-आलेख महोत्सव-
आजादी के अमृत महोत्सव के अवसर पर ‘सुरता: साहित्य की धरोहर’, आलेख महोत्सव का आयोजन कर रहा है, जिसके अंतर्गत यहां राष्ट्रप्रेम, राष्ट्रियहित, राष्ट्र की संस्कृति संबंधी 75 आलेख प्रकाशित किए जाएंगे । इस आयोजन के इस कड़ी में प्रस्तुत है-श्री अवधेश कुमार सिन्हा द्वारा लिखित आलेख ”राष्ट्रीय कर्त्तव्य ही राष्ट्रभक्ति है”।
गतांक- आलेख महोत्सव: 6. आत्मनिर्भर भारत-भारत का उज्जवल भविष्य
राष्ट्रीय कर्त्तव्य ही राष्ट्रभक्ति है
-अवधेशकुमार सिन्हा
राष्ट्रीय कर्त्तव्य ही राष्ट्रभक्ति है
राष्ट्र क्या क्या है ?
राष्ट्र शब्द सुनते ही एक भू-खंड का मानचित्र मनुष्य के मन-मस्तिष्क पर छा जाता है. मानचित्र के आकार और स्वरूप को देखकर वह भूखंड को नामित करने लगता है-यह भारतवर्ष है, इसके पश्चिम का भूखंड पाकिस्तान है, इसके उत्तर में हिमालय व नेपाल है, पूरब में बंगला देश, दक्षिण में हिंद महासागर और पश्चिम में अरब सागर है. इस प्रकार मानव-निर्धारित चार दिशायें भारतवर्ष को एक भौगोलिक स्वरूप प्रदान करतीं है । अब प्रश्न उठता है, क्या मात्र सीमायें ही भारत की पहचान हैं ? स्वाभिक उत्तर होगा कदापि नहीं-भारतवर्ष सुविख्यात राजा भरत की भूमि है, उनके उतराधिकारियों की भूमि है, उनके प्रजा जनों की भूमि है. यद्यपि मतैक्य नही है, कुछ विद्वानों के मतानुसार, अन्य देशों से आयी हुई कुछ जातियों के आपसी समागम से हिंदुओं का आविर्भाव हुआ. जिन जातियों का समागम के माध्यम से मिश्रितकरण हुआ वे निम्नांकित हैं :’आग्णेय ,हून, औष्ट्रिक, आर्य,युनानी, यूची, आभीर, शक, निग्रो, मंगोल तथा द्रविड[1]। प्राचीन रीति- रिवाजों, समाजिक परम्पराओं, धार्मिक अनुष्ठानों आदि को आत्मसात कर उपरोक्त जातियां आर्य अथवा हिन्दू बन गयीं। विभिन्न जातियां अपने वाह्य रूप- रंग, वेष, रहन- सहन,नैतिक मुल्यों आदि को वाह्यांतर धारण कर सांस्कृतिक रूप में भी एकरूप हो गयीं । विदेशी एवं मुस्लिम आक्रांताओं का आगमन जारी रहा, फलत: समागम एवं सम्मिश्रण की प्रक्रिया लगभग यथावत रही।
पुण्य-भूमि-भारत
विराट प्रहरी हिमालय द्वारा रक्षित, पोषित एवं पल्लवित भारत वर्ष कालक्रम में आगे बढता रहा. उत्थान-पतन की हर्ष और त्रासदियों को झेलता हुआ, हमारा देश पुन: एक वट वृक्ष में परिणत हो रहा है । भांति-भांति के पशु-पक्षियों, विहगों एवं विहंगों की भूमि है। कलकल करती अपनी धून में गिरती उछलती-मचलती प्राणदायिणि दिव्य व निर्मल जल-धाराओं- अनेक सरिताओं की -भारतवर्ष -जननी है। अघहारिणि, प्राणदायिणि, त्रय-ताप विनाशिनि, अनेक पुण्य- सलिला- मातृ-स्वरूपा : गंगा, यमुना, नर्मदा, सरस्वती, गोदावरी आदि की जननी है, यह वेद -भूमि. अतीत के अनेक प्रबुद्ध ऋषियों- मनीषियों, यतियों, व्रतियों, त्यागियों, तपस्वियों, दानवीरों-बलवीरों