व्यंग: बातों-बातों में
-डा.अर्जुन दूबे
1.छोड़ो जात पात, साधु की कोई जाति नहीं होती
मैं जात पात नहीं मानता हूं, क्या कहा जाति पाति में तुम्हारी आस्था नहीं है? हां। नाटक कर रहे हो? सही बोल रहा हूं, मेरे भाषण सुनो जिसमें मैं कहता हूं कि जात पात से ऊपर उठो। क्यों बेवकूफ बना रहे हो? जानते हो कि अब्राहम लिंकन ने कहा है कि कुछ लोगों को सदैव मूर्ख बनाया जा सकता है। ऐसा है? और सभी लोगों को कभी कभी मूर्ख बनाया जा सकता है। यह तो बहुत अच्छा है। किंतु सभी लोगों को सदैव मूर्ख नहीं बनाया जा सकता है।
लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जिनकी जाति का पता नहीं है और इस लिए वे संभवतः कहते हैं कि जात पात में वे विश्वास नहीं करते हैं। पता तो कर ही लेते हैं, अगर नहीं पता तो कौन उन्हें पूछेगा, यदि अपनी पहचान बना कर कुछ हासिल करना चाहते हैं, विशेष रूप से राजनीति में?
अच्छा यह बताओ कि धर्म को किस नजरिए से देखते हो? धर्म और नजरिया? धर्म में यह सब कौन सोचता है? होते हैं कुछ लोग जो धर्म को भी नहीं मानते हैं। तो करते क्या हैं और कैसे होते हैं? कुछ नहीं, बस वे अनाधार्मिक होते हैं। वैसे ही जैसे हम अनासक्त हो जाते हैं अथवा होने की कोशिश करते हैं? हां, हां। गलत, वे अनासक्त नहीं रह सकते हैं यदि पब्लिक फिगर बनना चाहते हैं तो? ऐसा है? वे जानते हो? क्या? चमगादड़ पक्षी को देखे हो? हां, वह न तो नभचर होता है और न ही थलचर, जीवन के लिए जलचर भी नहीं बन पाता है। जगह जगह धोखा खाता रहता है, अकेला पड़ते जाता है। शक्तिहीन भी हो चला जाता है; पहले उसके आगे पीछे सभी तरह के जीव रहते थे, किंतु अब उन जीवों ने विभिन्न तरीकों से अपनी पोजीशन और पहचान बना ली है।तो वह करता क्या है? कुछ नहीं, बस बेबस देखता रहता है इस उम्मीद में कि संभवतः उनके (लोगों) चक्षु खुलें और वह पुनः….। मैं समझ गया। अभी नहीं सुनना है, बाद में बताना ।
2.कोउ नृप होइ हमें का हानी:
कोउ नृप होइ हमैं का हानी ;चेरि छाड़ि अब होब की रानी”। कौन नृप, कौन चेरि अर्थात दासी और कौन रानी? क्या बात कही है परम् श्रद्धैय गोस्वामीजी ने! शत् शत् नमन।
मैं सोचता था कि राजतंत्रीय व्यवस्था में उपरोक्त का अर्थ रहा होगा, किंतु अब तो लोकतंत्र है–कोई नृप नहीं, कोई दास-दासी नहीं और न ही कोई रानी ही। सभी सामान्य नर-नारी हैं।
किस भ्रम में हो! बिना नृप के शासन संभव है? आज के शासक क्या हैं? बिना प्रोटोकाल के विचरण कर रहे हैं! उनके मुकुट कहां है? मुकुट मतलब निशान! हां, हां वही। कभी देखा है आज के शासकों को गुजरते हुए? हां अनेक बार, क्या ठाठ हैं उनके! यही तो निशान है। अनेक सुरक्षा सदृश सेवक कर्मी अहर्निश देखभाल में लगे रहते हैं। सही कहा, उनकी रानी? क्या बताऊं, रहने दो। यह दुनिया है, उनकी रानी बनने के लिए जब तक वे नृप हैं क्या कमी है?
यहां सीता को मत खोजो, वह केवल नृप के साथ दिखेंगी। जहां जहां उसके नृप राम, तहां तहां उनके साथ उनकी रानी सीता दिखेंगी, मन से देखोगे तब। मैं समझ नहीं पा रहा हूं। अच्छा एक प्रसग सुनाता हूं। नृप राम की रानी सीता का रावण अपहरण कर लिया था। हां, जानता हूं, उन्हें अशोक वाटिका में रख दिया था ताकि उन्हें शोक न हो। बहुत कुछ जानते हो।
नृप राम और उनके भाई उनकी तलाश में व्याकुल हो कर जंगल में भटक रहे थे। तब क्या हुआ? कैलाश पर देवों के देव महादेव जी अपनी देवी सती के साथ बैठे हुए थे और अपने इष्ट राम को अपलक निहार रहे थे, तभी देवी सती ने टोक दिया और पूछा कि यही आप के इष्टदेव हैं जो सामान्य मनुष्य की तरह व्याकुल हैं? हां, यही हैं। शंका है, उनकी परीक्षा लेती हूं। उन्ही की रानी सीता का रूप धर लेती हूं। अरे! यह क्या वह मुझे इस रूप में भी पहचान लिए और मुझे ही प्रणाम करते हुए बिना भोलेनाथ के अकेले विचरण करने का कारण पूछने लगे। अरे, यही नहीं, और भी आश्चर्य! वह क्या? उनके साथ नृप राम की रानी सीता भी बीच में चल रही थी। यानी रावण सीता जी का अपहरण नहीं कर पाया था? किया था, छाया की। ऐसा भी होता है? क्यों नहीं, सूर्य पुत्र शनि सूर्य पत्नी संध्या की छाया से ही जन्म लिये थे, आज का विज्ञान तो कुछ नहीं है।
अच्छा एक बात बताओ कि सीता जी अपने नृप राम को प्राप्त करने के लिए मिथिला में देवी पार्वती जी की स्तुति कर रही थी, फिर इतनी जल्दी सती! क्या रहस्य है? यही रहस्य मैं भी जानना चाहता हूं, देखो कब कृपा प्राप्त होती है?
3.क्या यह धर्म है?
यूक्रेन और रूस दोनो यूरोपीय देश हैं जहां ईसाई धर्म में आस्था रखने वाले बहुतायत है किंतु ईसाई धर्म के मूल भूत गुण प्रेम, करूणा और क्षमा का अभाव दिखा है। जरा पीछे की तरफ इतिहास के पन्नों पर नजर डालते हैं तो द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान एक तरफ जहां हिटलर ने यहूदियों को गैस चैंबर में जिंदा जलवा दिया था वहीं दूसरी तरफ अमेरिका ने परमाणु बम का प्रयोग कर लाखों जापानियों की जान ले ली थी। आज रूस जिस तरह से यूक्रेन से युद्ध कर रहा है, मुझे इतिहास के पन्नों में मगध-कलिगं युद्ध स्मरण हो जाता है। मगध सम्राट अशोक के सम्मुख कलिंग कहां ठहरता; भारी रक्तपात के बीच कलिंग पराजित हो गया था। किंतु यही अंत नहीं था, इस युद्ध के बाद अशोक का युद्ध से मोह भंग हो गया था। संभवतः प्रभाव बुद्ध की अहिंसा, करूणा और प्रेम रहा और अशोक बुद्ध दर्शन का अनुयाई बन गया। लेकिन विस्तारवादी प्रवृत्ति के चीन सरीखे देश प्रभुत्व कायम करने के लिए युद्ध करने से बाज नहीं आए और आज भी हड़प संस्कृति के पोषक बन कर उभरे हैं।
भारत के बाहर युद्ध का विकल्प युद्ध ही रहा चाहें इस्लाम में आस्था रखने वाले देश इराक़-ईरान रहे हों अथवा ईसाई धर्म के मतावलंबी ही क्यों न हो। जब नैपोलियन ने रूस पर आक्रमण कर दिया था तब रूस में भी अनिश्चितता का माहौल बन गया था वैसे ही जैसे युक्रेन पर रूसी आक्रमण के फलस्वरूप हुआ है। युद्ध के बाद संवाद (Table Talk) होता ही है लेकिन तब तक विनाश बहुत हो चुका होता है। सैनिकों के साथ साथ नागरिक भी बड़ी संख्या में मारे जाते हैं, पक्ष कोई भी हो। युद्ध करने के लिए आमदा व्यक्ति अथवा राष्ट्र इस परिधि से बाहर नहीं निकलना चाहते हैं, यद्यपि परिणाम – दूसरे का विनाश अथवा स्वत: का विनाश-सभी को मालूम रहता है। एक नव चेतना, पुनर्जागरण, नवजागरण अथवा जो भी शब्द चयन करें, विश्व में प्रचारित करना अपेक्षित है ताकि राष्ट्रवाद से भी ऊपर उठकर अंतर्राष्ट्रवाद एवं मानववाद की ओर कदम बढ़े, बढ़ते ही रहे बिना विराम के !
