-आलेख महोत्सव-
भारत की एकता में बाधक तत्व
आजादी के अमृत महोत्सव के अवसर पर ‘सुरता: साहित्य की धरोहर’, आलेख महोत्सव का आयोजन कर रही है, जिसके अंतर्गत यहां राष्ट्रप्रेम, राष्ट्रियहित, राष्ट्र की संस्कृति संबंधी 75 आलेख प्रकाशित किए जाएंगे । आयोजन के इस कड़ी में प्रस्तुत है-महेश पांडेय ‘मलंग’ द्वारा लिखित आलेख ” भारत की एकता में बाधक तत्व’।
गतांक- आलेख महोत्सव: 10. भारत का गौरवमयी इतिहास
भारत की एकता में बाधक तत्व
-महेश पांडेय ‘मलंग’
भारत की एकता में बाधक तत्व
भारत की एकता में बाधक तत्व
इस वर्ष हम अपनी आजादी के 75वें वर्ष में प्रवेश कर चुके है । निश्चित रूप से एक राष्ट्र के रूप में हमारे देश ने कई क्षेत्रों में उल्लेखनीय उपलब्धियां हासिल की है। हमने प्रगति की अनेक ऊंचाइयों को छुआ है। भारत के प्रथम गृहमंत्री सरदार पटेल ने अपनी दृढ़ता और कौशल से भारत के 565 से ज्यादा छोटी बड़ी रियासतों का एकीकरण के दुष्कर कार्य को पूरा किया. भौगोलिक, भाषायी ,सांस्कृतिक विविधताओं के भरे विभिन्न राज्यों को एकता के सूत्र में बांधा गया. लेकिन इन सालों में देश में कई बार ऐसी परिस्थियाँ आती रही है जिससे हमारी राष्ट्रीय एकता की भावना ना केवल प्रभावित हुई अपितु आपसी द्वेष ,संघर्ष और वैमनष्य का वातावरण निर्मित हुआ। आज हमें विचार करना चाहिए कि ऐसे क्या कारक है जिनके कारण हमारी राष्ट्रीय एकता कमजोर होती है । हम राष्ट्रीय एकता के मार्ग में अवरोधक तत्वों की बिंदुवार विवेचना करते हुए यह भी सुनिश्चित करेंगे कि इन अवरोधों से निपटने के क्या उपाय किए जा सकते है ।
संकीर्णवादी क्षेत्रवाद की भावना-
राष्ट्रीय एकता का सबसे बड़ा शत्रु क्षेत्रवाद की संकीर्ण मानसिकता है। अभी भी कई बार ऐसा होता है राज्यों द्वारा राष्ट्रीय हित की अपेक्षा अपने क्षेत्रीय हितों को प्राथमिकता देते है । कई राज्यों में क्षेत्रीय दल बहुत प्रभावी हो गए है और वे अपने चुनावी फायदों के लिए क्षेत्रवाद की भावनाओ को हवा देते रहते है। इस कारण से कई बार ऐसी परिस्थियाँ उतपन्न हो जाती है, जिसके कारण दो राज्यों के बीच संघर्ष की स्थिति बन जाती है। कावेरी नदी जल बंटवारे के मामले में कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच कई बार संघर्ष की स्थिति पैदा होती रहती है। महाराष्ट्र जैसे राज्यों में उप्र और बिहार के अप्रवासियों पर उन्हें बाहरी करार देते हुए कई बार हमले भी किये गए। देश के विभिन्न हिस्सों में छुटपुट घटनाएं होती रहती है. कुछ राज्यों में क्षेत्रवाद की भावना इतनी प्रबल है कि वहाँ ‘उपराष्ट्रीयतावाद’ की भावना देखने को मिलती है, खासकर तमिल, मराठी और बंग उपराष्ट्रीयतावाद, क्षेत्रवाद की संकीर्णवादी सोच ना सिर्फ राष्ट्रीय एकता को प्रभावित करती है अपितु अलगाववाद के बीज भी इसमें छिपे होते है. क्षेत्रियतावादी सोच को तिलांजलि देते हुए ‘सबसे पहले हम भारतवासी’ की भावना को पुष्ट किए जाने की आवश्यकता है।
धार्मिक कट्टरवाद एवं सांप्रदायिकता –
भारत की राष्ट्रीय एकता में साम्प्रदायिकता एक सबसे बड़ी बाधा है । चाहे यह बहुसंख्यक समुदाय की साम्प्रदायिकता हो या अल्पसंख्यक समुदाय की साम्प्रदायिकता। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने अपने एक उद्बोधन में कहा था कि जहाँ बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता की भावना फासीवाद की भावना को पुष्ट करता है वही अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता अलगाववाद को । हमें दोनों प्रकार की साम्प्रदायिकता को हतोत्साहित करना है”
मजहबी आधार पर भारत के विभाजन और पाकिस्तान के निर्माण के बाद यह आशा थी कि अब हिन्दू-मुस्लिम विवाद समाप्त हो गए है और दोनों समुदाय परस्पर सामंजस्य और सद्भाव के साथ रहेंगे। लेकिन ये आशाएँ बहुत दिनों तक कायम नहीं रह सकी. सियासी कारणों से हिन्दू-मुस्लिम समुदाय के मध्य संघर्ष के वातावरण बने रहे । दोनों समुदायों के बीच कई बार दंगे फसाद होते रहे । 1985 के बाद विशेषकर के शाहबानो प्रकरण, लेखक सलमान रश्दी के ‘सैटेनिक वर्सेज ‘विवाद और अयोध्या के मंदिर-मस्जिद विवाद के पश्चात हिन्दू -मुस्लिम सांप्रदायिकता अपने चरम पर पहुंच गया। मुस्लिम समुदाय में फिरकापरस्ती और अलगाववादी भावनाओ को भड़काया गया वही इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप हिंदुओ में धार्मिक गोलबंदी हुई । अभी भी दोनों समुदायों के बीच अविश्वास की दीवार को ज्यादा मजबूत करने का काम किया जा रहा है, जो भारत की राष्ट्रीय एकता के लिए अत्यंत घातक है ।
क्षेत्रीय एवं मजहबी अलगाववाद –
अलगाववाद की भावना और अलगाववादी आंदोलन ने भी हमारे देश की एकता को बहुत बुरी तरह से प्रभावित किया है । एक समय पूरा पूर्वोत्तर भारत अलगाववाद की आग में झुलस रहा था। वहाँ के नागालैंड, मिजोरम, मणिपुर, असम जैसे राज्यों में अलगाववादी संगठनों ने सशत्र हिंसक आंदोलन चलाकर अपने लिए पृथक राष्ट्र की मांग करने लगे थे। असम में उल्फा जैसे पृथकतावादी उग्रवादी संगठन ने हिंसा करते हुए कई बार हिंदीभाषी लोगो और भारतीय सेना को हिंसा का शिकार बनाया । इसके अलावा 1980 के दशक में पंजाब में सिख कट्टरपंथ का उदय हुआ और वहाँ एक स्वतंत्र पृथक सिख राष्ट्र खालिस्तान की मांग करते हुए आतंकवादी आंदोलन चलाया गया । एक दशक तक चले इस अलगाववादी आंदोलन में हजारों लोग आतंकवाद के शिकार हुए। इस अलगाववादी आंदोलन की बड़ी कीमत देश को चुकाना पड़ी. अमृतसर में स्वर्णमंदिर को आतंकवादियों के कब्जे से छुड़ाने के लिए सैन्य कार्यवाही की गई, इसके फलस्वरूप उपजे आक्रोश के कारण प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को अपनी जान गवानी पड़ी। इंदिरा गांधी जी की हत्या के प्रतिक्रिया में पूरे देश मे सिख विरोधी दंगे हुए जिसमे हजारों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी। 1990 के दशक में कश्मीर में भी पाकिस्तान के राष्ट्र्पति जिया उल हक और पाकिस्तान की गुप्तचर संस्था आईएसआई की शह पर मुस्लिम अलगाववाद और उग्रवादी आंदोलन प्रारंभ हुआ। कश्मीर घाटी से पूरी हिन्दू आबादी को रातोरात निर्वासित होना पड़ा। अभी भी कश्मीर में यह अलगाववादी आंदोलन चल रहा है. कहने की आवश्यकता नहीं कि अलगाववाद राष्ट्रीय एकता में एक बहुत बड़ी बाधा है ।
जातिवाद का विखंडनवादी स्वरूप-
