आलेख महोत्‍सव: 10. भारत का गौरवमयी इतिहास-कमला अग्रवाल

-आलेख महोत्‍सव-

भारत का गौरवमयी इतिहास

आजादी के अमृत महोत्‍सव के अवसर पर ‘सुरता: साहित्‍य की धरोहर’, आलेख महोत्‍सव का आयोजन कर रही है, जिसके अंतर्गत यहां राष्‍ट्रप्रेम, राष्ट्रियहित, राष्‍ट्र की संस्‍कृति संबंधी 75 आलेख प्रकाशित किए जाएंगे । आयोजन के इस कड़ी में प्रस्‍तुत है-श्रीमती कमला अग्रवाल द्वारा लिखित आलेख ”भारत का गौरवमयी इतिहास’।

गतांक- आलेख महोत्‍सव: 9. भारतीय संस्कृति राष्ट्रीय एकता का मूल स्रोत

भारत का गौरवमयी इतिहास

-कमला अग्रवाल

आलेख महोत्‍सव: 10. भारत का गौरवमयी इतिहास-कमला अग्रवाल
आलेख महोत्‍सव: 10. भारत का गौरवमयी इतिहास-कमला अग्रवाल

भारत हमारी पहचान-

परिवार की तरह देश भी हम सब की पहचान है । हम भारतीय हैं और भारत हमारा देश है । हमारे लिए, हमारा देश केवल पृथ्वी का एक टुकड़ा नहीं है बल्कि हम सब की भावना है, जिसमें जीवन की हर अनुभूति घुली -मिली है । जैसे बालक माँ की गोद में स्वयं को सुरक्षित समझता है वैसे ही हम सब , भारत में खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं । खुशियाँ विश्व में कहीं मना लो, विपदा आने पर स्वदेश ही याद पड़ता है। अभी बीते दिनों, तालीबान का अफगानिस्तान पर आक्रमण ने ,पूर्ण रुप से इस यथार्थ को चरितार्थ किया।

भारत का गौरवमयी इतिहास –

यह सोचने मात्र से कि भारत के गौरवमयी इतिहास का वर्णन करना है ,शरीर रोमांचित हो उठता है । एक साथ कई भावनायें हृदय में हिलोरें मारने लगती हैं जिनमें हर्ष, उत्साह ,त्याग ,प्रेम आदि समाहित हो ,मन को आनंदित करता है । बात तो सदियों पुरानी है लेकिन पढ़ा है कि एक वीर बालक जिसका नाम भरत था, उसी के नाम पर ,हमारे देश का नाम करण भारत हुआ। विदव्तजनों के अनुसार सदियों पुरानी पौराणिक पुस्तक विष्णुपुराण में भारत के क्षेत्रफल का वर्णन है तथा यहाँ रहने वालों को भारतीय कहा गया है।

भारत का गौरवमयी इतिहास का आधार-

‘ भारत का गौरवमयी इतिहास ‘कई विशिष्ट स्थितियों और परिस्थितीयों के आधार पर लिखा गया है । संस्कृति , सभ्यता ,शिक्षा , साहित्य, शिल्प व्यवहारिकता, व्यापार आदि इसके स्त्रोत हैं । हम इनमें से जिस विषय का चुनाव करते हैं सभी समृद्ध और श्रेष्ठ है ।

संस्कृति –

संस्कृति का मुख्य उद्गम , आंतरिक भावना है । मनुष्य तीन स्तरों पर जीता है –

  1. आध्यात्मिक
  2. मानसिक और
  3. भौतिक

संस्कृति, आध्यात्म और मन का मिश्रण है । आध्यात्म सेे मन पवित्र होता है , पवित्रता अच्छी सोच का निर्माण करती है ।अच्छी सोच से कुशल व्यवहारिकता आती है । किसी भी देश की संस्कृति की पहचान , मन में बसने वाले संस्कारों से होती है । सर्वप्रथम भारत भूमि पर ही आदि मानव का पदार्पण हुआ । ऐसा प्रमाण कहीं लिखित तो नहीं मिलता है लेकिन नर्मदा घाटी एवं सिंधु घाटी से मिले अवशेष इसके गवाह है । कला और संगीत भी मानव मन के उद्गारों को प्रकट करती है ।

