पत्थरों पर गीत-जीवन के मीत
श्रीमती तुलसी देवी तिवारी
भाग-1 अमलनेर की यात्रा
श्री सीताराम अग्रवाल जी की प्रेरणा से पाँच अगस्त सन् 2000 में बिलासपुर छ.ग. में स्थापित ‘भारतीय विकलांग चेतना परिषद्’ के अन्र्तराष्ट्रीय कार्यक्रम में भाग लेने अमलनेर जाने का अवसर मिला। प्रताप महाविद्यालय जो खान देश शिक्षण मंडल अमलनेर द्वारा संचालित, मुुंबई-पुणे के साथ उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय जलगाँव की शाखा है, इसके हिन्दी विभाग के स्वनामधन्य प्राध्यापक श्री सुरेश माहेश्वरी जी का शुभ आगमन हमारे बिलासपुर में 29 सितम्बर सन् 2013 मेें आयोजित हुए अखिल भारतीय विकलांग चेतना परिषद् के कार्यक्रम में हुआ था इस कार्यक्रम में लोकोक्तियों में विकलांग विमर्श पुस्तक का विमोचन भी हुआ। था। वस्तुतः यह नया विमर्श यही जन्मा, पला, बढ़ा और अब इसकी शाखायें देश के बाइस प्रदेशों और 3 केन्द्र शासित प्रदेशों में फल-फूल रही हैं। इस परिषद् ने निःशक्त जनों के लिए 21 सूत्रीय कार्यक्रम बनाया है इस विमर्श को साहित्य का विषय बनाने के उद्देश्य से 10 पुस्तकें भी प्रकाशित की हैं।
डाॅ. डी. पी. अग्रवाल, श्री मदन मोहन अग्रवाल, श्री वीरेन्द्र पाण्डे एवं पूरे देश भर में जाने-माने जाने वाले साहित्य मर्मज्ञ, भाषाविद्, डाॅ. विनय कुमार पाठक आदि इस परिषद् के ऊर्जावान् कार्यकर्ता हैं।
बिलासपुर में कार्यक्रम की भव्यता और उपादेयता देखकर श्री माहेश्वरी ने अगला कार्यक्रम अमलनेर में करने का आमंत्रण दिया था। जिसे परिषद् के कार्यकर्ताओं की सहमति से श्री पाठक जी ने स्वीकार कर लिया था। एक छोटे-मोटे अचिन्हित कार्यकर्ता के रूप में मेरा भी इस परिषद् से जुड़ाव रहा है। सो श्री कृष्ण कुमार भट्ट पथिक जी, जो साहित्य के न केवल अनन्य साधक हैं बल्कि साहित्यकारों के सर्जक, सम्वर्धक भी हैं, उनके प्रेरणा एवं प्रोत्साहन से मैंने शोध ग्रन्थ हेतु आलेख एवं रजिस्ट्रेशन की राशि भी भेज दी, किन्तु जाने का कोई निश्चय नहीं था, उसमें कतिपय कारण थे, एक तो मुझे एक सप्ताह का अवकाश लेना पड़ता, दूसरे ऐसे कार्यक्रमों से विकलांगों को होने वाले लाभों से मैं संतुष्ट नहीं थी।
जाने के पक्ष में भी तर्क थे, उनमें पहला था विश्व प्रसिद्ध अजंता एलोरा की गुफाओं के दर्शन विभिन्न विद्वानों से मेल जोल आदि।
कार्यक्रम दिनांक 17-7-14 से 19-7-14 तक था, हमने 20 जुलाई का दिन व्यक्तिगत भ्रमण के लिए सुरक्षित रखा था।
