यात्रा संस्‍मरण : पत्थरों पर गीत-जीवन के मीत भाग-7

पत्थरों पर गीत-जीवन के मीत

श्रीमती तुलसी देवी तिवारी

गतांक से आगे

भाग-6 अजन्ता एलोरा दर्शन-2

अजन्ता एलोरा दर्शन
अजन्ता एलोरा दर्शन

इस समय तक पुनः जल वर्षण होने लगा था, हमें आगे और गुफाएँ देखने का लोभ संवरण करना पड़ा। पर्यटन विभाग ने 6-7 फीट चौड़ी पक्की सड़क बना रखी है। उस पर से गुजरते हुए हमने सभी गुफाओं को बाहर से देखा। यह सड़क भी घोड़े के नाल जैसे आकृति की है। बीच में उगी भांति-भांति की वनस्पत्तियाँ नवागन्तुकों को प्यार भरी दृष्टि से देख रहीं थीं। हम सभी आगे पीछे उस वर्तुल पथ पर आगे बढ़ रहे थे, जो मोटर स्टेण्ड की ओर जा रहा था, टिकिट लाने के लिए शकुन्तला दीदी अकेली बढ़ी जा रही थीं, आगे-आगे। मानस जी फोटी खींच रहे थे। मैं सभी को मुग्धभाव से देखती आगे बढ़ रही थी। फोटोग्राफरो ने हमे घेर लिया, बाबू जी ! मैडम ! सर ! बस पाँच मिनट में फोटो दे देंगे’’। ‘‘हाँ…ना करते करते उन्होंने हमें तैयार कर ही लिया। कुछ ग्रुपिंग फोटो कुछ अकेली खिंचवाई गई। शीला और ज्योति मैडम एक सामान बेचने वाले से कुछ लेने लगीं, फिर फोटो खींचवाने लगीं। वे बहुत पीछे रह गईं। हम सभी, रास्ते के छोर पर खड़े उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। वहाँ एक बरगद का पेड़ था, जिसकी उम्र तो अभी ज्यादा प्रतीत नहीं होती, परन्तु उसकी जटाएँ धरती छू रही थीं। (बरोह) मैंने शर्मा दीदी के साथ वहाँ एक फोटो खींचवाई, चन्द्रा दीदी पहले ही पहुँचकर यहाँ टहल रहीं थीं उन्होंने सलवार सूट पर मोतियों की माला पहन रखी थी, जिससे उनकी उम्र कम प्रतीत हो रही थी।

लोग कूढ़ रहे थे। ‘‘ये लोग क्या करने लगी’’ ? ‘‘एलोरा पहुँचना मुश्किल है इस प्रकार तो।’’ इसी प्रकार की बातें हो रही थीं। पानी इस समय बन्द था, लेकिन घटायें सिर पर ही मंडरा रहीं थीं।

उन सभी के आने पर बस से हम लोग वहाँ आये जहाँ हमारी गाड़ियाँ खड़ी थीं। वहाँ एक होटल के बाहर टेबल कुर्सियाँ लगी देखकर हम सभी ने चाय नाश्ते का लुत्फ उठाया। वहीं कुछ उपहार सामग्री की दुकानें थीं, कुछ लोग वहाँ जाकर मोल-तोल करने लगे। देखा मैंने भी परन्तु कोई नई वस्तु दिखाई न दी, इस कारण कुछ नहीं खरीदा। भजिया ठण्डी थी अतः काॅफी पीकर मैं तैयार हो गई। फिर पानी गिरने लगा। पहले वाले उपाय से ही मैंने अपनी महत्वपूर्ण वस्तुओं की रक्षा की। इस समय तक लगभग तीन बज चुका था। हमें 220 कि.मी. की लंबी यात्रा मात्र अढ़ाई घंटे में करनी थी, पाँच बजे गुफाएँ खाली कराकर द्वार बंद कर दिया जाता है। हमारी बैठक व्यवस्था पहले जैसी ही थी, मैं छोटी गाड़ी में पहले ही वाले स्थान पर बैठी थी। गाड़ी के चलते ही मैंने एक सुकून भरी साँस ली। आँखें बन्द कर कार की अगली सीट के पीठ्ठे से अपना सिर टेक लिया।