की प्रसूता रही है – यह भूमि. सत्यनिष्ठ हरिश्चंद्र, दृढ- प्रतिज्ञ शिवि, दधीचि, नहुष, ययाति, याज्ञवलक्य, अगस्त, वसिष्ठ, विश्वामित्र, अत्रि, मैत्री, अहिल्या, गार्गी,रेनुका, सीता, सावित्री, महर्षि परशुराम, राजा दशरथ, तत्त्व- ज्ञानी अष्टावक्र, प्रभु राम, लक्ष्मण, भगवान श्रीकृष्ण, बलराम, पितामह भीष्म, गुरू द्रोण,युद्धिष्ठिर, अर्जुन, भीम, कर्ण,परीक्षित आदि असंख्य दिव्य पुरूषों एवं देवियों की पुण्य-भूमि है -भारतवर्ष. शस्य-श्यामला भूमि, गर्वीले उतुंग शिखर, रजत सम चमकीले रेतीले परतों की आभा से आभाषित विस्तीर्ण भूखंड, भारत वर्ष की पग-पखारती सागर की उच्छलती- गिरतीं तरंगें तथा हिमाच्छादित शिखर देश की विशिष्टता एवं गौरव के द्योतक हैं .वेद-ऋचाओं सेसुबह-शाम गूंजित,आह्लादित एवं सत्कर्मो के लिये उत्प्रेरित अनोखा राष्ट्र जो साथ सुरभित होता है : मस्जिद की अजानों से तथा गिरजाघर की संगीतमय घंटा-ध्वनि से ।
राष्ट्रीयता –
राष्ट्रीयता , राष्ट्र की भूमि पर जन्म लिये, पोषित, वर्धित, विकसित, मृत्यु- उन्मुख व्यक्तियों की अपनत्व एवं लगाव की कोमल भावनाओं का प्रतीक है. इसी प्रकार यह : उन समस्त आबाल-वृद्ध सर्व वर्गीय -राष्ट्र -निवासियों की राष्ट्र के प्रति प्रेम, कृतज्ञता और समर्पन भावना का द्योतक है. कहा जाता है कि प्रभु राम के मुखारविंद से निकसित राष्ट्र- प्रेम में पगी भावनायें :राष्ट्रीयता की सच्ची भावना को परिभाषित करती हैं : ‘ अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते; जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि चिर गरीयसि[2].’ स्वर्णमंडितलंकापुरी क्या स्वर्ग का राज्य भी मुझे नीरस और क्षुद्र लगता है, जब मैं अपनी जन्मभूमि अयोध्यापुरी को याद करता हूं. अवधपुरी के बारे में, वे अपनी प्रिया सीता से कहते हैं : ‘देखु अवधपुरी अति पावनि; त्रिविध ताप भव रोग नसावनि [3]‘.अवधपुरी अत्यंत ही पवित्र भूमि़ है। यह हरन, दलन एवं वंचन-दलन जैसी त्रय-तामसी दुष्प्रवृतियों से मुक्त है। फलत: दैहिक, दैविक एवं भौतकिता की ज्वर से मुक्त है मेरी जन्म-भूमि । संसारिक दु:ख का यहां लेश-मात्र नहीं है. प्राय: प्रभु राम द्वारा उच्चरित उपरोक्त संस्कृत एवं हिन्दी की पंक्तियों का सतही और भ्रामक विश्लेषण किया जाता है. जिस नगर या क्षेत्र पर तामसी व्यक्ति या राजा का शासन रहता है, वह स्थान भांति- भांति के कष्ट, त्रय -ताप तथा भव रोगों का आगार बन जाता है। कहने का आशय यह है कि अयोध्यानगरी पर महाराज दशरथ जैसे पराक्रमी राजा का शासन था जिसने मानव शरीर में प्रवेश करने वाली दुष्प्रवृतियों के दश मार्ग पर ही विजय प्राप्त कर लिया था। यह सौभाग्य की बात है कि बहुसंख्य भारतीयों के परम आराध्य प्रभु राम रहे हैं। राष्ट्र- कल्याण में शासक का दायित्व क्या होना चाहिये, इसकी ओर इंगित करते हुए तुलसीदास जी भगवान श्री राम के मुखारबिंद से कहवाते हैं कि परम पवित्रता की प्राप्ति – निष्कलुष और कष्ट रहित प्रजा जनों का जीवन ।
राष्ट्र निर्माण में नागरिक की सहभागिता-
इस भावना को ध्यान में रखकर, भारतीय संविधान के निर्माताओं ने रामराज्य की स्थापना को सरकार का दायित्व निर्धारित किया है. साथ में हर भारतीय नागरिक को यह स्पष्ट होना चाहिये कि किसी न किसी रूप में राष्ट्र निर्माण में उसकी भी सहभागिता समाहित हैं. अपनत्व एवं परायापन का बोध हिन्दु / भारतीय संस्कृति के अनुकरणीय तत्त्व नहीं हैं. फलस्वरूप भारतीय संस्कृति के उदात्त आदर्शों कोरेखांकित करता,यह श्लोक भारतीय संसद के प्रमुख द्वार पर अंकित है :
अयम् निज: परो वेति गणना लघुचेतसाम्, उदारचरितानाम् तु वसुधैव कुटुम्बकम्.[4]
हिन्दु-संस्कृति की समष्टि दृष्टि अत्यंत व्यापक है. यह संकीर्णता से परे विश्व परिवार में विश्वास करती है । इसकी पाचन शक्ति असीमित है । किसी भी रूप में इस देश में आये विदेशी मूल और भिन्न नस्लों के व्यक्तियों को भारतीयों ने बड़ी सरलता और सहजता से स्वीकार किया है । फलत: काल क्रम में भारत वर्ष विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों का एक अनुपम केन्द्र बन गया है. सुप्रसिद्ध इतिहासकार श्रीमान् डाडवेल के शब्दों में,”भारतीय संस्कृति महासमुद्र के समान है, जिसमें आआकर अनेक नदियां विलीन होती रही हैं ।[5]
कर्तव्य ही भक्ति और भक्ति ही कर्तव्य है-
विभिन्न धर्मावलंबी एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के भारतीयों के बीच सौहार्द्र और बंधुत्व की भावना को स्थापित करना सभी भारतीय का पवित्र कर्त्तव्य है । ऐसा करना राष्ट्र को शांति एवं विकासोन्मुख करना है। निर्माण एवं विकास के लिये शांति और समृद्धि की आधारशीला का होना अनिवार्य है । धर्म के आधार पर राष्ट्र का विभाजन एक दु:खद त्रासदी है भारतीय इतिहास. शत्रुता, अविश्वास एवं वैमनस्य की जख्में रह- रह कर हरी होती रहती हैं विशेषत: हिंदुओं और मुसलमानों के बीच में. इन जख्मों को स्थायी निदान प्रदान करना हर भारतीय का परम कर्त्तव्य है. राष्ट्र की शांति, समृद्धि एवं विकास के लिये किया गया हर काम राष्ट्रभक्ति नहीं तो और क्या है? भक्ति में पूर्ण समर्पण और त्याग की बहुलता रहती है. कर्त्तव्य में समर्पण एवं त्याग की प्राय: न्यूनता रहती है. विरले पाये जाने वाले कर्म योगियों का कर्त्तव्य ही भक्ति और भक्ति ही कर्त्तव्य है।
राष्ट्रभक्ति-
