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आलेख महोत्‍सव: 2. स्‍वतंत्रता का अनाम सिपाही-लोक नायक रघु काका

आलेख महोत्‍सव: 2. स्‍वतंत्रता का अनाम सिपाही-लोक नायक रघु काका

-आलेख महोत्‍सव-

आजादी के अमृत महोत्‍सव के अवसर पर ‘सुरता: साहित्‍य की धरोहर’ आलेख महोत्‍सव का आयोजन कर रहा है, जिसके अंतर्गत यहां राष्‍ट्रप्रेम, राष्ट्रियहित, राष्‍ट्र की संस्‍कृति संबंधी 75 आलेख प्रकाशित किए जाएंगे । इस आयोजन के दूसरी कड़ी के रूप में श्री सुबेदार पाण्‍डेय का संस्‍मरणात्‍मक कहानी प्रकाशित किया जा रहा है ।

आलेख महोत्‍सव-1:”भारतीय संस्कृति-राष्ट्रीय एकता का श्रोत”

 
स्‍वतंत्रता का अनाम सिपाही-लोक नायक रघु काका

-सुबेदार पाण्‍डेय

दो शब्द कलमकार के-

अलाव घास फूस तथा‌ लकडी के उस ढेर को कहते हैं जो जाड़े के दिनों में दरवाजों पर जलाया जाता है, जिससे लोग हाथ सेकते है जिसके अलग अलग भाषाओं में अनेक नाम हैं,जैसे , कौड़ा, तपनी, तपंता ,धूनी आदि न जाने ऐसे कितने नाम अनेक भाषाओं में,जिसे जाड़े से मुक्ति के लिए लगभग हर दरवाजे पर लकड़ी तथा घासफूस का ढेर जलाया जाता है, ठंड़ से मुक्ति पाने के लिए,यही वो जगह है जहां  कथा  कहानियों की अविरल धारा बहती थी। यहीं गीता रामायण महाभारत की कथाओं  का आकर्षण खींच लाता था लोगों को, अगर अलाव न होते तो आज सारी दुनियां मुंशी प्रेमचंद की कालजयी रचनाओं से  बंचित ही‌ रहती,और कफ़न जैसी काल जयी रचना का जन्म न हो पाता। शायद  इस कथा का जन्म भी यहीं हुआ था। इसके उद्गम स्थल का उद्गम श्रोत भी अलाव ही है। ‌

जब हम छोटे थे तब हमारे दादाजी ‘रघु काका’ की कहानी सुनाते थे । उनकी कहानी अलाव के पास बैठे लोगों में चर्चा की विषय वस्‍तु रहती थी । वास्‍तव में यह एक संस्‍मरण हैं, इसे रोचक बनाने के लिए कुछ काल्‍पनिक चित्रण के साथ एक कहानी के रूप में प्रस्‍तुत किया जा रहा है, इसमें प्रयुक्‍त कविता मेरी मौलिक कविता है ।

-सुबेदार पाण्‍डेय

आलेख महोत्‍सव-2: स्‍वतंत्रता का अनाम सिपाही
आलेख महोत्‍सव-2: स्‍वतंत्रता का अनाम सिपाही

स्‍वतंत्रता का अनाम सिपाही-लोक नायक रघु काका

हमारे बगल वाले गांव के ही रहने वाले थे रघु काका, उन्होंने अपने जीवन में बहुत सारे उतार चढ़ाव देखे थे। हमारे दादा जी जब कभी अलाव के पास बैठ रघु काका के बहादुरी पर चर्चा छेड़ते तो लगता जैसे वे उनके साथ बीते दिनों की स्मृतियों में कहीं खो जाते। क्योकि वे उनके विचारों के प्रबल समर्थक थे और इसके साथ हम बच्चों के ज़ेहन में रघू काका का व्‍यक्तित्‍व तथा उनके निष्कपट व्‍यवहार की यादें बस‌ जाती,और उनका चरित्र भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की अमर गाथा बन लोगों की स्मृतियों में रच बस जाता। ऐसे ना जाने कितने अनाम व्यक्तित्व फांसी झूले, काला पानी की  सजा झेले, अपनी आत्माहुति दी तब कहीं हम आज आजादी का पचहत्तरवां स्वतंत्रता दिवस अमृत महोत्सव के रूप में मना पा रहे हैं  जिनका चरित्र स्वतंत्रता  की लड़ाई के इतिहास में प्रेरणा स्त्रोत बन कर उभरा था जिनका वर्णन आज भी इतिहास के किसी पन्ने पर  नहीं मिलता लेकिन एक व्यक्ति के रूप में उनके राष्ट्र सेवा के योग दान को नकारा नहीं जा सकता।तभी वे हमारे लोक कथा के नायक बन उभरे।