न्द आँखों के सामने हाथ में छेनी, हथौड़ी, पलाश लिए वे कला साधक प्रकट हो गये जिन्होंने लगातार चार सौ वर्षों तक पर्वत को काट-काटकर गुफाओं के रूप में इतना सुन्दर और सुरक्षित आवास निर्मित किया था। इनका निर्माण वाकाटक राजाओं ने करवाया। इन गुफाओं की विशेषता यह है कि यहाँ मात्र गौतम बुद्ध से संबंधित मूर्तियाँ, चित्र इत्यादि बने हैं। ऐसे पक्के रंगों का उपयोग किया गया है कि चित्र आज भी टटके दिखाई देते हैं। दीवारों को बराबर करने के लिए गोबर, मिट्टी, चूने और धान के भूसे का प्रयोग किया गया है। इसके पश्चात् इन पर लाल रंग लगाकर भावों के अनुसार रंग-बिरंगी आकृतियाँ उकेरी गईं हैं।

यह वही समय था जब पूरा देश क्या पड़ोसी देश भी बौद्धधर्म के जबदस्त प्रभाव में थे। बड़े-बड़े राजा राज्य त्यागकर भिक्षुक बन गये थे। बड़ी संख्या में युवक-युवतियाँ भिक्षुक-भिक्षुणियों के रूप में अपना गृह त्यागकर भटक रहे थे। मनुष्य गृहस्थ हो या सन्यासी, उसे रहने के लिए स्थान की आवश्यकता तो होती ही है। चूंकि बड़े-बड़े राज्यों के राजकुमार भिक्षुक बने हुए थे, इसलिए उन सबके प्रति शासन की सहानुभूति और श्रद्धा थी। उनके लिए बड़े-बड़े चैत्य (स्तूप) और बिहार के रूप में रहने ध्यान आदि के स्थान निर्मित किये गये। अजन्ता का सुरम्य एकान्तिक प्रदेश सर्वाधिक उपयुक्त लगा होगा। निश्चय ही एक समय ऐसा होगा जब यहाँ संसार के कोलाहल से दूर बौद्ध भिक्षु साधना रत होंगे। जब इनका निर्माण हुआ तब तक बौद्धधर्म की दो शाखायें हो चुकी थीं (1) हीनयान, और (2) महायान। हीनयान वाले मूर्ति पूजा के विरोधी थे, और महायान मूर्ति पूजा के पक्षधर, इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी कि, जिन गौतम बुद्ध ने हिन्दुओं की मूर्ति पूजा के खिलाफ बौद्धधर्म की ध्वजा फहराई, उनके शिष्य उन्हीं की मूर्ति बनाकर पूजने लगे।

अजन्ता की गुफाओं में दोनों पंथ के लोग निवास करते हुए अपने अपने विश्वास के अनुसार साधना करते रहे होंगे, ऐसा शिलालेखों, मूर्तियों एवं चित्रों से जान पड़ता है। जिस अतिवाद के विरूद्ध बौद्धधर्म खड़ा हुआ था, कालान्तर में उसी अतिवाद का शिकार हो गया। देश के अधिकंाश युवक-युवतियाँ भिक्षु-भिक्षुणी बनने लगे। काम करने वाले हाथ भिक्षा के लिए फैलने का परिणाम यह हुआ कि जीवनोपयोगी उपार्जन प्रभावित होने लगे, अहिंसा के सिद्धान्त के कारण राजे महाराजे युद्ध से विरत होने लगे। परिणामस्वरूप लम्बे समय तक देश को विदेशी आक्रमण झेलने पड़े। देश का मान-सम्मान विदेशी लूट ले गये। यह श्रृंखला तब तक चली जब तक अंग्रेजों की गुलामी से सन् 1947 में देश स्वतंत्र न हो गया। इस परिस्थिति की प्रतिक्रिया स्वरूप, आदि शंकराचार्य ने पूरे देश का भ्रमण कर बौद्धों को शास्त्रार्थ से पराजित किया, पुनः वैदिक धर्म की ध्वजा फहराई। देश के चारों कोनों पर चार धाम स्थापित किये, उत्तर में बद्रीनाथ, दक्षिण में रामेश्वरम्, पूर्व में जगन्नाथपुरी और पश्चिम में सोमनाथ। इन धामों का दर्शन प्रत्येक हिन्दू के लिए अनिवार्य कत्र्तव्य घोषित किया। आगे चलकर तुलसीदास, सूरदास, नानक, कबीर आदि ने हिन्दूधर्म की बुराईयों का परिहार करके जनता का मार्गदर्शन किया। निश्चय ही शनैः-शनैः बौद्धधर्म का पतन हुआ और ये सदा धम्मम शरणम् गच्छामि से गुंजित गुफाएँ जनशून्य हो गई। सैकड़ों वर्षों तक गुमनामी के अंधेरे में खोई इन गुफाओं पर मद्रास के अंग्रेज सैनिकों की नज़र उन्नीसवी सदी के अंतिम सालों में शिकार खेलने जाते समय पड़ी। तभी से संसार ने इस आश्चर्य के बारे में जाना। यहाँ देश-विदेश से लाखों पर्यटक इन गुफाओं के शिल्प के साथ प्रकृति की सुषमा के दर्शन करने भी आते हैं। चित्रों की एक-एक भाव भंगिमा मेरे स्मृति पटल पर प्रकट होने लगी। समय की कमी एवं मौसमी व्यवधान ने मन को वहाँ समाधि के स्तर तक स्थिर नहीं होने दिया था, अब सब कुछ मेरी अनुभूति में गहरे उतरता जा रहा था।

