पत्थरों पर गीत-जीवन के मीत
श्रीमती तुलसी देवी तिवारी
भाग-4 अजन्ता एलोरा जाने की योजना
आज का दिन (दिनांक 19-7-2014, शनिवार) हमारे लिए कल की अपेक्षा सहज गति से गतिमान होने वाला था। कुछ का विचार था कि कार्यक्रम से कल्टी मारकर आज अजन्ता एलोरा घूमा जाय। परन्तु हमारे दल के अग्रणी श्री कृष्ण कुमार भट्ट, पथिक जी ने कहा – ‘‘इतनी व्यवस्था करके किसी ने हमें बुलाया है हम कार्यक्रम छोड़कर कैसे जा सकते हैं ? उस दिन वे प्रतिवेदक थे। पहले सत्र में उनका प्रस्तुतिकरण था। राजेश मानस जी एवं स्वराज तिवारी जी को गतरात्रि ज्वर हो आया था, भट्ट जी भी निराहार रहकर स्वयं को स्वस्थ कर रहे थे। मुझे उनकी बात उचित प्रतीत हुई।
‘‘ठीक है आज हम लोग एसेम्बली न जाकर नाश्ते के बाद बाजार चलेंगे, यहाँ की पाटनी साड़ियाँ बड़ी प्रसिद्ध हैं। बच्चों के लिए गिफ्ट भी लेना है। शीला मैडम ने कहा। ज्योति मैडम की भी यही राय थी, मैं दुविधा में थी, लेक्चर सुनने की आकांक्षा स्वाभाविक थी। दीर्घविचार मन से उपजी ऊब मुझे बाजार जाने को उकसा रही थी, साथ ही घर परिवार के लिए कुछ जम तो अच्छा ही था। हम तीनों आराम से तैयार होकर नीचे भोजन कक्ष में पहुँचीं। बहुत से लोग आज ही वापस जा रहे थे। कुछ लोग घूमने निकल गये थे।
हमारे सभी साथी जलपान करते मिल गये। भट्ट जी, राजेश मानस, उग्रसेन कन्नौजे, राकेश मानस, हरिराम निर्मलकर जी, स्वराज तिवारी, चन्द्रशेखर सिंह आदि, श्रीमती शकुन्तला शर्मा एक सेवानिवृत्त शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं। लंबे कद की तन्वी काया गौरवर्ण, करीने से कटे छोटे बालों वाली शकुन्तला स्वभाव से सरल महिला हैं। चन्द पलों में ही गहरा बहनापा हो गया उनसे। हमने अधिकांश बातें छत्तीसगढ़ी भाषा में की। उनके निकट रहकर मुझे खुशी अनुभव हो रही थी, अनर्गल प्रलाप करने वालों से उन्हें खुन्नस रहती थी। एक नया सा नाम दिया उन्हें ‘‘मूंड़पाचन’’ जिसे सुनकर मैं दिल खोलकर हँसने लगी थी।
नाश्ते के पश्चात् शीला शर्मा और ज्योति के साथ मैं बाजार चली गई। हाॅस्टल में रहने वाली एक प्यारी सी लड़की से हमारी दोस्ती हो गई थी, उसका नाम पूनम और उसकी सहेली का नाम कविता था, वे दोनों हमारे साथ चलीं मार्गदर्शक बनकर।अमलनेर की सड़कों का बखान मैंने पूर्व में कर दिया है। बाजार नक्की दुकानों वाला कस्वाई ढंग का था। वे एक अपेक्षाकृत बड़ी दुकान में हमें ले गई। विक्रेता युवक अपने कार्य में दक्ष था। कपड़े की तरह-तरह की साड़ियों के ढ़ेर लगाता गया। बहुत देखभाल कर दोनों ने दो-दो साड़ियाँ खरीदीं, मुझसे भी बड़ा आग्रह किया गया, परन्तु मैं उस समय साड़ी पसंद करने के मनोभाव में नहीं थी। वहाँ के वातावरण, वहाँ के मनुष्य उनकी आम आदतें, बाजार की स्थिति और विस्तार इत्यादि का अवलोकन कर रही थी। पूनम और कविता के बार-बार अग्राह पर मैंने उनसे कह दिया कि मेरे लिए तुम्हें जो पसंद आये उसे ले लो उन्हें ज्ञात था कि इस वर्ष 5 सितम्बर को मुझे राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त होने वाला है, इसलिए भी वे मेरे लिए समारोह के अनुकूल साड़ियाँ लेने की इच्छुक थीं। एक हरे रंग की साड़ी पसंद भी आई तो, बीच से कटी निकल गई। अंत में बुन्दकी वाली, एकदम हल्के गुलाबी रंग की साड़ी 300 रूपये में खरीद ली, बच्चियों का मन रखने के लिए।
वे हमें अन्य दुकानों पर भी ले गईं, शीला, ज्योति को अपने बच्चों के कपड़े लेने थे, मैं और कुछ न ले सकी। मुझे ज्वर चढ़ रहा था। कपड़े सारे बिलासपुर जैसे ही थे, फिर अपना बैग स्वयं ढ़ोना था, इसलिए भी मैं खरीददारी से निर्लिप्त ही रही, बल्कि मेडिकल स्टोर की तलाश में मेरी निगाहें इधर-उधर भटकती रहीं।
हमें विलम्ब हो गया था, हमने पूनम और कविता को बलात् आइसक्रीम खिलाई और आॅटो में बैठकर प्रताप महाविद्यालय आ गये। आज दोपहर तक का भोजन हमारा काॅलेज की ओर से था, इसके बाद अपनी व्यवस्था स्वयं करनी थी। हमारी वापसी, 21 तारीख प्रातः 9 बजे थी, कल हम अजंता एलोरा जाने वाले थे। मुझे आशंका थी कि कहीं कैटरिंग वाले अपना सामान लादकर चले न गये हों।
ऐसा तो नहीं हुआ परन्तु मेटाडोर में उनका कुछ सामान लद गया था। हम झपटकर हाॅल में गये। यह देखकर संतोष हुआ कि कुछ और लोग भी खा रहे थे। हमारे समक्ष बेसन के लड्डू, दाल और मक्के के आटे का बना ‘टोस’ जैसा कुरकुरा व्यंजन परोसा गया। कुछ देर प्रतीक्षा करने पर जब कुछ और नहीं आया तब हमने आवाज देकर परसने वालों को बुलाया। ‘‘कुछ और दो न भाई ! यही खायेंगे क्या’’ ?
‘‘खाना खतम हो गया, अभी तीन बज रहा है, आप लोग एइसा, कइसा करता, काल भी एतना देरी से आया’’, वे बड़बड़ाने लगे।
‘‘अरे भाई ! हमारा खाना आपने बनाया तो होगा ही न ?’’ दे, दीजिए, ठंडे गरम की हम शिकायत नहीं करेंगे। शीला शर्मा ने कहा।
‘‘यहाँ कितने लोग खा के गिया कुछ गिनती नईं है। बस जो है खाओं उसे ही।’’ उसने दो दो लड्ड और डाल दिये ला कर।
‘‘अभी तो तवा चढ़ा ही है भई बस दो-दो रोटी दे दो हमें।’’ मैंने निवेदन किया।
‘‘नहीं मैडम अबी कुछ नही बना सकता’’ !
क्या करते मक्के का टोस दाल में भिगा-भिगाकर थोड़ा-थोड़ा खाये। उससे कुछ और लड्डू माँग लिए, (बहुत बचा था उसके पास) पानी पीकर, असेम्बली में आकर बैठे। वहाँ समापन सत्र प्रारम्भ हो चुका था। भट्ट जी प्रतिवेदक बनकर मंच पर विराज रहे थे। मुख्य अतिथि एवं अध्यक्ष मंच की शोभा बढ़ा रहे थे।
विचार मंथन से प्राप्त सार संक्षेप नवनीत, प्राप्त होने वाला था। कार्यक्रम का एक सत्र छूट जाने की ग्लानि लिए मैं पूर्ण सावधानी से सुन रही थी। कार्यक्रम के प्रस्तावक द्वारिका प्रसाद अग्रवाल (विकलांग चेतनापरिषद् के राष्ट्रीय महामंत्री छ.ग.) थे, उन्होंने कार्यक्रम का निचोड़ प्रस्ताव के रूप में प्रस्तुत किया। इनके अनुसार संसार में पाँच मिलियन और देश की आबादी का दस प्रतिशत शारीरिक, मानसिक एवं संवेदनात्मक स्तर पर विकलांगता से ग्रस्त हैं, प्राकृतिक प्रकोप, युद्ध, बीमारियाँ, दुर्घटनाएँ, जन्मजात कारण पर्यावरण प्रदूषण, कुपोषण, सामाजिक रूढ़ियाँ, बढ़ता हुआ सामाजिक, आर्थिक तनाव आदि आदि विकलांगता के कारण हैं।