मैंने बड़ी मुश्किल से सारी परिस्थितियाँ अपनी यात्रा के पक्ष में बनाई, जाना लगभग तय ही था कि घर में मेहमान आ गये। मेरा प्रिय मयंक (पोता) जिसने इलहाबाद एग्रीकल्चर महाविद्यालय से एम. सी. ए. किया, मानसिक व्याधि से पीड़ित हो गया था। जिसकी चिकित्सा की नैतिक जिम्मेदारी मेरी बनती थी। घर का माहौल अवशाद से भरा हुआ था। अपोलो के इलाज से सुधार होता न देख उसे सेन्द्री राजकीय मानसिक चिकित्सालय में भरती करना पड़ा। उसकी बेचैनी मुझे उद्वेलती करती रही थी, भावना और कत्र्तव्य मेरे मन में द्वन्द्व युद्ध कर रहे थे। अस्पताल से छुट्टी कराने की उसकी प्रार्थना, उसका अपने प्रति खंडित होता विश्वास मुझे अंदर से तोड़ डा रहा था। मैंने कत्र्तव्य को वरीयता दी और भट्ट जी से कह किदया कि मेरा जाना लगभग असंभव है। वैसे मेरा मन जाने को तैयार था मैंनें अपना बैग आठ दिन पहले ही तैयार कर लिया था।
16 तारीख की सुबह 10 बजे मेरा जाना तय हुआ, डाॅक्टर ने मयंक को घर जाने की सहमति दे दी। शाम की बस से उसका गाँव जाना तय हो गया। तब मैंने भट्ट जी को बताया कि मैं आ रही हूँ। आसमान पर घिरे बादलों को देखकर मैंने आूटो से स्टेशन जाने का फैसला किया। स्टेशन पर भट्ट जी के साथ अपने यहाँ के साहित्यकार बन्धु श्री राजेश कुमार मानस मुंगेली के, हरिाम निर्मलकर, स्वराज तिवारी, चन्द्र शेखर सिंह, उग्रसेन कन्नौजे प्रदीप आदि मिल गये, हम लोग हावड़ा-अहमदाबाद सुपर फास्ट से अमलनेर, जिला-जलगाँव जाने वाले थे। मेरी बर्थ नीचे वाली थी अतः यात्रियों को जगह देने के अतिरिक्त कोई असुविधा नहीं थी। गाड़ी ने दिन के 11.30 बजे बिलासपुर प्लेटाफार्म छोड़ा। मैंने आराम की एक लंबी साँस ली। घर में चल रही परेशानियों को भूलने की कोशिश की।
रायपुर, दुर्ग, डोगरगढ़, नागपुर आदि पार करते, हम लोग 17-7-14 के ब्रम्ह मुहुर्त में अमलनेर पहुंचे। सभी लोग अलग-अलग डिब्बों में बैठे थे, पाठक जी, अग्रवाल जी, रेखा पालेश्वर आदि ए. सी. क्लास वन में बैठै थे। सभी उतरकर एक जगह एकत्र हुए, हम लगभग 60 लोग थे, वहाँ हमने सुरेश माहेश्वरी को अपनी प्रतीक्षा में इधर-उधर टहलते पाया। मन को अच्छा लगा। अभी-अभी पानी बरस कर रुका था, प्लेटफार्म की भूमि गीली थी, एकाध बूंदें अब भी टपक रहीं थीं। उन्होंने बताया कि प्रताप महाविद्यालय स्टेशन से लगा हुआ ही है, पैदल पाँच मिनट में पहुँच जायेंगे। सामान के लिए उन्होंने बड़ी वाली हाथ गाड़ी मंगवा ली।
प्लेटफार्म के बाद जैसे हम दाईं ओर मुड़े पानी कीचड़ से भरे गड्ढ़ों ने हमारा स्वागत किया। सामान के नाम पर मेरे पास एक हल्का बैग था जिसे उठाये मैं चल रही थी, निगाहें सड़क पर अपनी राह टटोल रही थी, एकाध व्यक्ति ने टार्च जला ली थी, वर्ना बादलों भरे बून्दों में रोेने आने वाले प्रभात की आहट हमें कैसे मिल पाती। आगे रेलपांत के ऊपर ओव्हर ब्रिज का निर्माण हो रहा था, जिसके कारण सड़क की हालत जर्जर हो रही थी। बड़ी-बड़ी बून्दे गिरने लगीं थीं। जब हम लोग प्रताप महाविद्यालय के गेट नं 1 पर पहुँचे पुरूष भाईयों को बाॅयज होस्टल और महिलाओं को गल्र्स हास्टल में ठहरने की व्यवस्था थी। हमें एक व्यक्ति टाॅर्च दिखाता दाहिनी ओर ले चला उग्रसेन कन्नौजे के पास भी चाइना वाली टाॅर्च थी, जिसके उजाले में हम आगे बढ़ रहे थे।