अजन्ता-एलोरा-इस नाम का प्रयोग हमेशा जोड़ी में किया था मैंने, मेरे विचारों में दोनों एक दूसरे के निकट थे। गाड़ी जैसे ही किसी बड़े नगर द्वार के सामने से गुजरती मुझे लगता यही है एलोरा।

परन्तु कार साँय से आगे बढ़ जाती। घिरती शाम मन में, आशंकाओं के मेघ संघनित कर रही थी। ‘‘कहीं ऐसा न हो कि हम इतना परिश्रम करके जायें और वहाँ घुसने न पायें। सभी कह रहे थे – ‘‘यदि हममें से कुछ लोगों ने फोटोग्राफी या खरीददारी में समय व्यर्थ न गंवाया होता तो अभी तक हम एलोरा में होते।

बहरहाल ! जब हम एलोरा के विश्व विख्यात सांस्कृतिक केन्द्र पहुँचे, तब तक साढ़े पाँच बज चुके थे। राहत की बात यह हुई कि हमें पता चला गुफाएँ छः बजे तक खुली रहती हैं।

इधर-उधर ध्यान से देखते हुए हम लोग गुफाओं के पास पहुँचे, वहाँ के रक्षकों ने हमें गुफा नं. 16 देख लेने की राय दी। हम लोग यथाशक्ति तेज चलते वहाँ प्रविष्ट हुए। अहा ! क्या कारीगरी है ! इस गुफा का नाम कैलाश है – एक अलग पहाड़ है, जिसे अन्दर-अन्दर काटकर अनुपम मूर्तियों और चित्रों का निर्माण किया गया है। भव्यता, पवित्रता और चित्रकला का अप्रतिम संगम दृष्टिगोचर हुआ। इसका निर्माण भी शिखर से प्रारंभ होकर नींव पर समाप्त हुआ है। यह शिल्पकार की कल्पना की चरम सीमा है। देखते ही मन ने कहा – आह ! सफल हो गई यह यात्रा। कहीं भी किसी प्रकार का व्यतिक्रम नहीं, सब कुछ सही नाप के अनुसार समानुपातिक शिल्प का हर अंग बस आश्चर्य में डाल देने वाला। ज्ञात हुआ कि इसवी सन् 758 में राजा ने कैलाश मंदिर का निर्माण कराया, इसको बनाने में 150 वर्ष का समय लग गया।

इसमें सामने की दीवारों पर बहुत सारे चित्र बने हुए हैं। आगे शंखनिधि और पद्म निधि जो कुबेर के सेवक नजर आते हैं, चित्रित हैं। कुछ कलाकृतियाँ काल क्रम के प्रभाव से क्षतिग्रस्त हो गईं हैं। प्रांगण में एक बहुत ऊँचा ध्वजा स्तम्भ है। यह स्लेटी रंग का नजर आता है। दाहिनी ओर गणेशजी की मूर्ति विराजित है और सामने ही महिषासुर मर्दिनी हैं। आगे दीवार पर गज लक्ष्मी हैं। ये कमल पुष्प विराज रहीं हैं। गज जल से भरे कलश को सूंड़ में उठाकर गज लक्ष्मी का जलाभिषेक कर रहा है। उत्तर की ओर तीन नदियों का संगम दिखाई देता है। गंगा, यमुना, सरस्वती। गंगा अपने वाहन मगर पर, यमुना अपने वाहन कछुए पर खड़ी हैं। सरस्वती अपने वाहन हाथी के साथ हाथ में कमल पुष्प लिए हुए हैं। संभवतः यह चित्र यह समझाने के लिए है कि पहले स्नान फिर दर्शन होना चाहिए। ध्वज स्तम्भ के पास भी दो विशालकाय गज शिल्प हैं। चहुँ ओर अनुपम कलाकारी। प्रशंसा हेतु शब्द नहीं मिल रहे थे। हम सीढ़ियों द्वारा दूसरी मंजिल पर चढ़ गये। यह कैलाश मंदिर का उपविभाग है, इसे लंकेश्वर कहा जाता है। यहाँ का निर्दोष शिल्प देखने से अधिक समझने के योग्य है। दीवारें एक एक इंच मूर्तियों से भरी हुई हैं। हम लोग उस विशाल खुले कक्ष (बरामदे जैसा) में एक ओर से दूसरी ओर मूर्तियों के दर्शन करते हुए आगे बढ़ रहे थे। सूर्य, चन्द्र, महाभारत से किरातर्जुनीय भाग खुदा है। नीचे योगेश्वर, श्रीकृष्ण के जन्म एवं बाल-लीलाओं के दर्शन होते हैं। यहाँ की मूर्तियाँ छेनी हथौड़ी जैसे औजारों से बनाई गईं हैं।