इनके ऊपर दया करने से अच्छा है कि इनको उचित शिक्षण, प्रशिक्षण, जीविकोपयोगिता कौशल में दक्षता प्रदान की जाय, क्योंकि विकलांग यदि यथास्थिति में बना रहता है तो उसकी देखभाल के लिए एक व्यक्ति हमेशा उसके साथ रहना आवश्यक हो जाता है। इसप्रकार राष्ट्रीय उत्पादन की दोहरी क्षति होती। इससे तो बहुत है उसके पुर्नवास की व्यवस्था, आपरेशन शिक्षा, उपकरण का प्रयोग सिखाना, आदि में उनकी सहायता करें। योग एवं प्राकृतिक चिकित्सा, प्रतिभा उन्नयन के कार्यक्रम, उनकी प्रतिभा को सम्मान देना, उनका परिवार बसाना आदि-आदि हो सकते हैं। परिषद् के द्वारा निःशुल्क विकलांग शिविर का आयोजन किया जा चुका है। समाजसेवी उनका भौतिक पुर्नवास करेंगे। साहित्यकार उनका मानसिक पुर्नवास करेंगे, इसी उद्ेश्य की प्राप्ति के लिए यह अन्र्तराष्ट्रीय विकलांग विमर्श कार्यक्रम आयोजित किया गया। परिषद् द्वारा किये गये कार्य एवं उसके आगामी कार्यक्रम पर विस्तृत प्रकाश डाला। प्रख्यात भाषाविद् डाॅ. विनय कुमार पाठक ने विकलांग चेतना परिषद् के समस्त कार्यक्रमों का परिचय दिया, जिसमें डाॅ. अग्रवाल की भूमिका की सराहना की गई। विशिष्ट अतिथि अन्र्तराष्ट्रीय व्यंगकार डाॅ. शंकर पुणताम्बेकर एवं डाॅ. सुरेखा ठक्कर (कुलपति सी. व्ही. रमन वि.वि. कोटा बिलासपुर) रहीं। अध्यक्षता प्राचार्य, डाॅ. एन. एन पाटिल अमलनेर ने किया। आभार प्रदर्शन डाॅ. सुरेश माहेश्वरी ने किया। कार्यक्रम में यथायोग्य, यथासंभव महत् जन को सम्मानित किया जाता रहा।
कार्यक्रम समाप्त होते-होते 7 बज गये, पानी बरस रहा था, कुछ लोग रात रुकने वाले थे, जिनमें बिलासपुर, भिलाई, दुर्ग के लगभग ग्यारह लोग रह गये थे।
अब हम लोग अजन्ता एलोरा जाने की योजना बनाने लगे, एक गाड़ी की गई जिसमें नौ लोग जा सकते थे, किन्तु शीला शर्मा एवं ज्येाति भरणे को लेकर ग्यारह हो रहे थे, बड़ा मंथन चला, ग्यारह बैठ नहीं सकते थे, एक गाड़ी और लेने पर खर्चे में बढ़ोत्तरी होना स्वाभाविक था, वे दोनों बार-बार आग्रह कर रही थीं कि हम भी आपके साथ ही चलेंगे, हमने पहले से तिवारी मैडम को चेता दिया था। हमारे कुछ पुरूष भाईयों ने उन्हें छोड़ देने की अथवा दो के लिए अलग गाड़ी कर लेने की राय दी। जिस पर उन्होने निवेदन किया कि वे भी साधारण आय वर्ग से हैं, उन्हें साथ चलने की सुविधा दी जाये ताकि खर्च कम रहे। उनका टिकिट मनमाड़ से था। हमें लौटकर अमलनेर आना था। अंत में भट्ट जी ने उदारता का परिचय देते हुए एक बड़ी और एक छोटी गाड़ी का प्रबंध किया।
हम अपने भोजन की चिन्ता में थे बालिकाओं के मेस में जुगाड़ जमा रहे थे कि माहेश्वरी जी का संदेश मिला कि हम मराठा मेस में भोजन कर लें। पेमेन्ट वे ही करेंगे। रात्रि में हमने मराठा मेंस में रोटी, सब्जी खाई, हमारे साथ कोरबा की चन्द्रावती नागेश्वर भी थीं।