एक गड्ढ़े के पास मैंने देखा कि ठिगने कद की, सलवार कुर्ता पहने, गले में मोतियों की माला पहने, एक महिला अपना भारी बैग उठाने के लिए बड़ी जद्दोजहद कर रहीं हैं। उनके पाँव के पंजों में पट्टी बंधी हुई थी। तत्काल हाथ बढ़ाकर विनय पूर्वक मैंने उनका पहिये वाला बैग टाँग लिया। जहाँ-जहाँ आवश्यकता हुई मैंने उसे उठाकर गल्र्स हाॅस्टल तक पहुँचा दिया। भले ही अगले कई दिनों तक मुझे अपनी कमर दर्द का राज समझ में नहीं आया। वह नया बना बना, सर्वसुविधायुक्त गल्र्स हाॅस्टल था। सफेद टाइल्स से जगमगाता। मैंने एक नंबर कमरे में अपना बैग रख दिया। मेरे तुरन्त बाद शीला शर्मा (खुर्सीपार), (भिलाई) एवं ज्योति भारणे, (दुर्ग) इन दोनों ने भी अपना सामान रखा। कमरे में तीन तीन पलंग बिस्तर सहित लगे हुए थे। उन दोनो ने सामान रखकर अपने आपका को तत्काल बिस्तर पर डाल दिया – ‘‘दो घंटा सो लेते हैं।’’ कहते हुए।
इस समय तक प्रातः के पाँच बज चुके थे। यह समय मेरे स्नान ध्यान का था। मैंनें आराम से उस भवन की बड़ी सी खिड़की पर खड़ी होकर बाहर का विहंगम दृश्य देखा। खूब बड़ा मैदान, बीच बीच में बने विभाग, सभी का अलग-अलग प्रांगण, स्थान-स्थान पर लगे पेड़-पौधे, फूलों की सुन्दर क्यारियाँ ! वे हवा में मंद-मंद डोलते फुहारों का आनंद ले रहे थे। वहाँ बहुत सारे कमरे थे, सभी में लोग आराम करने लगे। मैंने आराम से स्नान ध्यान करके यात्रा की थकान उतारी।
चाय-नाश्ता भोजन सब की उत्तम व्यवस्था ने हमारा हार्दिक अभिनंदन किया। परन्तु सभी के उपस्थित होते-होते किंचित विलंब हो गया। स्वल्पाहार के पश्चात् लंबा मैदान पारकर हम कार्यालय पहुँचे, रजिस्ट्रेशन के पश्चात् हमें कुछ सामग्री दी गई। हम सभी सामने गुरूजी सभा भवन में पहुँचे। यह एक सर्वसुविधा सम्पन्न सभाकक्ष है। कुर्सियाँ, क्रमशः ऊँचाई पर बनी हुईं थीं, मैंने अपना स्थान ग्रहण किया, मंच के पीछे विशाल बैनर पर लिखा था, प्रताप महाविद्यालय अमलनेर, त्रि-दिवसीय अन्र्तराष्ट्रीय हिन्दी परिषद 17, 18, 19 जुलाई नीचे की पंक्ति में स्वातंत्र्योत्तर साहित्य में अभिव्यक्त निःशक्त चेतना।
गरिमामय, कार्यक्रम सरस्वती की सन्तानों की उपस्थिति में प्रारंभ हुआ, स्वागत गीत, सरस्वती वंदना श्रीमती वसुंधरा लांडगे ने प्रस्तुत की, कार्यक्रम का परिचय डाॅ. डी. पी. अग्रवाल ने दिया, उद्घाटन के लिये डाॅ. अलका धनपत हिन्दी विभाग की अध्यक्षा, मारीशस से पधारी थीं। अध्यक्षता प्रो. डाॅ. ए. पाटील प्राचार्य प्रताप महाविद्यालय अमलनेर ने किया। बीज भाषण प्रसिद्ध भाषाविद् साहित्यकार समालोचक डाॅ. विनय कुमार पाठक जी ने दिया, जिनके सद्प्रयासों से ही यह सम्पूर्ण कार्यक्रम सफल हो सका। इन्हीं में वह संगठन शक्ति है जिसके बल पर सारे छोटे बड़े साहित्यकार जहाँ ये यहाँ चाहते हें एकत्र हो जाते हैं।
पहला दिन था, मध्यान्ह भोजन के पश्चात लगभग 2.30 बजे कार्यक्रम प्रारंभ हुआ था, उस दिन एक ही सत्र था। इसके पश्चात् भारत में प्रसिद्ध मंगल मंदिर जाने का कार्यक्रम था। दुर्भाग्य से आायेजक द्वारा व्यवस्थित वाहन में हम नहीं चढ़ सके। शीला, ज्योति, हर हाल में मंगलग्रह के दर्शन करना चाहती थीं। मेरी इच्छा भी कम बलवती न थी। हम तीनों गेट नं. 1 से बाहर निकली हमें कोई वाहन मिलने की आशा कम ही थी। बनते ओव्हरब्रिज के पास लोगों की भीड़ जमा थी, रेलगाड़ी गुजरने वाली थी, इसीलिए सिगनल डाउन था। पानी बरस रहा था, शाम ढलने वाली थी, सड़क के कीचड़ भरे गड्ड़ों से छिटककर कीचड़ हमें श्रृंगारित कर रही थी। ज्योति भारणे मराठी हैं, इसलिए उसका साथ में रहना बहुुुत सुविधाप्रद साबित हुआ। उसने आगे बढ़कर एक ऑटो वाले को पटाया, हम तीनों आनन-फानन में उसमें बैठकर, अमलनेर की सड़कों, बाजारों को देखते आगे बढ़ने लगीं। शायद आटो पर चढ़ते समय शीला शर्मा के चप्पल की पट्टी टूट गई। वे असहजता से बार-बार पहलू बदल रहीं थीं।
‘‘भाई बाजार में मोची की दुकान के पास जरा रूकना ! चप्पल टूट गई है। उन्होंने ऑटो वाले से बात की वह मान गया। हम अमनेर के चोपड़ा रोड़ पर बढ़ रहे थे।, बाजार अव्यवस्थित और अस्वच्छ नजर आये, मुझे इसी कारण अमलनेर पहचाना, पहचाना लग रहा था। आगे हमें थोड़ी अच्छी सड़क मिली।
थोड़ी देर में हम मंदिर के पास पहुँच गये। यह स्थान आबादी से दूर एकान्त में बना है, इस समय तो इसकी भव्यता इसे एक पर्यटन स्थल का दर्जा प्रदान करती है, परन्तु कुछ समय पूर्व यह जीर्ण शीर्ण अवस्था में था। इसके प्रमाणिक इतिहास का अभाव है। सर्वप्रथम प्रताप काॅलेज के संस्थापक प्रताप सेठ के प्रयास से इसका जीर्णोद्वार हुआ। 1940 के बाद कुछ लापरवाही के कारण मंदिर दुरावस्था को प्राप्त हुआ। सनृ 1999 में इसका पुनः जीर्णोद्वार किया गया अब तो यह मंदिर, प्रताप महाविद्यालय की ही तरह अमलनेर की पहचान बन चुका है। परिसर के बाहर ही पूजन सामग्री की दुकानें सजीं थीं, हमने चढ़ाने के लिए थालियों में सजा प्रसाद खरीदा जिसमें मसूर की दाल, चांवल, हल्दी, इलायचीदाना, नारियल अगरबत्ती आदि थी। दुकानदार ने बताया इन वस्तुओं से मंगलवार को भोग तैयार होता है, जिसे उपस्थित सभी भक्तों को बाँटा जाता है। पूजा की थाली लेते हुए मुझे ख्याल आया कि भट्ट जी को बताये बिना, इधर आ गई खेाज न रहे हों ! फोन किया तो आशंका सत्य सिद्ध हुई। मैंने उन्हें आने के लिए कह दिया इधर आटोवाला कह रहा था कि जल्दी वापस चलो मुझे पाँच बजे स्कूल से बच्चों को घर पहुँचाना है।