अंत में भारत-भूमि के प्रखर राष्ट्रभक्त पूज्य स्वामी विवेकानंद जी की दूर-दृष्टि आधारित एवं अनुभव जनित कथनों को उद्धृत करना अपेक्षित है. 11sept. 1893 में शिकागो में आयोजित World’s Parliament of Religions,में अपने सम्मान में आयोजित स्वागत समारोह में हिन्दु धर्म और भारत का पक्ष रखते हुए उन्होंने निम्न तथ्यों का उल्लेख किया है. गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं,” जो कोई भी मेरे समीप जिस भी रूप में आता है, मैं उस व्यक्ति से अवश्य मिलता हूं, जब कि सभी लोग इस बात को लेकर संघर्षशील हैं कि कौन सा मार्ग उन्हें मेरी ओर ले जायेगा.” Lord Krishna says in the Gita, ” Whosoever comes to Me, through whatsoever form, I reach him; all men are struggling through paths which in the end lead to Me.[6]” सच तो यह है कि ईश्वर का साक्षात्कार करने के बदले, मनुष्य ईश्वर तक पहुंचने का मार्ग ढूढ़ने में व्यस्त है। पंथवाद, धर्मांधता और इनके भयानक वंशज धार्मिक असहिष्णुता ने इस सुन्दर दुनिया को बहुत पहले ही अपने अधिकार में कर लिया है । उनलोगों ने धरती को हिंसा का अड्डा बना दिया है. बार-बार इस धरती को मानव रक्त से रंजित किया है, मानवीय सभ्यताओं का विध्वंस कर सभी देशों को नैराश्य नद में डुबो दिया है. मेरी उत्कट इच्छा है कि धर्म-सभा के सम्मान में बजायी गयी प्रत्येक घंटी, धार्मिक असहिष्णुता और सभी प्रकार के दमन-चाहे वे तलवार के बल पर की जा रही हो या कलम के बल पर लोगों को अनुदार विचारों की ओर ले जा रहीं- वे सब आज से हीं बंद होने चाहिये। हिंसा, द्वेष, वैमनष्य, अनुदार विचार, धार्मिक उन्माद, दमन, रक्तपात आदि की परम्परा संसार में शीघ्र बंद होना चाहिये. ११सितम्बर १८९३ मेंअभिव्यक्त स्वामी विवेकानंद जी के -ये सभी विचार आज भी राष्ट्र की सेवा के लिये श्रेयस्कर और अनुकरणीय हैं. राष्ट्र के प्रति कर्त्तव्य और राष्ट्र भक्ति के बीच बहुत ही सुक्ष्म भेद है जिसकी चर्चा पहले की जा चूकी है ।
संदर्भ-
[1] रामधारी सिंह दिनकर. संस्कृति के चार अध्याय. लोकभारती प्रकाशन इलाहाबाद . P.26
[2] बालमिकी. रामायण. गीता प्रेस. गोरखपुर. लंका कांड. P.6-124-17
[3] गोस्वामी तुलसीदास श्रीरामचरितमानस. गीता प्रेस गोरखपुर. लंका कांड. P.396.
[4] माहोपनिषद. अध्याय ४. श्लोक ७१
[5] रामधारी सिंह दिनकर .संस्कृति के चार अध्याय. लोकभारती प्रकाशन. इलाहाबाद. P.85
[6] Download from www.holybooks.com : http://www.holybooks.com/complete -works-of-swami-Vivekanand/
-अवधेश कुमार सिन्हा,
पुणे महाराष्ट्र
आलेख महोत्सव का हिस्सा बनें-
आप भी आजादी के इस अमृत महोत्सव के अवसर आयोजित ‘आलेख महोत्सव’ का हिस्सा बन सकते हैं । इसके लिए आप भी अपनी मौलिक रचना, मौलिक आलेख प्रेषित कर सकते हैं । इसके लिए आप राष्ट्रीय चिंतन के आलेख कम से कम 1000 शब्द में संदर्भ एवं स्रोत सहित rkdevendra@gmail.com पर मेल कर सकते हैं ।
-संपादक
सुरता: साहित्य की धरोहर
अगला अंक-आलेख महोत्सव: 8.राष्ट्र विकास में एक व्यक्ति का योगदान