बाईं ओर रावण का फूलों के बदले शीश चढ़ाना, शिव-पार्वती सर्पधारी शिव, शिव-पार्वती वार्ता, कुबेर, कैलाश हिलाता रावण, धनुष बाण, पासा खेलते शिव-पार्वती, पूजा करते राम-लक्षमण, मार्कण्डेयानुग्रह की मूर्तियाँ उकेरी गई हैं।

पश्चिमी दीवार पर, शिव-पार्वती विवाह, अंधकासुर वध, त्रिपुरासुर वध, शिव-पार्वती, लकुलेश शिव, लिंगोद्य, गंगाधर शिव, हरिहर, विष्णु, शिव, ब्रम्हा, शिव, भिक्षाटन करते शिव, शिव नृत्य, शिव पार्वती, शिव आदि की मूर्तियाँ निर्मित हैं।

उत्तराभिमुख शिल्प – अर्द्धनारीश्वर शिव, रावण का शिवलिंग उठाने का प्रयास, नृसिंह अवतार, शेषशायी नारायण, गोवर्धनधारी कृष्ण, वामन अवतार, गरूड़ारूढ़ विष्णु, वाराह अवतार, कालिया मर्दन, शंख, चक्र, गदा, पद्म धारी विष्णु, अन्नपूर्णा आदि हैं। सीढ़ियों से उतरते हुए हमने देखा, यहाँ रावण कैलाश उठाने की चेष्टा कर रहा है। रावण अपनी शक्ति के दंभ में चूर वीरासन में बैठा है, कैलाश पर्वत को उसने उठाने में सफलता प्राप्त की है। पार्वती जी भयभीत सी शिव की शरण में हैं। सेविकाएँ जान लेकर भाग रही है। शिवगण निश्चिन्त घूम रहे हैं, भोलेनाथ पर पूर्ण विश्वास है उन्हें, बन्दर डरकर पेड़ पर चढ़ रहा है। गिरते पहाड़ को लटकर देख रहा है। यहाँ की कारीगरी शत प्रतिशत सजीव प्रतीत होती है। सम्पूर्ण वातावरण की रचना करने में कलाकार सफल रहे हैं।

मुख्य मंदिर की दीवार पर सीता हरण का प्रसंग उकेरा गया है। सीता को रथ में जबरदस्ती बैठाकर रावण आकाश मार्ग से जा रहा है। जटायू उसे रोकने का असफल प्रयत्न कर रहा है। आगे रामायण के ढ़ेरों प्रसंग, मूर्तियों के माध्यम से जीवन्त किये गये हैं।

सामने दो विकट प्रसंग तराशे गये हैं, गजासुर का वध करते शिव और महायोगी शिव मूर्तियाँ मनोभावों का वर्णन बड़ी सुन्दरता से करतीं हैं। यहाँ हमने एक विशाल सभा मंडप भी देखा जिसे रंग महल कहा जाता है। इसमें मूर्तियों से सजे 16 खम्भे हैं। छत पर शिव नृत्य की आकर्षक मूर्ति है। गर्भ गृह में विशाल शिवलिंग है। गर्भ गृह की प्रदक्षिणा मार्ग पर पाँच छोटे-छोटे मंदिर हैं। जगह जगह यक्ष, किन्नर, गंधर्व, अप्सरायें खोदी गईं हैं। आगे नंदी गृह भी है। हम लोग इस प्रकार शिल्प दर्शन कर रहे थे जैसे जन्म का भूखा सुस्वादु व्यंजन पाकर दोनों हाथों से खा रहा हो।

अब तक छः बज चुके थे, इस समय हमारे सिवा वहाँ कोई नहीं था।
‘‘चलिए बाहर! अंधेरा होने के बाद यहाँ रहना वर्जित है।’’ रक्षक हाँक लगा रहे थे। हम लोग बहुत खा चुके लेकिन फिर भी अतृप्त रहने वालों की तरह सड़क पर आ गये। पहले की तरह ही बैठना हुआ सबका।

शेष अगले भाग में

Loading

One thought on “यात्रा संस्‍मरण : पत्थरों पर गीत-जीवन के मीत भाग-7

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *