पत्थरों पर गीत-जीवन के मीत
श्रीमती तुलसी देवी तिवारी
भाग-5 अजन्ता एलोरा की यात्रा
आदत के अनुसार प्रातः 5 बजे मैंने शैया का त्याग दिया। दरवाजे के दाहिनी ओर सीढ़ियों के पास एक बड़ी सी खिड़की है जिसमें काँच लगा हुआ है। खिड़की के उस पार तेज वर्षा हो रही थी। खिड़की से लगा नीम का पेड़ हवा में झूल-झूलकर वर्षा में नहा रहा था। सामने ही छोटी सी पुष्प वाटिका थी, जिसकी क्यारियों में लगे नव मुकुलित पुष्प जाने किसे झाँक रहे थे। अभी उषा के आगमन का कोई लक्षण दृष्टिगत नहीं हो रहा था, क्योंकि आकाश को बादलों ने ढ़ाँक रखा था। हवा के संग मेघ उड़े जा रहे थे, न जाने कौन से देश ? मुझे सब कुछ बड़ा प्यारा और अपना सा लगा। सामने ही ऊपर जाने वाली सीढ़ियाँ थीं जिस पर बैठकर मैं पूनम, कविता एवं अन्य छात्राओं ने एक दूसरे से सटकर फोटो खिंचवाये थे। उनका अपनापन मुझे उनसे अच्छी प्रकार जोड़ चुका था।
मैनें नित्य क्रिया से निवृत्त होकर अन्यों को जगाया। शकुन्तला शर्मा, चन्द्रा दीदी, शीला एवं ज्योति के साथ मैं पहले मराठा मेस पहुँची वहाँ इडली, साँभर और काॅफी का लुत्फ उठाया। हम लोग गेट पर पहुंँचे, गाड़ियाँ भी आकर खड़ी हुईं। हमारे भाई उस समय नाश्ता करने जा ही जा रहे थे। लोकमत के विरूद्ध (महिलाएँ ही देर करती हैं) भाईयों ने विलंब किया।
छोटी गाड़ी में बैठने में साथी हिचकिचा रहे थे। शीला, ज्योति के साथ भट्ट जी जाकर बैठे उन्होने मुझे भी बुला लिया।
मैं अन्दर से चिन्तित थी, क्योंकि मुझे कार वगैरह में उल्टी बहुत आती हैं वैसे मैंने एक घंटे पहले ही ‘एवोमिन’ टेबलेट ले लिया था।
गाड़ी आगे चली और सारी चिन्तायें पीछे छूट गइ्र्रं। कार की खिड़की का शीशा खेाल दिया गया था। नन्ही-नन्हीं बूंदों के साथ ठण्डी हवा मेरे जिस्म से टकराकर सुख प्रदान कर रही थी। बड़ी गाड़ी आगे और छोटी गाड़ी पीछे थी। शीला और ज्योति से मैंने कह दिया (दोनों मुझसे छोटी हैं) कि गीत गाती चलो वर्ना मैं रुक जाऊँगी। वे पुरानी फिल्मों के गीतों के मुखड़े गाती जा रहीं। ड्राइवर ने रुचि देखकर केसेट लगा दिया।
आज हमें 420 कि.मी. की यात्रा कर वापस अमलनेर आना था। बीस पच्चीस कि.मी. बाद ही एक ढाबे के पास गाड़ी रुकी, हमने हल्का फुल्का नाश्ता किया। काॅफी पी और अजन्ता एलोरा देखने की ख्वाहिस लिए निरन्तर बढ़ते रहे। पानी कभी तेज कभी धीमा हो रहा था। मेरे पास न छाता था न रैनकोट, एक बड़ा सा पोलिथीन बैग था, जिसमें हमें महाविद्यालय से सामग्री प्राप्त हुई थी। मैंने उसे अपने कपड़े के हेण्ड बैग में सम्हालकर रख दिया था। कम से कम मोबाइल नगदी आदि बच सके इस उम्मीद से।
सड़क की दोनों ओर समतल खेत नजर आ रहे थे, हरियाली का छाता ताने जैसे धरती को भींगने से बचाने का प्रयास कर रहे थे।
कई शहर पार करते, जब हम लोग अजन्ता प्राईवेट टेक्सी स्टेण्ड पहुँचे तब घड़ी की दोनों सूइयाँ आपस में मिल रहीं थी। चहुँ ओर फैली हरियाली, आसपास घोड़े की नाल के आकार में फैला पहाड़ बड़े-बड़े होटल भांति-भांति के वस्तुओं की दुकानें, देखते हम लोग एक दूसरे के पीछे चले। संयोग से हम सब पहली बार अजन्ता आये थे। एक दूसरे के पीछे चलते हम लोग जहाँ पहुँचे वह सुलभ शौचालय था। यह बात सत्य है कि हम सभी को उसकी आवश्यकता थी, परन्तु भाईयों के पीछे पीछे वहाँ पहुँचकर हम शर्मिन्दा हुए।
अभी-अभी जब हम गाड़ी में थे, शीला, ज्योतत गा रहीं थीं -
‘‘सावन का महीना पवन करे सोर,
जियरा रे झूमे ऐसे जैसे वन म नाचे मोर।
हमारा मन मयूर हो रहा था। यहाँं की प्राकृतिक सुषमा देखकर। हमने सोचा था अब पैदल ही चलाना है गुफाओं की ओर जो कहीं भी दिखाई नहीं दे रहीं थीं। भीड़ के पीछे-पीछे हम जहाँ पहुँचे वह अजन्ता बस स्टाप था। वहाँ कई लंबी-लंबी बसे खड़ी थीं। शकुन्तला दीदी फुर्ती से लाइन में लग कर टिकिट ले आई। लाइन से हम लोग उसमें चढ़े, स्थान देखकर बैठे, बस वातानुकूलित थी। लगभग दस पन्द्रह मिनट में हम अजन्ता के शासकीय बस स्टेण्ड पर उतर रहे थे।