चिंतन आलेख: बचपन का बीज बुढ़ापे का फल
-रमेश चौहान
जैसे बोवोगेबीज वैसे होगा फल
सांच को आंच क्या ? स्वयं प्रयोग करेके देखें फिर आप भी कहेंगे –‘बचपन का बीज बुढ़ापे का फल’ । जैसे बोवोगे बीज वैसे होगा फल । बच्चों केे शरीर को यदि खेती मान लिया जाए तो मॉं-बाप किसान होंगे ।
अपने आसपास 70-80 वर्ष के बुजुर्गों का अवलोकन कीजिए । उनमें ऐसे लोगों को चिन्हांकित कीजिए, जो इस आयु में पूरी तरह स्वस्थ हैं, जो आराम से चल फिर पा रहे हैं, रुचि अनुसार पेट भर भोजन कर पा रहे हैं । चिन्हांकित बुजुर्गों से बात कीजिए और उन से पूछिए कि उनके स्वस्थ रहने का कारण क्या है ? ऐसा करने पर आप उनके उत्तरों में एक बात उभयनिष्ठ रूप से पाएंगे की वे सभी बाल्यकाल से ही शारीरिक परिश्रम किए हैं ।
अधिकांश स्वस्थ बुजुर्ग बाल्यकाल से या तो खेती का काम करते रहे हैं, मजदूरी करते रहे हैं, खेलकूद करते रहे हैं, या कोई ना कोई शारीरिक परिश्रम का कार्य बाल्यकाल से ही किए हुए हैं ।
अब ऐसे व्यक्ति चिन्हांकित कीजिए जो 60-70 वर्ष की आयु में ही असहाय जीवन व्यतीत कर रहे हैं । ऐसे व्यक्तियों से बात करने पर अधिकांश में आप पाएंगे कि इनका बाल्यकाल आरामदायक रहा है जो बाल्यकाल में कभी कोई परिश्रम नहीं किये हैं ।
नींव मजबूत तो घर मजबूत
हम सब कहते हैं की “नींव मजबूत तो घर मजबूत” । शरीर का नींव बचपन होता है। फिर भी हम सब आने वाले पीढ़ी के साथ न्याय नहीं कर पा रहे हैं । बच्चों की नींव को कमजोर कर रहे हैं । बच्चों से बचपन से ही हम उनके बचपना को छीन रहें हैं । नर्सरी क्लास में एडमिशन, ट्यूशन, होमवर्क बस इसी पर ध्यान देते रहते हैं । कभी उनको एक घंटा खेलकूद के लिए प्रेरित नहीं करते । खेलने के लिए उनके हाथ में महंगे महंगे मोबाइल पकड़ा दिए और हम इतिश्री समझते हैं ।
बुढ़े मां-बाप अनाथालय में शरण ले रहे हैं
बच्चों का 24 घंटे का शेडूल ऐसे सेट कर देते हैं कि वह एक पालतू जानवर की भांति केवल प्रशिक्षित जानवर ही बन सके जो अधिक से अधिक किताबी कीड़ा हो जो अधिक से अधिक धन अर्जन कर सके । बच्चों की मानसिकता इस प्रकार से सेट कर दी जाती है कि उसे दुनिया में पैसा ही सबसे बड़ा लगने लगता है नातेदारी रिश्तेदारी समाज पर केवल व केवल पैसे को ही अहमियत देते रहता है यही कारण है कि उस बच्चे के बड़े होने पर उनके बुढ़े मां-बाप अनाथालय में शरण ले रहे हैं ।
स्कूली शिक्षा जीवन मूल्य से श्रेष्ठ नहीं
बच्चों की शिक्षा आवश्यक है लेकिन कोई भी स्कूली शिक्षा जीवन मूल्य से श्रेष्ठ नहीं हो सकता । जितना आवश्यक बौद्धिक विकास है उससे कहीं अधिक शारीरिक विकास की आवश्यकता होती है ।तन स्वस्थ तो मन स्वस्थ । तन-मन स्वस्थ रहने पर ही भौतिक सुख सुविधाओं का आनंद लिया जा सकता है ।
जीवन का कठिन दौर वृद्धावस्था होता है । वृद्धावस्था को स्वस्थ रखने का नींव बाल्यकाल है । अस्तु बाल्यकाल में पढ़ाई लिखाई से अधिक शारीरिक खेलकूद परिश्रम को महत्व दिया जाना चाहिए। इसलिए कह रहा हूँ-‘बचपन का बीज बुढ़ापे का फल।’
-रमेश चौहान