जातिप्रथा या जातिवाद भी राष्ट्रीय एकता के बाधक है । जातिप्रथा के संबंध में दो विचार है ,एक महात्मा गांधी जी का जो मानते थे कि जातिप्रथा को बनाए रखते हुए भी इसमे व्याप्त असमानता और भेदभाव को दूर करके हमें इसे राष्ट्र और समाज के लिए उपादेय बना सकते है वही डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने अपनी क्रांतिकारी किताब ‘Annihilation of Caste’ में जातिप्रथा को सिरे से खारिज करते हुए लिखते है कि “जिन धार्मिक धारणाओं पर यह जाति व्यवस्था टिकी हुई है, उन्हें मिटाए बिना जाति को तोड़ना असम्भव है” इस प्रकार डॉक्टर अंबेडकर जातिप्रथा के समूल विनाश के पक्ष में है. जातिवाद की सबसे बड़ी बुराई यह है कि यह ना केवल जातीय निष्ठा को पुष्ट करता है बल्कि यह भेदभाव, आपसी वैमनष्य और संघर्ष की स्थिति को निर्मित करता है। व्यक्ति राष्ट्रीय हितों की जगह अपने क्षुद्र जातीय हितों को प्राथमिकता देने लगता है. जातिवाद के कारण ना सिर्फ सामाजिक विखंडन होता है बल्कि राष्ट्रीय एकता भी बुरी तरह प्रभावित होती है ।
भाषावाद :क्षुद्र राजनैतिक स्वार्थों का हथियार-
.भारत में कई भाषाएं बोली जाती है । भाषाओं के संबंध में हमारे देश के गर्व करने लायक कई चीजें है। संस्कृत जिसे अन्य सभी भारतीय भाषाओं की जननी कहा गया है, हमारी देश की सांस्कृतिक पहचान और एकता के सूत्र में बांधने वाली एक भाषा रही है। यह कच्छ से कामरूप और कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक ही तरह से व्यहृत हुई। स्वतंत्रता के पश्चात हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने की कोशिश तमिलनाडु और दक्षिण भारत के अन्य राज्यों के प्रबल विरोध के कारण संभव नहीं हो सका । राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और नेताजी सुभाष चंद्र बोस का विचार था कि राष्ट्रभाषा की अधिकारिणी हिंदी ही है । लेकिन भाषा के संबंध में संकीर्णवादी राजनीति से हमारी राष्ट्रीय एकता बाधित होती रही है । 1956 में हमारे देश मे राज्यों का पुनर्गठन भाषा के आधार पर ही किया गया । भारत बहुभाषा भाषीय देश है और प्रत्येक राज्य को अपनी भाषा के प्रति लगाव और आग्रह होना स्वाभाविक है । प्रत्येक राज्य को अपनी-अपनी भाषाओं के संरक्षण और संवर्धन का अधिकार है लेकिन कुछ राज्यों खासकर तमिलनाडु में भाषा के नामपर बहुत विवाद पैदा किया गया । वहाँ हिंदी विरोधी हिंसक आंदोलन हुए । बेहतर यही है कि भाषा के आधार पर क्षुद्र राजनीति कर राष्ट्रीय एकता को क्षति ना पहुंचाई जाए।
अमृत महोत्सव की सार्थकता-
राष्ट्रीय एकता जब मजबूत होगी तभी भारत सही अर्थों में एक सबल, सक्षम और सफल राष्ट्र होगा. इसके यह अत्यंत आवश्यक है कि हम सब अपने क्षुद्र स्वार्थ और भावनाओं से ऊपर उठे और सामंजस्य, सद्भाव और समरसता का वातावरण बनाकर भारत की राष्ट्रीय एकता को मजबूत करें. तभी स्वतंत्रता का यह अमृत महोत्सव सार्थक और सफल होगा ।
-महेश पांडेय ‘मलंग’
लोरमी रोड पंडरिया जिला-कबीरधाम
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-संपादक
सुरता: साहित्य की धरोहर
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