-आलेख महोत्सव-
अपनी माटी की खुशबू : माटी कला में अवसर की सम्भावनायें
आजादी के अमृत महोत्सव के अवसर पर ‘सुरता: साहित्य की धरोहर’, आलेख महोत्सव का आयोजन कर रही है, जिसके अंतर्गत यहां राष्ट्रप्रेम, राष्ट्रियहित, राष्ट्र की संस्कृति संबंधी 75 आलेख प्रकाशित किए जाएंगे । आयोजन के इस कड़ी में प्रस्तुत है-प्रो रवीन्द्र प्रताप सिंह द्वारा लिखित आलेख ”अपनी माटी की खुशबू : माटी कला में अवसर की सम्भावनायें”।
गतांक- यथा प्रजा तथा राजा
अपनी माटी की खुशबू : माटी कला में अवसर की सम्भावनायें
प्रो रवीन्द्र प्रताप सिंह
आज़ादी के अमृत महोत्सव के परिप्रेक्ष्य में अपनी मिटटी, लोक, जलवायु, संस्कृति, साहित्य और कलाओं की भी चर्चा भी समीचीन है। आज इसी दिशा में भारतीय लोक से जुडी माटी कला की चर्चा करना चाहूंगा।
माटी कला भारत की प्राचीन कला है। भारत में माटी कला का इतिहास बहुत पुराना है । इतिहास में सभ्यता के आरम्भ के साथ ही माटी के बने बर्तनों एवं कलाकृतियों की जानकारी मिलती है। अगर हम माटी कला के विस्तार की चर्चा करें तो पाते हैं जीवन के लगभग सभी पड़ावों पर मिटटी के बर्तनों का प्रयोग होता आया है। हमारे जीवन संस्कारों में मिटटी के बने पात्र कहीं न कहीं जरूर अपनी भूमिका निभाते हैं।
दूर दराज़ के क्षेत्रों में झोपडी हो , मकान या बड़े बड़े होटल या अन्य प्रतिष्ठान आपको आसानी से माटी कला के नमूने देखने को मिल जायेंगे। भारत ही नहीं विदेशों में भी माटी कला के विभिन्न उत्पाद प्राचीन काल से बनते बिकते सजते आये हैं।
यदि हम भारत में मोहनजोदड़ो हड़प्पा सभ्यता के समय का वर्णन अपने इतिहास देखें में तो वहां भी मिट्टी के बर्तनों का उल्लेख मिलता है । प्यासे कौवे की कहानी हम सबने पढ़ा है। लोथल में हड़प्पाकालीन खुदाई में जो मिटटी का बर्तन मिला है, उसमे प्यासे कौये की कहानी का चित्रण है । प्यासे कौवे की कहानी हम सबने पढ़ा होगा। अगर हम भारत में महाजनपदकालीन उत्तसरी कृष्ण मार्जित मृद् भांड यानी एनबीपीडब्ल्यू मृदभांड का उल्लेख करें तो देखते हैं की वह ईसा पूर्व पांच सौ से एक सौ वर्ष पहले भी काफी लोकप्रिय रहे हैं । ऐसे मिटटी के बर्तन समृद्धि के प्रतीक थे ।
उत्तर प्रदेश में कौशाम्बी और राजघाट ,मथुरा , हस्तिनापुर काम्पिल्य , अहिच्छत्र , अयोध्या ,श्रावस्ती , कौशाम्बी , वाराणसी , बिहार में वैशाली , राजगीर , पाटलिपुत्र और चंपा , मध्यप्रदेश में उज्जैन , विदिशा आदि स्थानों में खुदाई के दौरान मिटटी के बर्तनों के प्रमाण मिले हैं।
अगर हम देखें तो पाते हैं की स्वाभाविक रूप से बच्चा शैशवकाल से ही मिटटी की बनी विभिन्न आकृतियों खिलौनों की तरफ आकृष्ट होता है। आज जब लोग ग्रामीण संस्कृति से दूर जा रहे हैं ,तब भी विभिन्न उत्पादों में ऑनलाइन और , दुकानों पर मिटटी के गेम मिलते हैं। इस कला से जुड़कर न केवल हम संस्कृति से जुड़ते हैं, बल्कि कम खर्च पर अधिक लाभ अर्जित कर सकते हैं।
अभी माटी कला में ग्लेजिंग यूनिट की भी काफी चर्चा है। तकनीकी के विकास के साथ साथ मिटटी कला से जुड़े नए नए रूप और अवसर सामने आ रहे हैं। ग्लेजिंग वर्क की डिमांड पूरी दुनिया में बढ़ रही है। ग्लेज़िंग वर्क से बने आईटम की मांग तेजी से बढ़ी है। हम इसे मॉल्स और सुपरमार्केट में भी देख सकते हैं। त्योहारी अवसरों पर भारत में परंपरागत रूप से मिट्टी के बर्तनों पर सुंदर कलाकृतियां बनाने का रिवाज रहा है और इसकी भरपूर माँग रही है। इसे और व्यावसायिक आयाम देने के जरूरत है।इलेक्ट्रिकल चाक और अन्य तकनीकी उपकरण के माध्यम से मिटटी के अत्याधुनिक उत्पाद बनाये जा सकते है। माटी कला से जुड़े हुए लोगों को आधुनिक प्रशिक्षण देने की आवश्यकता है ताकि वे अपनी कला को नई ऊंचाई दे सकें।
विभिन्न सरकारी और गैरसरकारी संस्थायें माटी कला में इच्छुक कलाकारों को प्रशिक्षण एवं सहयोग प्रदान कर रहे हैं। जनपद स्टार पर जिला उद्योग केंद्रों या स्थानीय विकास खंड स्टार पर इस से जुडी जानकारियां प्राप्त की जा सकती है।
वैश्वीकरण के दौर में अपनी स्थानीय वस्तुओं और कलाओं को सहेज कर तराश कर वैश्विक ऊंचाई देने की आवश्यकता है। इस से हमें अपनी संस्कृति के साथ लगाव तो होगा ही , हम अपनी मिटटी की खुशबू दुनिया में फैलाएंगे भी। आज़ादी का अमृत महोत्सव कहीं न कहीं हमें ऐसी सोच के लिए भी प्रेरित करता है।
(यह लेख आकशवाणी लखनऊ से दिनांक 28 मई को प्रसारित मेरी एक वार्ता का परिवर्तित एवं सम्पादित रूप है।-रवीन्द्र प्रताप सिंह )
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-संपादक
सुरता: साहित्य की धरोहर
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