अब जनता बोलेगी आज कल तो
तरह-तरह के फैशन डिजाइनर
के पोशाक खेल, पार्टी, शादी, कार्यक्रम, क्रियाकर्म के होते,
कुछ शौक से पहनते,
कुछ दिखाने में नज़र आएंगे।
बाकी मरते वक्त सब नंगे बदन जायेंगे।।
रोटी
जानवरों के शिकार से
आदमख़ोरी से भी पेट भरा है ।
जब दिखे बंजर मैदान
बदला उनको खलिहानों में
और एक दिन ईजाद की रोटी
रोटी ज्वार की
रोटी बाजरे की
रोटी मडुवे की
रोटी मक्के की और गेहूँ की
रोटी गोल-गोल जैसे पृथ्वी
रोटी चाँद हो जैसे
रोटी सूरज की छटाओं सी
अलग-अलग रंगों की
अलग-अलग स्वाद सी ।
बनकर तैयार हो गई है
रोटी ।।
आज रोटी रोटी नहीं रही
रोजी-रोटी बन गई,
भूख से मरता कोई नहीं,
लेकिन एक की रोजी-रोटी
पर विचार कर
आज मेरी बारी है
कल तेरी छीन जाएगी।
ये सत्ता में बैठे लोग,
पेट पे लात न मार दें
जीने दो काम कर
नहीं रोटी सेंकने में
माहिर हैं कल तुम्हें
सेक देंगे,
न सत्ता रहेंगी न रोजी-रोटी।।
मकान
जब से आया एक नहीं बल्कि,
बहुत सारी मकान में रहा,
कहीं ना लगा घर, निकेतन सा,
अब काटने को दौड़ता है ।
यह मकानों को देखकर मुझे
लगता है
की कहीं मैं घर बना लिया होता
तो आज दम घुटने ना लगता,
सजाते सजाते थक गया,
मकान कभी सजा नहीं
जैसे मन कभी भरता नहीं,
बहुत सारी चीज़ें हैं मकान में
लेकिन सकून नहीं।।
जो कच्चे मिट्टी के घर हुआ करता था,
जैसे इन बड़ी ही-बड़ी इमारतों में,
धुंधला-सा नज़र आते है,
सारे रिश्ते
अब मकान भाता ही नहीं।।।
निर्जीव
लगता है कि अब यहां
निर्जीव ही बसे हैं
और
मर चुकी है इंसानियत
कहीं दफ़न हो गई है
आस्था
लगता है जहां में अब
कोई मंजिल ही नहीं है केवल
मौत
ने ही पसार लिया है दुनिया को
और बिखेर दिया है शमशानों में
कतार
बस कतार लगी है
लगता है मानव केवल मिट्टी में
मिलने
आ गए धरा पर
अब सब निर्जीव
अब सब निर्जीव…..
-वीरेन्द्र कुमार पटेल ‘पिनाक’