भगवती लाल सेन-साहित्यकारों की दृष्टि में सर्वहारा वर्ग के कवि
-डुमन लाल ध्रुव
छत्तीसगढ़ी के गंभीर कवि स्वर्गीय भगवती लाल सेन एक बहुआयामी सृजनधर्मी साहित्यकार थे। उन्होंने अपनी लेखनी से साहित्य जगत और समाज को जो कुछ दिया उसका मूल्यांकन संभव नहीं है। उनका जन्म 23 मई 1930 ग्राम देमार जिला धमतरी में हुआ और अवसान 08 अगस्त 1981 रायपुर में। उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश समय धमतरी में रहकर बिताया । पेशे से केशकर्ता भगवती सेन ने आजीवन अनवरत साहित्य साधना करते हुए छत्तीसगढ़ी साहित्य को समृद्ध करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ।
भगवती सेन को साहित्यिक अभिरुचि अपने स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पिता स्वर्गीय श्री शंकर लाल सेन से विरासत में प्राप्त हुई । गंभीर विचार वाले भगवती सेन ने मानवीय संवेदनाओं को स्पर्श करने वाली कविताएं लिखी जो उल्लेखनीय है । पर धीरे-धीरे उन्हें यह लगने लगा कि अपने वैचारिक मंथन और भावों के प्रभाव को वे छत्तीसगढ़ी कविताओं के माध्यम से अधिक अच्छी तरह व्यक्त कर सकते हैं । शायद इसीलिए भगवती सेन ने साहित्य और समाज से सरोकार रखने वाले विविधायुक्त स्तरीय छत्तीसगढ़ी साहित्यिक रचना की । भगवती सेन ने उन बिंदुओं को अपनी कविताओं का केंद्रीय भाव बनाया जो जीवन जगत से सीधा सरोकार रखते हैं और साहित्य के साथ-साथ समाज से भी रिश्ता रखते हैं। साहित्य के समाज पर प्रभाव की युग के सामाजिक यथार्थ की और साहित्य के विविध आयामों की उन्होंने गंभीर व्याख्या की है । उनकी लेखनी से नवनिर्माण के स्वर झंकृत होते हैं।
शब्दों के चयन में हमेशा सजग रहने वाले भगवती सेन के व्यंग्यात्मक कविताओं में सर्वथा नवीन अर्थवत्ता है। कई भावात्मक कविता भी उन्होंने लिखे हैं । उनकी कविताएं सुबोध भी है और प्रवाहमय भी । उनकी छत्तीसगढ़ी साहित्य कृति ’’नदिया मरे पियास’’ , ’’देख रे आंखी सुन रे कान’’ छत्तीसगढ़ी साहित्य की अमूल्य धरोहर है।
खैरागढ़ के सुप्रसिद्ध गीतकार, कवि डाॅ. जीवन यदु ने बताया कि-बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के छत्तीसगढ़ी कविता संसार में अग्नि की आंच और प्रकाश लेकर एक नाम उभरकर सामने आया था – भगवती लाल सेन । आज वह हमारे बीच नहीं है किंतु उनकी कविता की आंच और प्रकाश का अनुभव आज भी होता है । यह उनकी प्रासंगिकता का ज्वलंत प्रमाण है । युवा साहित्यकार श्री डुमन लाल ध्रुव ने भगवती सेन के व्यक्तित्व-कृतित्व पर केंद्रित किताब ’’अमरित बांटिस जग ला’’ प्रकाशित कर एक सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित की है। सही और स्थाई श्रद्धांजलि, लीक से हटकर श्रद्धांजलि। सामान्यतः मृत व्यक्ति श्रद्धा का पात्र हो जाता है। उसे श्रद्धांजलि देना परंपरा का निर्वहन मात्र होता है और ऐसी श्रद्धांजलि बहुत हद तक शाब्दिक होती है, हार्दिक नहीं। किंतु बहुत से ऐसे व्यक्ति होते हैं, जिनके प्रति हमारी श्रद्धा अकारण नहीं होती ।उसके पीछे कुछ कारण होते हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने श्रद्धा और भक्ति का विश्लेषण करते हुए लिखा है – किसी मनुष्य में जन- साधारण से विशेष गुण व शक्ति का विकास देख जो एक स्थाई आनंद पद्धति की ह्रदय में स्थापित हो जाती है, उसे श्रद्धा कहते हैं। जहां तक मैं समझता हूं ,भगवती सेन के प्रति नई पीढ़ी के रचनाकारों की श्रद्धा ऐसे ही सकारण- श्रद्धा है । श्रद्धा यहां शब्द के स्तर की ना होकर, हृदय के स्तर की है।
यशस्वी गीतकार कवि श्री नारायण लाल परमार ने भगवती सेन के संदर्भ में लिखा है-श्रम जिसका आराध्य है। जिसके प्राण छलहीन ग्रामीणता से ओत-प्रोत है। जिसका अपना , बनावट से दूर एक सहज व्यक्तित्व है । जो अपनी बोली छत्तीसगढ़ी के लिए समर्पित है। सचमुच एक निश्छल, जीवंत और प्यारा कवि है भगवती लाल सेन। व्यंग्यकार श्री त्रिभुवन पांडे ने लिखा है-भगवती सेन की सबसे बड़ी विशिष्टता उन कविताओं में दिखलाई पड़ती है जिन कविताओं में मानवीय नियति के खिलाफ आयोजित किए जा रहे हैं षडयंत्रों का बेबाक चित्रण है । लोक भाषा की शक्ति का जिस सामर्थ्य और कौशल के साथ उन्होंने उपयोग किया वह उनकी अपनी उपलब्धि है।
हास्य-व्यंग्य के सुप्रसिद्ध कवि श्री सुरजीत नवदीप लिखते हैं-उस बाप के हृदय में उस समय क्या गुजर रही थी वे ही जाने या फिर परमपिता परमेश्वर। ऐसी मौत भी सबको कहां नसीब होती है। बस, नदी उदास थी, दूर तक फैली हुई रेत और भारी भारी मन लिए हम सब सांझ के धुंधलके में अपने- अपने घरों को वापस हो रहे थे । वापस होते समय श्रद्धांजलि में बोले गये कुछ वाक्य अभी भी कानों में गूंज रहे थे- अकेला ही व्यक्ति आता है लेकिन पहुंचने वालों की भीड़ बताती है कि वह कितना लोकप्रिय था , कितने उनके चाहने वाले लोग थे और कितने ऐसे जाने अनजाने लोग उस भीड़ में शामिल थे जो सिर्फ उन्हें नाम से जानते थे उन्हें देखा नहीं था यह था भगवती सेन के प्रति लोगों के मन का सच्चा प्यार।
रायपुर के प्रसिद्ध कवि श्री बसंत दीवान के शब्दों में-धमतरी के मित्रों ने मुझे जीता जागता भगवती भाई सौंपा था, मैंने उन्हें नम आंखों से निष्प्राण भगवती भाई लौटा दिया।
प्रसिद्ध गजल गो एवं कहानीकार श्री जयंत कुमार थोरात ने लिखा है-’’मेहनत अउर लगन परसादे, आज सुमत के बाग लगा दो, अंतस म अनुराग जगादो’’ जैसी प्रेरक कविता के कवि स्वर्गीय भगवती लाल सेन छत्तीसगढ़ी भाषा के श्रेष्ठ कवि थे। उनकी अभिव्यक्ति की नवीनता छत्तीसगढ़ी भाषा की व्यंजना शक्ति को शिखर पर ले गई। छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध गीतकार लक्ष्मण मस्तुरिया ने लिखा है-साफ मनके मनखे मिलना सत के मुसकुल होथे ? कवि भगवती लाल सेन के सुरता आथे तब समझ में आथे के एक सोरा आना मनखे के कथनी की करनी में कोनो भेद नइ होय । किसान मजदूर सही वोकरो निरमल सुभाव रहिस।