प्राचीन संस्‍कृति ही आज परंपरा है-

अनेक शिलालेख भारत के वैदिक काल की प्रचीनतम संस्कृति को परिलक्षित करते हैं । आध्यात्म की जड़े तो इतनी गहरी थीं कि आज भी परंपरा के रुप में जन-मानस के मन में समाई है । भारत में नदियों ,वृक्षों ,सूर्य आदि की देवता मान कर पूजा करना ,हवन करके देवताओं को भोजन अर्पण कर ,उन्हें पुष्ट करना ,सभी प्रचीन संस्कृति का हिस्सा है । आज इसका पालन हम परंपरा के रुप में करते हैं।

संस्‍कृति संवाहकों देवत्‍व का दर्शन-

आधुनिक युग में इसे विज्ञान से जोड़ कर देखा जा रहा है । आज तो पश्चिम के लोग इसे श्रेष्ठ मान रहे हैं, साथ ही भारत की बहुत सी पद्धतियों को विज्ञान से जोड़ा जा रहा है । हमारे ही देश में सत्यता का पर्याय बने ‘राजा हरिश्चन्द्र ‘ ,कर्तव्य परायणता के आदर्श ‘श्री राम’, कर्मशीलता के प्रधान बने श्री कृष्ण । सभी में हमने देवत्व के दर्शन किए । युग आते-जाते रहे, भारत में अनेक महापुरुषों का जन्म हुआ जिनकी विचार धारा से हमारी संस्कृति समृद्ध होती रही । यहाँ पर हमारे लिए, महात्मा बुद्ध और महात्मा गाँधी का नाम लेना, गौरव की बात होगी ।

शिक्षा और सभ्यता –

शिक्षा और सभ्यता ,भारत के गौरवमयी इतिहास के अंग हैं । इतिहास गवाह है, शिक्षा के क्षेत्र में भारत ने विश्व का प्रतिनिधित्व किया है । शिक्षा प्रणाली का उदय वेदों से माना जाता है । वेद विश्व का सबसे पुराना ग्रंथ माना जाता है । इसकी रचना हमारे महर्षि वेद व्यासजी ने की थी । गायत्री मंत्र जिसका डंका विश्व में बज रहा है, वह ऋग्वेद की देन है । हमारे यहाँ के ऋषि नक्षत्रों की गणना करने में भी समर्थ थे ।

गुरूकुल शिक्षा प्रथा-

प्रचीन काल में गुरुकुल शिक्षा प्रथा थी । यहाँ नैतिकता और धर्म की शिक्षा दी जाती थी । गुरु का उद्देश्य होता था , छात्रों के चरित्र का निर्माण करना । आचार्यों के पास ज्ञान का अद्भुत भंडार था । शिष्यों के पास ग्रहण शीलता की शक्ति थी । पूरी पुस्तक कंठस्थ करने की प्रथा थी । आचार्यों का मानना था कि धर्म को ही प्रधान मान कर हम अच्छे साहित्य की रचना कर सकते हैं ।आचार्यों के परिश्रम के कारण ही आज वैदिक कालीन साहित्य सुरक्षित है । राजकुमारों को अस्र-शस्त्र की भी शिक्षा दी जाती थी ।

विश्‍व विद्यालय सचमुच विश्‍व का विद्यालय था-

तक्षशिला विश्व विद्यालय

तक्षशिला विश्व विद्यालय की स्थापना राजा भरत ने की । देश विभाजन के बाद यह पाकिस्तान का हिस्सा बना । ४ शती ई०र्पू ०- ६शती तक यह प्रख्यात रहा । कहा जाता है , उस समय के प्रचलित धर्म जैन ,बौद्ध और वैदिक, आचार्य जन सभी धर्मों पर चर्चा करते थे । चाणक्य ने यहीं से शिक्षा ग्रहण की ,फिर गुरु भी बने । मौर्य वंश का शासक चंद्रगुप्त मौर्य उन्हीं का विद्यार्थी था । कहने का अर्थ है आचार्य भारत का नेतृत्व करने वाले का भी सृजन करते थे ।