हमने पूर्ण श्रद्धा से पूजा की थाली लिए मंदिर के भव्य द्वार से अन्दर प्रवेश किया। ऊपर हरे रंग वाली प्लास्टिक सीट लगाई गई है, फूलों से पूरा मार्ग सजा हुआ है। परिसर के भव्य रह वपु पृथ्वी पुत्र विद्युत कांति से उद्भासित हाथ में शस्त्र धारण किये श्री मंगल देव का हमने दर्शन किया। मंगल का मंगलकारी दर्शन कर हमारा चित्त प्रसन्न हो गया। पूजा की थाली पुजारी के हाथों में देकर हमने शीश झुकाकर प्रणाम किया। पल भर के लिए मैं सारे भौतिक तापों से मुक्त हो गई। प्रसाद लेकर हम लोग परिसर में ही स्थित तुलसाई गार्डन देखते गये। आकार में तो यह छोटा सा ही है परन्तु शोभा एक सुन्दर गुलस्ते जैसी है। फव्वारे के पास मुरलीधर की मुरली बजाती मूर्ति अत्यंत मनोहर है। हमने यहाँ फोटोग्राफी की। वापस द्वार की ओर आते समय नक्कार कुटिया के पास गंगाधर की सुन्दर मूर्ति के दर्शन हुए। उनकी जटाओं से गंगा की धारा प्रवाहित हो रही है। एक ओर मंगल वन है जिसमें वर्षा का जल रोककर सुन्दर सरोवर का निर्माण किया गया है।
मंदिर की कारीगरी, स्वच्छता, सुव्यवस्था देखकर व्यवस्थापकों की प्रशंसा करने की इच्छा बलवती हो उठी। यहाँ प्रत्येक मंगलवार को अभिषेक हुआ करता है। विवाह बाधा से पीड़ित युवक-युवतियाँ यहाँ अभिषेक कर शीघ्र योग्य जीवन साथी की प्राप्त करती हैं।
ऑटो वाला हमें बुला रहा था, और मैं साथियों की प्रतीक्षा कर रही थी। अंततः वे लोग ऑटो से पहुँचे, हमने शीघ्रता से उनकी ग्रुप फोटो ली और अनुमति लेकर ऑटो की ओर आ गये।
पथिक जी आदि साथियों से मुलाकात नाश्ते की टेबल पर ही हुई, क्योंकि न हम उनकी ओर जा सकते थे न वे हमारी ओर आ सकते थे, रात्रि में लगभग एक बजे मेरी तबियत बिगड़ गई थी, उल्टी के बाद थोड़ी राहत मिली थी, किनतु मन मितला रहा था। दरअसल भोजन जहाँ बन रहा था, वहीं खाने की व्यवस्था थी, तेल मसाले की गंध से मुझे सहन नहीं होती। हल्का ज्वर भी हो आया था। प्रातः पता चला तब शीला मैडम बहुत पछताने लगीं ‘‘आपने हमें जगाया क्यों नही’’ ? ज्योति ने दवाई दी, जिसे खाकर ही मैं नीचे उतरी थी। पथिक जी ने मुझे कुछ भी खाने से मना कर दिया। तरह-तरह के मराठी व्यंजन परोसे जा रहे थे, लेकिन मुझसे कुछ भी खाया न गया।
ग्यारह बजकर दस मिनट पर द्वितीय सत्र का प्रारंभ हुआ। कार्यक्रम की अध्यक्षता मारीशस से पधारी प्रो. डाॅ0 अलका धनपत कर रही थीं। आज का विषय था, ‘विकलांग विमर्श के विभिन्न आयाम’ बारह शोधपत्र प्रस्तोताओं ने अपने आलेखों का वाचन किया। मेरा नं. 19 तारीख को था, परन्तु तबियत अधिक न बिगड़े इसके डर से एक अनुपस्थित प्रस्तोता की जगह सूत्र संचालिका से कह कर मैंनें अपने आलेख वाचन की अनुमति ले ली। मेरे आलेख का विषय था ‘मेरी कहानियों में विकलांग विमर्श’ आलेख संक्षेपिका का पाँच मिनट के समय में वाचन करना था, सो मैंने समय सीमा में अपना आलेख समाप्त किया।
भोजन के बाद का तृतीय सत्र सबसे महत्वपूर्ण था, इसका विषय था विकलांग पुर्नवास शिक्षा और रोजगार। डाॅक्टर डी. पी. अग्रवाल की अध्यक्षता में दस शोध पत्र पढ़े गये। डाॅक्टर अग्रवाल ने परिषद् के द्वारा किये गये अथवा किये जाने वाले कार्यों की जानकारी दी। सत्र की समाप्ति पर ब्रेड पकौड़े और चाय दी गई। मैंने खाने-पीने से परहेज किया, ज्वर के कारण ज्यादा कुछ ठीक नहीं लग रहा था।
शेष अगले भाग में