भिलाई के प्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री रवि श्रीवास्तव लिखते हैं-जबलपुर में प्रगतिशील लेखक संघ का राष्ट्रीय अधिवेंशन था। छत्तीसगढ़ से लेखकों का एक बड़ा जत्था शामिल हुआ। ललित सुरजन , प्रभाकर चैबे, डॉ. रमाकांत श्रीवास्तव, डॉ. हरिशंकर शुक्ल, जीवेश प्रभाकर , रमेश याज्ञिक, शरद कोठारी ,रवि श्रीवास्तव, त्रिभुवन पांडे, भगवती सेन, डॉ. राजेश्वर सक्सेना , प्रताप ठाकुर , रफीक खान , विजय गुप्त आदि साथी सम्मिलित हुए। देशभर के प्रतिष्ठित लेखक और रंगकर्मी एकत्रित हुए ।बाबा नागार्जुन , भीष्म साहनी, अमृतराय , ए. के. हंगल, नामवर सिंह आदि बड़ी संख्या में युवा लेखकों की भागीदारी थी । उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता कर रहे थे प्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई । स्वागताध्यक्ष थे मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह। चार दिवसीय अधिवेंशन का पूरा दिन बौद्धिक बहस में गुजरता । एक ही समय में अलग-अलग विषयों पर केंद्रित कभी दो और तीन गोष्ठियां। जो विषय रुचिकर लगे, वहां उपस्थिति दें। भगवती सेल इन बौद्धिक बहसों से थक जाते फिर भी अपनी ओर से पूरी कोशिश करते टी ब्रेक में या फिर शाम को बातें विस्तार से होती भगवती सेन का उत्साह देखते ही बनता वह अपने जीवन के सबसे बड़े साहित्यिक कार्यक्रम में सम्मिलित हुए थे ।
लोक सांस्कृतिक संस्था चंदैनी गोंदा के प्रथम उद्घोषक व सेवा निवृत्त प्रोफेसर डाॅ. सुरेश देशमुख ने लिखा है-सर्जक मेरे कका जी स्वर्गीय दाऊ रामचंद्र देशमुख जी छत्तीसगढ़ के गाए जाने वाले बसदेवा गीत के तर्ज में स्वर्गीय भगवती सेन द्वारा रचित गीत जय गंगान को लोक मंच में प्रस्तुत कर सामाजिक , आर्थिक , राजनीतिक, विद्रूपताओं पर जनमानस को रेखांकित करते थे। गजलकार एवं उपन्यासकार श्री रंजीत भट्टाचार्य ने कहा-भगवती सेन जनकवि थे। छत्तीसगढ़ की पीड़ा को ही अपनी रचना का आधार बनाते थे। साहित्यकार कुमेश्वर कुमार ने कहा कि-देमार की प्राथमिक पाठशाला में चैथी कक्षा तक शिक्षा प्राप्त भगवती लाल सेन भले ही किताबों को कम पढ़ा हो, लेकिन जीवन को खूब कढ़ा उन्होंने देखा और महसूस किया कि अंग्रेज जमाने में ग्रामीण शासन के भय से अपने- अपने घरों में दुबके रहते थे । सत्ताधीशों के चाटुकारों के विरुद्ध कोई चूं भी नहीं कर सकता था । सभी विपन्न दो – चार सम्पन्न किसानों के खेतिहर मजदूर थे या जमींदार की बेगार करते थे।
कुल मिलाकर यदि यह कहा जाये कि भगवती सेन का काव्य साहित्यकारों की दृष्टि में एक स्वस्थ प्रसन्न समाज की तैयारी का काव्य है तो इसमें जरा भी अतिश्योक्ति नहीं है। भगवती सेन जीवन भर सामाजिक विदु्रपताओं पर कविता लिखते रहे। ग्राम सौंदर्य ने उनको अत्यधिक अभिभूत किया है। प्रकृति भी बार-बार उन्हें आकर्षित करती रही है। तभी तो ‘‘नदिया मरे पियास’’ और ‘‘देख रे आँखी सून रे कान’’ जैसी कृति में मोहक कविताएं आकार पा सकी हैं। इन कविताओं में भगवती सेन की अनुभूतियों का आवेग सहज ही देखा जा सकता है। कहना होगा कि बाहर-भीतर के इन तमाम द्वन्द्वों को चित्रित करने में भगवती सेन को कभी कोई कठिनाई नहीं हुई।
