एक साहित्यिक चर्चा: अविश्वसनीयता का विसर्जन-डा.अर्जुन दूबे

एक साहित्यिक चर्चा: अविश्वसनीयता का विसर्जन

-डा.अर्जुन दूबे

एक साहित्यिक चर्चा: अविश्वसनीयता का विसर्जन
एक साहित्यिक चर्चा: अविश्वसनीयता का विसर्जन

रंग मंच पर अभिनय के क्षेत्र में, नाटकों में, सिनेमा सदृश अन्य विधाओं में, साहित्य के अन्य शाखाओं में एक प्रचलित” पद” अविश्वसनीयता का विसर्जन (Suspension of Disbelief) प्रचलित है। ऐसा भाव पाठक/दर्शक द्वारा कथावस्‍तु के चरित्र में स्वयं को वहीं चरित्र समझने के कारण, यद्यपि अस्थाई ही सही, होता है। अवास्तविक को वास्तविक समझना (Unreal is assumed as Real) जानदार कथानक और सशक्त चरित्र के अभिनय के कारण होता है। सिनेमाघर में, टीवी चैनलों आदि पर यह पता रहता है कि तकनीकी का सब कमाल है फिर भी कुछ समय के लिए ही सही दर्शक इतना खो जाते हैं कि उन चरित्रों को जीवन के वास्तविक चरित्र समझने लगते हैं। गंभीर कथावस्‍तु में अथवा दुखांत कथानकों में दर्शक/पाठक इतना भावविभोर हो जाता है कि वह Catharsis (भाव विरेचन/शुद्धिकरण) की प्रक्रिया से गुजरता है। दुःख को व्यक्त करने की क्रिया यथा सिसकने से लेकर रोकर शांत होना इसकी एक नैसर्गिक प्रक्रिया हो जाती है।

दर्शक के नजरिए से एक स्वाभाविक समस्या यह आती है कि दर्शक अभिनय करने वाले चरित्रों, विशेष रूप से धार्मिक कथानकों से, अपने को पृथक नहीं कर पाता है। वह उस चरित्र को उसके वास्तविक जीवन में भी वैसे ही चरित्र के रूप में प्रतिपादित देखना चाहता है। आज मैंने कहीं पढ़ा कि महादेव सीरियल में देवी पार्वती का चरित्र अभिनय करने वाली नायिका ने बहुत ही बोल्ड सीन किसी अन्य धारावाहिक में दिया है। प्रतिक्रिया आनी शुरू हो गई। ऐसे अनेक उदाहरण हैं ।

जहां कथानकों के आदर्श चरित्रों से आदर्श जीवन शैली की अपेक्षा हो जाती है। रामायण के प्रसंग में कहीं चर्चा में सुना था कि रावण के देवी सीता के प्रति आशक्ति को देखते हुए रावण की पत्नी ने सुझाव दिया कि सीता को पाने के लिए राम बनना पड़ेगा। रावण ने कहा कि राम का भेष धारण करने पर मुझे सीता सती साध्वी देवी की प्रतिमूर्ति दिखाई देती है जिनके प्रति श्रद्धा के अलावा कोई अन्य भाव नहीं उत्पन्न होता है।

चरित्रों को अभिनय को वास्तविकता से पृथक करना सरल नहीं है।

-डा.अर्जुन दूबे,
रिटायर्ड प्रोफेसर, अंग्रेजी,
म.मो.मा.प्रौ.वि.वि.गोरखपुर उ.प्र.

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