नालंदा विश्व विद्यालय

नालंदा विश्व विद्यालय के अवशेष हमें अभी भी देखने को मिलते हैं ।यहाँ, ९ मंजली पुस्कालय का वर्णन है । विद्यार्थी के लिए ३०० कमरों का उल्‍लेख मिलता है । यहाँ विदेश से भी लोग पढ़ने आते थे । हेन्सांग सी.चू चीन के रहने वाले थे । वह शिक्षित भी हुए और शिक्षा भी दी । नालंदा विश्व विद्यालय से ही बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार हुआ ।

शिल्प –

जैसे-जैसे शिक्षा का प्रसार हुआ । सभ्यता का विकास होने लगा । जीवन में परिवर्तन आने लगा। हाथ से वस्तु का निर्माण होने लगे । इनको गढ़ने के लिए मिट्टी ,पत्थर और धातु का निर्माण होने लगा । नरम पत्थरों पर मूर्तियाँ उकेर कर, उन्हें आग में पकाया गया जिससे वे सख्त हो जाती थीं ,बर्तन भी इसी तरह बनाये गये पात्र डिज़ाइन-दार बनने लगे । इसी तरह ईटों का निर्माण हुआ । इससे स्तूपों का निर्माण हुआ । इनके अंदर बौद्ध भिक्षुकों के निर्वाण प्राप्ति के बाद , हड्डी, बालों और अवशेषों को इकठ्ठा कर उस पर मिट्टी डाल कर स्तूप बना दिए गए । बाद में इन्हीं गुम्बदों के आधार पर बड़े – बड़े मंदिरों का निर्माण हुआ ।प्राचीन मंदिरों में हस्त शिल्प का उत्कृष्ट नमूना देखने को मिलता है । गुजरात का सोमनाथ मंदिर , उड़ीसा का कोर्णाक सूर्य मंदिर ,बिहार के देव में सूर्य मंदिर ,लिंग राजा कामंदिर ,सभी भारत के कारिगरी का अनुपम उदाहरण है । साथ ही सभी मंदिर वैभव से पूर्ण थे । मंदिरों में बहुत सोना हुआ करता था ।

भारत का वैभव-

भारत अपने सामर्थ्य से स्वयं अपरचित था । १४९८ में पहला पुर्तगाली विदेशी वास्कोडिगामा समुद्री रास्ते से भारत आया । बस क्या था ! यूरोप के देशों को भारत के समुद्री रास्ते का पता चल गया । व्यापार का बहाना बनाकर वे यहाँ आये । यहाँ का वैभव देखकर सबकी आँखे चकाचौंध हो गई । इनके मन में यहाँ राज्य करने की लालसा जाग उठी ।

आक्रांताओं ने लूटा-

यहाँ से वे सोना और मसाले जहाजों में भर -भर कर ले जाने लगे । पहले पुर्तगाली फिर डच ,उसके बाद अंग्रेजों ने भारत को पूरी तरह लूटा । भारत सोना ,मसालों और प्रकृतिक संसाधनो की वजह से सोने की चिड़िया कहा जाता था । यहाँ के काली मिर्च की माँग यूरोपिय देशों में बहुत थी क्योंकि काली मिर्च की तासीर गर्म होती है । इसे काला सोना के नाम से पुकारा जाता था ।

भारत का गौरवशाली इतिहास संरक्षित है-

हमारी उदारवादी नीति से विदेशियों ने कई वर्षों तक यहाँ राज्य किया फिर भी हमारी सभ्यता और संस्कृति को नहीं समाप्त कर पाये । यह आज भी है और कल भी रहेगी । भारत का गौरवशाली इतिहास हर काल में दोहराया जाता रहेगा ।

-कमला अग्रवाल
इंदिरापुरम गाजियाबाद ।

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-संपादक
सुरता: साहित्‍य की धरोहर

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