कवि कितना स्वच्छंद होता है, भगवती सेन इस तथ्य का एक अद्भुत मिशाल है कभी तो वे कालिदास की तरह अपने हृदय मेघ को अपनी प्रियतमा के पास भेजते हैं तो कभी अपने जीवन-साथी से अंत तक साथ निभाने का संकल्प भी करते हैं। भगवती सेन की ये अनुभूतियाँ भी सचमुच बड़ी मर्यादित और प्रेरणा-परक हैं।
दरअसल भगवती सेन का व्यक्तित्व कोई दुःख है ही नहीं। जनता का व्यापक दुःख ही शुरू से उन्हें व्यापता रहा है। और इसीलिए साम्यवादी विचारधारा पर आस्था रखने के कारण वे अपनी कविताओं में लाल पताकाएँ फहराते रहे हैं। चाहे महानदी का तट हो या गंगा का जल हो, भगवती सेन निष्ठापूर्वक इन सबको अपनी कविता का विषय बना लेते हैं और कहते हैं-
सिखोय बर नइ लागय/गरू गाय ल/बैरी ल हुमेले बर/बेरा आथे
भिड़ जाथे/अपन बानी बर/हमन तो/ मनखे आन
बेरा आ गे हे/ फेर हमन/काबर नइ सीखन/अनीत ल ढेले बर
भगवती सेन की कविताओं में व्यंग्य का पैनापन इसीलिए भी अधिक मुखर हुआ है, चूंकि छत्तीसगढ़ के गरीब मजदूर, किसान हमेशा से ही जमीदारों, सेठ, साहूकारों, राजनेताओं के अत्याचारों से पीड़ित रहा है। भगवती सेन के संवेदनशील कवि ने यह सब कुछ करीब से देखा और भोगा है। स्थिति चाहे आजादी के पहले की हो चाहे बाद की, भगवती सेन उसमंे कोई फर्क नहीं देखते। भारत माता तब भी दःुखी था, अब भी दुःखी है। श्रमिकों की दशा नहीं सुधर पाई है। अन्नदाता आज भी दाने-दाने के लिए तरस रहा है। निम्नवर्गीय बाबू हो चाहे अध्यापक, भगवती सेन इन सबके सुखद भविष्य के गीत गाते रहे हैं।
भगवती सेन अक्सर व्यक्तिगत नाम लेकर व्यंग्य करने से नहीं चूकते। गद्दीदार आलोचक इस प्रविŸिा को नकारते हैं। कई बार उनके आस्था-भेद पर भी खुसुर-फुसुर होती रहती है, लेकिन अभिव्यक्ति के मामले में भगवती सेन बहुत साफ है। वे किसी के बाप के नौकर नहीं हैं। वे एक ईमानदार कवि हैं और उनके कवि के कदम-कदम पर खतरे उठाकर भी सच बोलने का संकल्प लिया है। फिर सच बोलने वाले किसी कवि पर आरोप क्यों लगाया जाता है ? क्या इससे सच सुनने वालों की कमजोरी साबित नहीं होती ?
भगवती सेन निष्कपट कवि हैं। वे वर्ग-वैषम्य को मिटाना चाहते हैं। सही अर्थों में जनवादी होने का सारा श्रेय उनकी कविताओं को सहज ही दिया जा सकता है। भावना और चिंतन का ऐसा सुंदर तालमेल अन्यत्र कहीं पाना भी मुश्किल है।
भगवती सेन करनी और कथनी में भेद नहीं मानते। तमाम सामाजिक बुराईयों को दूर कर वे एक बेहतर जीवन की आकांक्षा रखते हैं। भगवती सेन इसी तरह जिए जागे और देश को जगाते रहे। हम सब उनके साथ हैं और उन्हीं की तरह हाथों में मशाल लेकर घर-घर को आलोकित करने के लिए कृत संकल्प है:-
जुग के संग रेंगे मं हवे भलाई सब के, खोजो नावा रद्दा, नवा जुग नवा अंजोर
अपने मुड़ पेल गोठ ल अब झन तानव जी, चेथी के आंखी ल, आगू म आनव जी
-डुमन लाल ध्रुव
इसे भी देखें- बहुआयामी जीवन संदर्भों के रचनाकार: नारायण लाल परमार