लघु व्‍यंग्य आलेख: आंखे खोलो -डॉ अर्जुन दूबे

लघु व्‍यंग्‍य आलेख: आंखे खोलो

-डॉ अर्जुन दूबे

लघु व्‍यंग्य आलेख: आंखे खोलो -डॉ अर्जुन दूबे
लघु व्‍यंग्य आलेख: आंखे खोलो -डॉ अर्जुन दूबे

व्यक्तिवाद ,धर्मवाद और राष्ट्रवाद

केवल अपनी ही सोचोगे, परिवार की कोई चिंता नहीं? पहले मेरे कार्य तो देखो! केवल परिवार के हित के लिए कार्य करते हो, कुटुंब, समुदाय और समाज जहां रहते हो ,उसका क्या? परिवारवादी हो तुम । थोडा और अपनी आंखे खोलो ।

तुम तो केवल अपने गांव, क्षेत्र और जनपद की सोचते हो, अन्य की नहीं । अन्य पिछड़े ही रहेगें? अभी भी भी सोये हुए हो, फिर आंखें खोलो ।

तुम तो केवल अपने प्रदेश का ही विकास चाहते हो, और बात करते हो देश का ! प्रदेश भी तो देश में ही है और मेरा अस्तित्व पहले प्रदेश से है । ओह! कैसे होगा समग्र विकास? किसका? देश का? सत्ता मिलने पर देखा जायेगा । यानी कोई रोड मैप नहीं है । रोड मैप तो तुम ही बनाओगे, पहले मेरे क्षेत्र का, फिर जिले का, फिर प्रदेश का और तब देश का, जब मैं आउंगा ।समझे.जी समझा । अच्छा यह बताओ कि तुम्हारा कोई धर्म नहीं है क्या? क्यों नहीं है? धर्म ही तो मेरे प्राणवायु हैं; न धर्म, न मैं और न ही तुम । मैं समझा नहीं । देखो धर्म मेरी मजबूरी है, यह मैं तुमसे कह रहा हूं। तुम किसी से मत कहना । एक बात और बता रहा हूं .क्या? धर्म के सम्मुख राष्ट्र का वजूद नहीं होता है । ऐसा कैसे? कई समान धर्म वाले अलग अलग राष्ट्र के होते भी लड़ते हुए किसी न किसी राष्ट्र को ही हडपना चाहते हैं. यानी धर्म नहीं, पावर चाहिए, वह भी आध्यात्मिक नहीं बल्कि भौतिक । इसका अर्थ यह हुआ कि धर्म राष्ट्र को अधीन करने अथवा शासन करने का माध्यम बन गया है, जिससे राष्ट्र गौण हो गया है ।

देखो, राष्ट्र का स्वरूप और आकार स्थिर नहीं रहता है, छोटा बडा होता रहता है चाहे युद्ध के द्वारा अथवा विभाजन के द्वारा हो । धर्म भी तो कुछ कुछ वैसा ही होता प्रतीत हो रहा है! दीमक के बारे मे सुने हो? हां हां ,जानता हूं यह लकड़ी, दिवाल आदि को चाल कर खोखला कर देता है, वैसे ही धर्म दीमक की तरह है जो राष्ट्र को खोखला करते हुए जर्जर करने में अहर्निश संलग्न रहता है । वह कैसे? दीमक की अनेक प्रजातियां होती हैं, वैसे ही धर्म की, हम किसी से कम नहीं। यानी मतलब यह हुआ कि अधार्मिकता ही दीमक नष्ट करने का एक मात्र उपाय है! देखो, एक दिन में ही चर्चा नहीं समाप्त होगी, धीरज रखो…

सनातन का मर्म

सोचता हूं कि हिंदू अथवा सनातन को धर्म कहूं कि जीवन पद्धति कहूं, स्वतंत्र तरीके से यज्ञ करना कहूं अथवा यज्ञ करवाना कहूं जिसमें न कोई भय का भान हो और न ही विकार हो, न ही इसे स्वीकार करने/कराने की लालसा अथवा अस्वीकार करने/कराने की विवशता अथवा दबाव हो; यदि इसमें नैसर्गिक आकर्षण है तो इसके अनुरूप इसमे सम्मिलित होकर वैसा ही कर सकते हो, आध्यात्म अथवा सत्य को जानने का प्रयास कर सकते हो,सतत् खोज में संलग्न रह सकते हो, जैसी तुम्हारी मर्जी. कितना वर्णन करूं सनातन के बारे में! हां एक बात अवश्य सनातन कहना चाहता है, बौद्धिक रूप में आओ संवाद करो, शंका निवारण करो, करना भी चाहिए, इसी में तो सनातन का सौंदर्य निहित है.बस इसे नुकशान मत पह़चाओ, इसके मार्ग में बाधा मत डालो क्योंकि सनातन न तो बाधा डालने की ओर उन्मुख रहता है और न ही किसी प्रकार के प्रलोभन में विश्वास करता है; प्रलोभनों से डिगता नहीं है यदि कोई सच्चा सनातनी है तो, और न ही सनातन कभी हिंसा की वकालत करता है; हां सनातनी कार्यो को करने में उत्पन्न अवरोधों के निवारण के लिए समर्थवान शासक से रक्षा करने के कर्तव्य बोध अवश्य कराता है ।

जितने ऋषि मुनि हुए है उन्होने शासकों से ही अपील की थी । हां यदि शासक ही उदासीन हो अथवा निर्दयी हो तो कैसे सनातन का अस्तित्व कायम रह पायेगा? रक्षा करना ही धर्म है और सनातन इस आलोक में धर्म की व्याख्या करता है ।सत्य की जय हो,स नातन शास्वत है और शास्वत रहेगा.जय सनातन….

-डॉ अर्जुन दूबे

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