-आलेख महोत्सव-
आजादी के अमृत महोत्सव के अवसर पर ‘सुरता: साहित्य की धरोहर’ आलेख महोत्सव का आयोजन कर रहा है, जिसके अंतर्गत यहां राष्ट्रप्रेम, राष्ट्रियहित, राष्ट्र की संस्कृति संबंधी 75 आलेख प्रकाशित किए जाएंगे । इस आयोजन के प्रथम कड़ी के रूप में डॉ नीलकंठ देवांगन के आलेख “भारतीय संस्कृति-राष्ट्रीय एकता का श्रोत” प्रकाशित किया जा रहा है ।
भारतीय संस्कृति-राष्ट्रीय एकता का श्रोत”
-डॉ नीलकंठ देवांगन
संस्कृति-
संस्कृति किसी देश की अमूल्य निधि होती है| किसी देश की पहचान वहां की कला, साहित्य एवं संस्कृति से होती है । संस्कृति वहां के नागरिक को अपनी परंपरा के अनुरूप कार्य करने का, व्यवहार करने का दिशा निर्देश देती है, जिससे उसके स्वरूप में परिवर्तन या बदलाव न आवे ।इसलिए वहां के नागरिकों का आचार-विचार, व्यवहार, क्रिया कलाप, रहन-सहन नियंत्रित रहता है । देश एक सूत्र में बंधा रहता है । यह दीर्घ काल की व्यवस्था एवं परंपरा का परिणाम होता है |
संस्कृति से राष्ट्रीय एकता-
संस्कृति से राष्ट्रीय एकता संरक्षित व सुरक्षित रहती है । राष्ट्रीय एकता को प्रभावित करने वाले तत्वों- भाषा, जाति, धर्म, क्षेत्र, अर्थ, संप्रदाय से संस्कृति का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है । भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति है । आध्यात्मिक सौंदर्य, वैचारिक तेजपुंज तथा शास्वत नैतिक मूल्यों के कारण हमारी संस्कृति मानव समाज की अनमोल पूंजी है । इस संदर्भ में रेडफिल्ड के मतानुसार- ‘संस्कृति कला और उपकरणों में प्रदर्शित परंपरागत ज्ञान का वह संगठित रूप है जो परंपरा द्वारा संक्षिप्त होकर मानव समूह की विशेषता बन जाता है |”
”संस्कृति कला और उपकरणों प्रदर्शित परंपरागत ज्ञान का वह संगठित रूप है, जो परंपरा द्वारा संक्षिप्त होकर मानव समूह की विशेषता बन जाती है ।”
रेडफिल्ड
संपन्न संस्कृति-सुरक्षित एकता
-भारत की धरती अपने गर्भ में जहां नैसर्गिक संपदा एवं वैभव छिपाये है ,वहीं सांस्कृतिक संपन्नता के साथ लोक कलाओं के अक्षय भंडार होने का गौरव भी इसे विरासत में मिला है । यहां की संस्कृति काफी समृद्ध, पुष्ट एवं प्रसिद्ध है । यहां की उर्वरा भूमि जहां अन्न धन से संपन्न बनाती है, वहीं यहां की संस्कृति जन मन में आलोकित भावनाओं को प्रतिबिंबित कर इसे एक सूत्र में बांधकर अलग पहचान दिलाती है | राष्ट्रीय एकता इसमें परिलक्षित होती है | दार्शनिक राष्ट्रपति डॉ राधाकृष्णन- कहा करते थे- हमारी सांस्कृतिक धरोहर हमें एकता का संदेश देती हैं |
”हमारी सांस्कृतिक धरोहर हमें एकता का संदेश देती है ।”
डॉ राधाकृष्णन
निरंतरता और परिवर्तन संस्कृति की प्रमुख विशेषता होती है | हमारी प्राचीन परंपराएं अविच्छन्न रूप से सुरक्षित है । यही गुण हमारी राष्ट्रीय एकता को मजबूती प्रदान करते हैं ।
भारतीय संस्कृति की विशेषता-
हमारी संस्कृति की अपनी विशेषता है, अपनी पहचान है । इनमें प्राचीनता, निरंतरता, आध्यात्मिकता, उदारता, समन्वयवादिता, विविधता में एकता, सर्वधर्म समभाव, चिंतन की स्वतंत्रता, सर्वांगीणता, वर्णाश्रम, आश्रम व्यवस्था, निष्काम कर्म, अहिंसा एवं शान्ति में विश्वास है जो हमारी राष्ट्रीय एकता के प्राण हैं । इसकी गौरव पूर्ण परंपरा रही है । इससे समूचा विश्व प्रभावित होता आया है । देश के मनीषियों, महापुरुषों ने काफी सोच विचार कर एवं लम्बे अनुभवों के आधार पर इसके स्वरूप का निर्धारण किया है । इसका अनुशरण कर हम चरित्रवान व आस्थावान बन सकते हैं । अपनी संकल्प शक्ति को जगाकर रचनात्मक भूमिका अदा कर सकते हैं । राष्ट्रीय एकता को परिलक्षित कर सकते हैं । हमारे समाज की संरचना के मुख्य आधार हैं- वैचारिक एवं संस्थात्मक । पुरुषार्थ, कर्म, संस्कार, यज्ञ वैचारिक आधार हैं तो वर्ण व्यवस्था संस्थागत आधार है । ये सभी भारतीय समाज को संगठित करने और राष्ट्रीय एकता को प्रतिपादित करने के उद्देश्य से विकसित किये गए हैं ।
राष्ट्रीय एकता अक्षुण्ण-
इतिहास के पन्नों को पलटें तो पता चलता है कि हमारे देश में अनेक सभ्यताओं ने अपनी जड़ें जमाने की कोशिशें की लेकिन हमारी सभ्यता और संस्कृति की जड़ों को नहीं हिला सकीं । उनमें से कुछ तो अपने आप धराशायी हो गयीं और कुछ इनमें घुलमिल गयीं । हमारी सभ्यता और संस्कृति सुरक्षित रहीं । बालबांका न हुआ । हम सीना ताने अपनी संस्कृति पर गर्व करते रहे । हमारी राष्ट्रीय एकता अक्षुण्ण रही । आचार विचार, आहार विहार, रहन सहन, शिष्टाचार हमारे अपने हैं । हमारी पहचान इन्हीं परम्पराओं के निर्वहन में है । राष्ट्र प्रेम, राष्ट्र भक्ति, राष्ट्रीय एकता भी इन्हीं में सन्निहित है । संप्रभुता, अखंडता रक्षित है ।
भारतीय संस्कृति की प्रकृति-
हमारी संस्कृति की प्रकृति समंवयात्मक, उदारवादी और मानवतावादी है । इसमें समन्वय की अद्भुत शक्ति है । इसमें बाह्य तत्वों को आत्मसात करने की क्षमता और परिस्थितियों के अनुरूप परिवर्तित होने का गुण विद्यमान है जिसके कारण यह व्यापक बन पड़ी है हमारी संस्कृति ने अनेक संस्कृतियों को ग्रहण कर अपनी ताकत बढ़ाई है । संस्कृति देश और समाज की रीढ़ है । राष्ट्र की धुरी है ।
राष्ट्रीय चेतना-
संस्कृति से तात्पर्य व्यक्ति के जीवन पद्धति से है, उनके सीखे हुए व्यवहार से है। यह उनके क्रियाकलापों का लेखा जोखा होता है । सभ्यता हमें विरासत में मिलती है । संस्कृति को सीखा जाता है । वैदिक युग के ऋषियों, मनीषियों से लेकर आधुनिक विचारकों के चिंतन प्रवाह में हमारी सांस्कृतिक विरासत के आधार भूत तत्व पाये जाते हैं । संस्कृति का संबंध हमारे मन, हृदय और मस्तिष्क के संस्कारों से होता है । यह सार्वभौम आदर्शों से प्रेरित होती रही है । सत्य की खोज, संपूर्ण मानव का कल्याण, सौंदर्याभिव्यक्ति, सत्यम् शिवम् सुंदरम् का ध्येय ,व्यवहारिक उत्तमता और पारमार्थिक श्रेष्ठता इसके लक्ष्य रहे हैं । विश्व की अनेक सभ्यताएं जहां लुप्त प्राय सी हो गयीं, वहीं हमारी सभ्यता और संस्कृति न्यूनाधिक परिवर्तन के साथ आज भी अपनी अविरल धारा में प्रवाहित हो रही है ।
कई बार विदेशी आक्रमणकारियों ने यहां आक्रमण कर राजनीतिक सत्ता तो हथिया ली लेकिन हमारी संस्कृति को विनष्ट नहीं कर सके । वेद, उपनिषद, षट् दर्शन, ग्रंथ, आरण्यक, गीता हमारी महान संस्कृति के परिचायक हैं । हमारी संस्कृति की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति इन्हीं ग्रंथों में हुई है । गीता और उपनिषद में ज्ञान की धारा आज भी इस देश में प्रवाहित हो रही है । इसी के संग हमारी चेतना, राष्ट्रीय एकता प्रवाहमान है ।
अनेकता में एकता-
विविधता में एकता हमारी राष्ट्रीय एकता की विशेषता है और अनेकता में एकता हमारी संस्कृति की भी विशेषता रही है । रक्त, रंग, भाषा, वेशभूषा, रीतिरिवाज और ग्रंथों की विविधताएं होते हुए भी आधारभूत एकता के दर्शन होते हैं । यद्यपि ये अनेक रंगों में बंटे हुए दिखते हैं, पर मस्तिष्क में एकता के विचार घूमते रहते हैं । धर्म, रीतिरिवाज, भाषा तथा सामाजिक और भौतिक विविधताओं के बावजूद जीवन की एक विशेष एकरूपता देखी जा सकती है । संस्कृति में एकता के चिन्ह पाये जाते हैं । विविधता में एकता की अनुपम विशेषता के कारण हमारी संस्कृति और राष्ट्रीय एकता अक्षुण्ण बनी हुई है । इस संदर्भ में डॉ रामसिंह दिनकर ने कहा है- ‘संस्कृति जिंदगी का एक तरीका है और यह तरीका सदियों से जमा होकर समाज में छाया रहता है जिसमें हम जन्म लेते हैं | ‘
”संस्कृति जिदगी का एक तरीका है और वह सदियों से जमा होकर समाज में छाया रहता है, जिसमें हम जन्म लेते हैं।”
डॉ रामसिंह दिनकर
आज भौतिक युग में पाश्चत्य सभ्यता ने सबको चकाचौंध कर अंधानुकरण करने को प्रेरित किया है । युवा पीढ़ी पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित दिखती है । इससे आस्था का संकट गहराया है जो चिंतनीय है । खानपान, रहन सहन, आचार विचार सब कुछ बदलने सा लगा है ।
एकता के बाधक तत्व-
सांप्रदायिकता, भाषावाद, क्षेत्रीयता, स्वार्थपरता, अशिक्षा, आर्थिक धार्मिक सामाजिक असमानता, रंगभेद, जातिवाद, दूषित शिक्षा प्रणाली अपना प्रभाव डालने की कोशिषें करती हैं लेकिन हमारी संस्कृति और राष्ट्रीय एकता की जड़ें इतनी गहरी, इतनी मजबूत हैं कि ये संकट की घड़ी में हमें एकता के सूत्र में पिरोये रखती हैं । सभी भेद भुलाकर राष्ट्र सर्वोपरि की उच्च भावना से प्रेरित हो अपनी एकता को अक्षुण्ण रखने में हमारी संस्कृति सहायक रही है । आज तक जीवंत है, जीवंत रहेगी ।
प्रजातीय विविधता में एकता हमारी संस्कृति-
सामाजिक सांस्कृतिक विविधता में एकता, धार्मिक विविधता में एकता, भाषायी विविधता में एकता, राजनीतिक विविधता में एकता, जातीय प्रजातीय विविधता में एकता हमारी संस्कृति की अनोखी खासियत है । यही हमारी राष्ट्रीय एकता को बल प्रदान करती है । अजर अमर बनाती है |।
डॉ नीलकंठ देवांगन
शिवधाम कोडिया, वि. खं. धमधा
जि. दुर्ग, (छ. ग.)
मोबा. 8435552828
दिनांक- 26.08.2021
(प्रकाशित पुस्तकें- ज्योति कलश, अमृत धारा, सोन चिरैया, सरग निसैनी, पंचामृत, दुल्हन की सूझ |)
संदर्भ- भारत की सांस्कृतिक विरासत
श्रोत- विविध साहित्य’ पंचामृत’
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-संपादक
सुरता: साहित्य की धरोहर
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