यद्यपि आज वो हमारे बीच नहीं रहे, दिल की लगी गहरी भावनात्मक चोट ने उन्हें बिरक्ति के मार्ग पर पर ढकेल दिया, लेकिन वे और उनका चरित्र हमारी स्मृतियों में बसा हुआ आज भी कहानी बन कर पल रहा है। अब जब कभी स्मृतियों के झरोखे खुलते हैं, तो उनकी यादें  बरबस ही फिर ताजा हो उठती है, तथा उनके द्वारा बचपन में सुनाये गये गीतों के स्वर लहरियों की ध्वनितरंगे  कानों में मिसरी सी घोलती गूंजउठती है। उनका प्रेमपगा व्‍यवहार संस्मरण बन जुबां ‌पे मचल उठता है।

रघू काका ने पराधीन भारत माता की अंतरात्मा की पीड़ा, बेचैनी की  छटपटाहट को बहुत ही नजदीक से अनुभव किया था। वे भावुक हृदय इंसान थे। वो उस समुदाय से आते थे, जो अब भी यायावरी करता जरायम पेशा से जुड़ा हुआ है। जहां आज भी अशिक्षा, नशाखोरी, देह व्यापार गरीबी तथा कुपोषण के जिन्न का नग्नतांडव देखा जा सकता है । सरकारों द्वारा उनके विकास की बनाई गई हर योजना उनके दरवाजे पहुंचने के पहले ही दम तोड़ती नजर आती है। उनके कुनबों के लोगों का जीवन आज भी आज यहां तो कल वहां सड़कों के किनारे सिरकी तंबुओं में बीतता है। ढोल बजाकर गाना भीख मांग कर खाना तथा आपराधिक गतिविधियों का संचालन ही उस समुदाय का पेशा था ।उसी समुदाय की उन्हीं परिस्थितियों से धूमकेतु बन उभरे थे रघु काका , जिनका स्नेहासिक्त  जीवन व्यवहार उन्हें औरों से अलग स्थापित कर देता। वो तो किसी और ही मिट्टी के बने थे। वो भी अपनी रोजी-रोटी की तलाश में वतन से दूर साल के आठ महीने टहला करते, बहुत दूर दूर तक उनका जाना होता।

लेकिन वे बरसात के दिनों का चौमासा अपने गांव जवार में ही बिताते। वो बरसात के दिनों में गांवों-कस्बों में घूम-घूम आल्हा कजरी गाते सुनाते, ईश्‍वर ने उन्हें अच्छे स्वास्थ्य का मालिक बनाया था। शरीर जितना स्वस्थ्य हृदय उतना ही कोमल चरित्र, बल उतना ही निर्मल, । बड़ी बड़ी सुर्ख आंखें, घुंघराले काले बाल रौबदार घनी काली मूंछें, चौड़ा सीना लंबी कद-काठी, मांसल ताकतवर भुजाओं का मालिक बनाया था उन्हें,बांये कांधे पर लटकती ढोल थामें दांये कांधे पर अनाज की गठरी ही उनकी पहचान थी, वे बहुत ज्यादा की चाह न रख बहुत थोड़े में ही संतुष्ट रहने वाले इंसान थे। वे भले ही चौपालों में गीत गा कर पेट भरते रहे हो, लेकिन हृदय दया से परिपूर्ण था,और हम बच्चों के तो वो महानायक हुआ करते थे, लोकगायक होने के नाते वे भावुक हृदय के मालिक थे।

वो बरसात में जब हमारे चौपालों में आल्हा या कजरी गीतों के सुर भरते तो मीलों दूर से लोग उनकी आवाज़ सुन उसके आकर्षण से बंधे खिंचे चले ‌आते और  चौपालों में भीड़ मच जाती, वे भावों के प्रबल चितेरे थे, कभी आल्हा-ऊदल के शौर्य चित्रण करते जोश में भर नांच उठते तो कभी कजरी गीतों में राम की बिरह बेदना का चित्रण करते रो पड़ते। अथवा सुदामा द्रोपदी के चीर हरण कथा सुना लोगों को रोने पर विविश कर देते।वे जब कभी रामचरितमानस की चौपाइयों मेंबानी जोड़ ‌गाते———–

लछिमन कहां जानकी होइहै, ऐसी बिकट अंधेरिया ना।
घन घमंड बरसै चहुओरा, प्रिया हीन तरपे मन मोरा।
ऐसी बिकट अंधेरिया ना।। (अरण्यकांड राम०चरित मानस से)

तो उनकी भाव विह्वलता से सबसे ज्यादा प्रभावित महिला ‌समाज ही‌ होता और उसके ‌बाद चौपालों में बिछी चादर पर कुछ पलों में ही अन्नपूर्णा और लक्ष्मी दोनों ही बरस पड़ती, और गांवों घरों की‌ महिलाएं अन्न के रूप में स्नेहवर्षा से उनकी झोली भर देती। जिसे बाजार में बेच वे नमक तेल लकड़ी तथा आंटे का प्रबंध कर लेते, और उनकी गृहस्थी की गाड़ी ‌आराम से चल जाती।वे जब भी बाजार से लौटते तो हम बच्चों के लिए रेवड़ियों तथा नमकीन का उपहार लाना कभी भी नहीं भूलते, हम बच्चों से मिलने का उनका अपना खास अंदाज था । वे जब हमारे झुण्डों के करीब होते तो खास अंदाज में ‌ढ़ोलक पर थाप देते, हम बच्चों का झुंड उस ढ़ोलक की चिर परिचित आवाज के ‌सहारे आवाज की दिशा में दौड़ लगा देते, उनकी तरफ कोई गले का हार बन उनसे लिपट जाता तो कोई पांवों में जंजीर बन, इसी बीच कोई शरारती बच्चा उनके हाथ का थैला छीन भागता तो तो दौड़ पड़ते उसके पीछे पीछे,और नमकीन का थैला ले सबको बराबर बराबर बांट देते ।

निम्न‌ कुल में जन्म लेने के बाद भी उन्होंने अपना एक अलग‌ ही आभामंडल विकसित कर लिया था। इसी लिए वे उच्च समाज के महिला पुरुषों के आदर का पात्र बन कर उभरे थे। मुझे आज भी वो समय‌ याद है, जब देश अंग्रेजी शासन की ग़ुलामी से आजादी का आखिरी संघर्ष कर रहा‌ था। महात्मा गांधी की अगुवाई में अहिंसात्मक आंदोलन अपने चरमोत्कर्ष पर था, हज़ारों लाखों भारत माता के अनाम लाल  हंसते हुए फांसी का फंदा चूम शहीद हो चुके थे। इन्ही परिस्थितियों ने रघु काका के हृदय को आंदोलित और उद्वेलित कर दिया था । वे भी अपनी ढ़ोल‌क ले कूद पड़े थे दीवानगी के आलम में आजादी के संघर्ष में अपनी भूमिका निभाने, तथा अपना योगदान देने। अब उनके गीतों के सुर लय ताल बदले हुए थे, वे अब प्रेम विरह के गीतों के बदले देश प्रेम के गीत गाकर नौजवानों के हृदय में देश भक्ति जगाने लगे थे, अब उनके गीतों में भारत मां के उर अंतर की‌ वेदना मुख्रर हो रही थी।

इसी क्रम में एक दिन वे गले में ढोल लटकाये आजादी के दीवानों के दिल में जोश भरते जुलूस की अगुवाई ‌कर रहे थे। उनके देश भक्ति के भाव‌ से  ओत-प्रोत ओजपूर्ण गीत सुनते सुनते जनता के हृदय में देश भक्ति का ज्वार उमड़ पड़ा था,देशवासी भारत माता की जय , अंग्रेजों भारत छोड़ो के नारे लगा रहे थे।तभी अचानक उनके जूलूस का सामना अंग्रेजी गोरी फौजी टुकड़ी से हो गया था । अपने अफसर के आदेश पर फौजी टुकड़ी टूट पड़ी थी निहत्थे भारतीय आजादी के दीवानों पर, सैनिक उन निहत्थों पर‌ घोडे़ दौड़ाते हुए हंटरो तथा बेतों से पीट रहे थे। तभी अचानक उस जुलूस का नजारा बदल गया,  भारतीयों के खून की प्यासी फौजी टुकड़ी का अफसर  हाथों से तिरंगा थामे बूढ़े आदमी को जो उस जूलूस का ध्वजवाहक था, को अपने आक्रोश के चलते  हंटरो से पीटता हुआ पिल पड़ा था उस पर। वह बूढ़ा आदमी दर्द और पीड़ा  से बिलबिलाता बेखुदी के आलम में भारत माता की जै के नारे लगाता चीख चिल्ला रहा था, वह अपनी जान देकर भी ध्वज झुकाने तथा हाथ उसे छोड़ने के लिए तैयार न था, और रघू काका उस बूढ़े का अपमान सह नहीं सके, फूट पड़ा था उनके हृदय का दबा आक्रोश, उनकी आंखों में खून उतर आया था ।

उन्होंने झंडा झुकने नहीं दिया, उस बूढ़े को पीछे ढ़केलते हुए अपनी पीठ आगे कर दी थी,  आगे बढ़ कर सड़ाक-सड़ाक-सड़ाक पीटता जा रहा था अंग्रेज अफसर ,तभी रघूकाका ने उसका हंटर पकड़ जोर से झटका दे घोड़े से नीचे गिरा दिया था । जो उनके चतुर रणनीति का हिस्सा थी। उन्होंने अपनी ढोल को ही अपना हथियार बना अंग्रेज अफसर के सिर पर दे मारा था, अचानक इस आक्रमण ने उसको संभलने का मौका नहीं दिया ‌था । वह अचानक हमले से घबरा गया, फिर तो जुनूनी अंदाज में पागलों की तरह पिल पड़े थे उस पर और मारते मारते भुर्ता बना दिया था उसे । रक्तसना उसका चेहरा बड़ा ही वीभत्स तथा विकृत भयानक दीख रहा था। वह चोट से बिलबिलाता गाली देते चीख पड़ा था, (ओ साला डर्टीमैन टुम अमको मारा, अम टुमकों जिन्डा नई छोरेगा,) और फिर तो उस गोरी टुकड़ी के पांव उखड़ ‌गये, थें। और वह पूरी टुकड़ी जिधर से आई थी उधर ही भाग गई थी, और रघु काका ने‌ अपनी‌ हिम्मत से स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक नया अध्याय ‌लिख दिया था आज की जीत का सेहरा‌ रघु काका के सिर सजा था और उनका सम्मान और कद लोगों के बीच बढ़ गया ‌था वे लोगों की श्रद्धा का केन्द्र ‌बन बैठे थे।

 लेकिन कुछ ही दिन बाद रघु काका अपने ही‌ स्वजन बंधुओं के ‌धोखे का शिकार बने थे, वे मुखबिरी व गद्दारी के चलते रात के छापे में पकड़े गये थे, लेकिन उनके चेहरे पर भय आतंक व पश्चाताप का कोई भाव नहीं, वे जब घूरते हुए अंग्रेज अफसर की तरफ दांत पीसते हुए देखते तो, उसके शरीर में झुरझुरी छूट जाती।‌ उस दिन उन पर अंग्रेज थानेदार अफसर ने बड़ा ‌ ही बर्रबर अत्याचार किया था, लेकिन वह रघु काका के‌ चट्टानी हौसले‌‌ को तोड़ पाने में ‌विफल रहा, वह हर उपाय‌ शाम दाम दंड भेद अपना चुका था, लेकिन असफल रहा था मुंह खुलवाने में। न्यायालय से रघु काका को लंबी‌जेल की सजा सुनाई गई थी, और उन्हें कारागृह की अंधेरी तन्हाई काल कोठरी में डाल दिया ‌गया था, लेकिन वहां जुल्म सहते हुए भी उनका जोश जज्बा और जुनून कम नहीं हुआ। उनके जेल जाने पर उनके एकमात्र वारिस बचे पुत्र  राम खेलावन ‌ के पालन पोषण की‌ जिम्मेदारी  समाज के वरिष्ठ मुखिया लोगों ने अपने ऊपर ले लिया था ।

राम खेलावन ने भी अपनी विपरीत परिस्थितियों के नजाकत को समझा था ,और अपनी पढ़ाई पूरी मेहनत के ‌साथ की थी, तथा उच्च अंकों से परीक्षा ‌पास कर निरंतर प्रगति पथ पर बढ़ते हुए अपने ही जिले के शिक्षा विभाग में उच्च पद पर आसीन हो गये थे । वे जिधर भी जाते, स्वतंत्रता सेनानी के पुत्र होने के नाते उनको भरपूर सम्मान मिलता, जिससे उनका हृदय आत्मगौरव के प्रमाद से ग्रस्त हो गया था ,वे भुला चुके थे अपने गरीबी के दिनों को ।

अब देश स्वतंत्रत हो गया था, रघु काका जैसे लाखों अनाम शहीदों की कुर्बानी रंग लाई थी तथा रघु काका की‌ त्याग तपस्या सार्थक ‌हुई , उनकी सजा के दिन पूरे हो चले थे, आज उनकी रिहाई का दिन था, जेल के मुख्य द्वार के सामने आज बड़ी ‌भीड़ थी, लोग अपने नायक को अपने सिर पर बिठा‌ अभिनंदन करने को आतुर दिख रहे थे। उनके बाहर आते ही वहां उपस्थित अपार जनसमूह ने हर हर महादेव के जय घोष तथा करतल ध्वनि से माला फूलों से लाद कर  कंधे पर उठा अपने दिल में बिठा लिया था । लोगों से इतना प्यार और सम्मान पा छलक पड़ी थी रघु काका की आंखें।

इस घटनाक्रम से यह तथ्य बखूबी‌साबित हो गया कि जिस आंदोलन को समाज के संभी बर्गो का समर्थन मिलता है, वह आंदोलन जनांदोलन बन जाता है, जो व्यक्तित्व सबके हृदय में बस मानस पटल पर छा जाता है , वह जननायक बन सबके दिलों पर राज करता है।

इस प्रकार समय चक्र मंथर गति से चलता रहा चलता रहा, और रघु काका जेल में बिताए यातना भरे दिनों अंग्रेज सरकार  द्वारा मिली यातनाओं को भुला चले थे। और एक बार फिर अपने स्वभाव के अनुरूप कांधे पर ढोलक टांगें जीविकोपार्जन हेतु घर से निकल पड़े थे, यद्यपि उनके पुत्र राम खेलावन अच्छा पैसा कमाने लगे थे, पर वो नहीं चाहते थे कि रघु काका अब ढोल टांग भिक्षाटन को जाय, क्योकि इससे उनमें हीनभाव पैदा होती थी । लेकिन रघु तो रघु काका ठहरे, उन्हें लगता कि गांव जवार की गलियां बड़े बुजुर्गो का प्यार बच्चों की‌ निष्कपट हंसी अपने ‌मोह पास में बांधे अपनी तरफ बुला रहीं हों, इन्ही बीते पलों की स्मृतियां उन्हें अपनी ओर खींचती ,और उनके कदम चल पड़ते गांवों की गलियों की ओर।
आज महाशिवरात्रि का पर्व है, सबेरे से ही लोग-बाग जुट पड़े हैं भगवान शिव का जलाभिषेक करने, तथा शिवबराती बन शिव विवाह के साक्षी बनने, महाशिवरात्रि पर पुष्प अर्पित करने।

हाय प्रिये तुम कहां‌खो गई,अब मैं तुमसे मिल न‌ सकूंगा।
अपने दुख सुख मन की पीड़ा,कभी किसी से कह‌ न सकूंगा।
घर होगा परिवार भी‌ होगा, दिन होगा रातें भी होगी।
रिस्ते होंगे नाते होंगे, सबसे फिर मुलाकातें होंगी।
जब तुम ही न होंगी‌ इस जग में, फिर किससे दिल की बातें होंगी।
।।हाय प्रिये।।।1।।

तुम ऐसे आइ‌ मेरे जीवन में, जैसे ‌बहारें आई थी।
दुख सुख‌मे साथ चली मेरे, कदमों से ‌कदम मिलाई थी ।
थका हारा जब होता‌ था, सिरहाने तुमको पाता था।
कोमल स्पर्श और हाथ तुम्हारा,सारी पीड़ा हर लेता था
                   ।।।हाय प्रिये।।।2।।।

जीवन ‌के झंझावातों में, दिन रात थपेड़े खाता था ।
उनसे टकराने का साहस तुमसे ही तो पाता था ।
रूखा‌ सूखा जो कुछ मिलता, उसमें ही खुश रह लेतीथी।
अपना ग़म अपनी पीड़ा, मुझसे कभी नं कहती थी ।
                 ।।।हाय प्रिये ।।3।।

तुम मेरी जीवन रेखा‌ थी ,तुम मेरा हमराज थी।
और मेरे गीतों गजलों की,‌तुम ही तो आवाज थी ।
नील गगन के पार चली, शब्द मेरे खामोश‌ हो गये ।
ताल मेल सब कुछ बिगड़ा, और मेरे सुर साज खो गये।
               ।।।3।।।

अब शेष बचे दिन जीवन के, यादों के सहारे काटूंगा ।
अपने ग़म अपनी पीड़ा को, मैं किससे अब बांटूंगा ।
तेरी याद लगाये सीने से, बीते पल में मैं खो जाऊंगा।
ओढ़ कफ़न की चादर इक‌दिन , तेरी तरह ही सो जाऊंगा ।।4।।


इस प्रकार आर्तनाद करते करते, बुदबुदाते रघूकाका के ओंठ कब शांत हो गये पता नहीं चला। वो गहननिंद्रा में निमग्न हो गये, काफी‌ दिन चढ़ जाने पर ही चरवाहे बच्चों की‌ आवाजें सुन कर जागे थे,और अगल बगल छोटे बच्चों का‌ समूह खेलते पाया था, जिनकी मधुर आवाज से ही उनका मन खिलखिला उठा था, और वे एक बार फिर सारी दुख चिंताये भूल कर बच्चों मे‌ बच्चा बनते दिखे। और मेले से खरीदी रेवड़ियां और बेर फल बच्चों में बांटते दिखे ।तब से वह भग्न शिवालय ही उनका आशियाना बना। अब वे‌ विरक्त संन्यासी का जीवन गुजार ‌रहे थे, उन्हें जिंदगी को एक नये सकारात्मक दृष्टिकोण ‌से देखने जरिया मिल गया था , और एक दिन जीवन के मस्ती भरे क्षणों के बीच उन्हीं खंडहरों में रघूकाका का पार्थिव शरीर मिला था, उस दिन, सहचरी ढोल सिरहाने पड़ी आंसू बहा रही थी, कलाकार मर चुका था कला सिसक रही थी, उनके शव को चील कौवे नोच रहे थे, शायद यही उनकी आखिरी इच्‍छा थी कि मृत्यु हो तो उनका शरीर उन‌भूखे बेजुबानों के काम‌ आ जाय । वे लाख प्रयास के बाद भी उस समाज का परित्याग कर चुके थे, जहां अपनों से नफ़रत गैरों से बेपनाह मुहब्बत मिली थी, प्यार मुहब्बत और नफरतों का ये खेल ही उनके  दुख का कारण बना था । आज सुहानी सुबह उदास थी,और चरवाहे बच्चों की आंखें नम थी, जो कल तक रघूकाका के साथ खेलते थे । इस प्रकार स्वतंत्रता संग्राम सेना के‌ एक महावीर ‌योद्धा का चरित्र एक‌ किंवदंती बन कर रह गया, जिनका उल्लेख इतिहास के किताबों में नहीं मिलता।

उपसंहार-

यद्यपि मृत्यु के पश्चात पार्थिव शरीर पंच तत्व में विलिन हो जाता है। मात्र रह जाती है, जीवन मृत्यु के‌ बीच बिताए ‌पलों की कुछ खट्टी मीठी यादें जो घटनाओं के रूप धारे स्मृतियों के झरोखों से झांकती कभी कथा, कहानी, संस्मरण, रेखाचित्र, की विधाओं में सजी पाठकों श्रोताओं के दिलो-दिमाग को अपने इंद्र धनुषी रंगों से आलोकित एवम् स्पंदित करती नजर आती है। तो कभी‌ भावुक‌हृदय को झकझोरती भी है।।
                         

  • सूबेदार पाण्डेय कवि
    आत्मानंद जमसार सिंधोरा वाराणसी 221208 (उ०प्र०)
    मोबाइल वाट्सएप 6387407266

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-संपादक
सुरता: साहित्‍य की धरोहर

आलेख महोत्‍सव: 3.राष्ट्रीय एकता के बाधक तत्व-मनोज श्रीवास्‍तव

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