4.मोक्ष की यात्रा
“पंछी बनू उड़ती फिरूं मस्त गगन में” कितना अच्छा लगता है कि मैं आस्ट्रेलिया से उड़कर बनारस के घाटों पर चली आई, धर्म नगरी है जो; साइबेरिया से मुश्किलों को पार करते हुए कुंभ स्नान भी करने चली आयी। कोई परेशानी हुई थी? मैं सोच रही थी कि नभ के पंछी रास्ता रोकेंगे। क्या रोके थे? मैंने कहा कि धार्मिक यात्रा पर जा रही हूं, मेरे साथ मेरी पलटन भी है। अच्छा जाओ, पुण्य लाभ लो और मोक्ष को प्राप्त करो।
फिर क्या हुआ? आ गयी हूं लेकिन लगता है कि मोक्ष नहीं मिलेगा। वह कैसे? आदमी सबसे बड़ा रोड़ा है। तुम्हारा मतलब मैं? हां, हां, तुम ही। अब डर काहे को,जब घुट-घुट कर मरना ही है तो। मैं समझा नहीं, जरा ठीक से बताओ।
देखो, नभ के द्वार से तुम्हारे खोजी यंत्रों से बचकर थल पर मोक्ष की कामना लिए आ तो गई किंतु तुम्हारे लालीपाप में फँस गई; लालीपाप मोक्ष में बाधा है, यह तुम तो जानते होंगे? अरे, मैं कितनी मूर्ख! तुम कहां से जानोगे? क्यों? तुम तो मुझे पकड़ कर बेचने की फिराक में रहते हो और तो और तुम …। बोलो, बोलो। नहीं, छोड़ो तुम मेरे मुक्ति दाता बन कर मेरी तलाश में घाटों पर घूमते रहते हो। लेकिन तुम स्वयं किससे और कैसे मुक्त होगे? तुमने तो मेरी आंखें ही खोल दी है। लेकिन आंख बंद ही रखना चाहता हूं, कम से मोक्ष दाता को तो देख नहीं पाऊंगा अथवा यूं कहूं कि देखना नहीं चाहता । ऐसा क्यों है? आदमी का पेट बड़ा है, बहुत बड़ा है, इतना बड़ा है कि पूरा ब्रह्मांड समा जाए। देखो आदमी को जानवरों और पंछियों से कोई भय नहीं है और इस लिए इनसे मोक्ष नहीं मिलेगा। तब किससे? आदमी से ही। लेकिन अब आदमी भय त्याग कर आदमी से बिना मार्ग पूछे ही अनंत यात्रा की ओर अग्रसर है। वह मार्ग कौन और क्या है? केवल युद्ध। युद्ध ही मोक्ष प्रदाता है।
5.महिमा चारो धाम की
वे लोग चारो धाम गये थे। जगन्नाथ पुरी, द्वारका, रामेश्वरम और बद्रीनाथ-केदारनाथ, ये चारो चार दिशाओं में हैं; मन करे, तन स्वस्थ हो और धन व्यय करने की थोड़ी शक्ति सहित इच्छा हो तो मोक्ष मिले या न मिले कितना कुछ देखने और जानने को मिल सकता है, कल्पना करके ही आनंद की अनुभूति होने लगती है; देशाटन का आनन्द, क्या पूछना !हम भाग्यशाली हैं कि चारो धाम हमारे देश में ही है, कहीं पाकिस्तान अथवा बांग्लादेश में होते तो? वीजा, पासपोर्ट की झंझट के अलावा अशांत मन को वहां किस प्रकार शांत कराते? हे ब्रितानी हुकूमत हम तुम्हारे भी शुक्रगुजार हैं कि यद्यपि तुमने हमारे ऊपर गुलाम के मनोभाव लिए शासन किया, तथापि इतना बड़ा रेलवे नेटवर्क दिया है कि हम धड़ल्ले से पुरी, द्वारका और रामेश्वरम की सैर कर लेते हैं; बद्रीनाथ-केदारनाथ के लिए भी मुहाने तक रेल सुविधा दे दिया है। उसी को उच्चीकृत करते हुए नये नये रेलवे नेटवर्क भी बनाते जा रहे हैं। कितनी भाषाई विविधता, क्षैत्रिय विषमताएं हैं किंतु वाह, सांस्कृतिक एकता की लय लिए ये धाम आपको बारंबार आकर्षित करते हैं! इनकी महिमा अवर्णनीय है। जो लोग इनके पुण्य लाभ ले लिए, भाग्यशाली हैं। पता नहीं कि गोस्वामी जी इन स्थानों का, पैदल ही सही क्योंकि यही विकल्प था, भ्रमण कर पाये थे कि नहीं लेकिन कितनी सार्थक बातें लिखी हैं “सकल पदारथ यही जग माहीं, कर्महीन नर पावत नाहीं”। कर्म की महिमा निर्विवाद रूप में सर्वत्र व्याप्त है। भौतिक और पराभौतिक दोनों ही कर्म में ही समाये हुए हैं। इसी लिए हमें क्षेत्रीय और भाषाई विषमताओं से हटकर सांस्कृतिक शास्वत अमर फल प्राप्त करने का सतत् कर्म-तप करना चाहिए। अखंड भारत की जय हो।
डा.अर्जुन दूबे
सेवा निवृत्त आचार्य, अंग्रेजी
मदन मोहन मालवीय प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय , गोरखपुर