भरत बुलन्दी की कविताएँ

भाई और खाई

दीवारों पर तस्वीरों में भाई है।
दिल में लेकिन लंबी गहरी खाई है।।

बँटवारे में हमने सब कुछ बाँट लिया ।
आखिर किसके हिस्से बूढ़ी माईं है।।

उसकी नैया का भी हो पतवार कोई।
जिसने सब की नैया पार लगाई है।।

खुद जो भूखी रहकर हमें खिलाती थी।
लगती उसकी महंगी बहुत दवाई है।।

सतयुग द्वापर त्रेता तो सब बीत गए,
कलयुग तो अब लगता एक कसाई है।।

बेटियों की शौर्य-गाथा

साहस शौर्य शक्ति की ,खजाना है ये बेटियाँ।
सुन्दरता में ऐश्वर्या ,लता का गाना है ये बेटियाँ।।
सफलता के शिखर, हिमालय तक छू आई।
करुणा दया के सागर ,मदर टेरेसा हो आई।।

इंदिरा बनकर विश्व में ,नारी शक्ति को जगा दिया।
बेटियॉं नहीं कमजोर किसी से,ये दुनिया को बता दिया ।।
सन् ५७ में लक्ष्मीबाई के, पौरुष सबने देखा है।
मातृभूमि प्रति प्रेम देख ,अंग्रेजों ने मत्था टेका है।
सावित्री बन यम से भी वो,पति के प्राण हर लाई।
कर्मा मीरा शबरी अहिल्या,भक्त प्रवीणा कहलाई।।
जहाँ पुरुष पति न बने,वो राष्ट्रपति बन जाती है।
प्रतिभा ऐसी ये पुरुषों संग, सीमा पर तन जाती है।।

तब भी ये बेटी है नारी है, कभी न हिम्मत हारी है।
इतिहास गवाह है अब भी ,ये देवों पर भी भारी है।।
मिला जहाँ सम्मान इसे,वो घर स्वर्ग हो जाता है।
बेटी गर अपमानित होती,फिर घर नर्क हो जाता है।।

शीला माया ममता जयललिता,सत्ता के सिरमौर बनी ।
सरोज पांडेय छ.ग.से, गौरवशाली महापौर बनी।।
रानी अवन्ति मिनी माता के,प्रसिद्धि के कई कारण हैं।
त्याग शौर्य विद्वता के जाने,कितने और उदाहरण हैं।।

श्रेया घोषाल कर्णम मल्लेश्वरी,ने जौहर दिखलाए।
बेटी होने का परचम, अखिल विश्व में फहराये ।।
पावनता पर दाग लगाते, वहसी क्यों नहीं मरता है।
बुलन्दी क्यों बेटियों के यश, गाते मन नहीं भरता है।।

जिनकी नजरों में माँ बेटी, और नारी का सम्मान नहीं।
वहसी पापी नर पशु,जिसे रिश्तों की पहचान नहीं।।
मानव तन धर फिरे भेंडिये, पशु ही है इंसान नहीं।।

अब की बार दीवाली में

एक दीप जला दो दिल से,
अब की बार दीवाली में।
जिसका दीपक बुझ गया हो,
सरहद की रखवाली में।।

दीप जले अपने आँगन में,
उनके घर भी उजियाला हो।
भोजन को बैठो ये याद रहे,
उनके हाथों भी निवाला हो।।
मुजलिम की मुफलिसी न भूलो,
तुम अपनी खुशहाली में।
जिसका दीपक बुझ गया हो,
सरहद की रखवाली में।।

कोई पुत्र पिता पति भाई
तो कोई चोंटी खोया है।
कोई कुछ भी कहे कहीं भी
सच उसने रोटी खोया है।।
बेटी की पढ़ाई बापू की दवाई,
अब करे कौन बदहाली में।
जिसका दीपक बुझ गया हो,
सरहद की रखवाली में।।

अभावों में भी भाव भरा
यूँ ही सदा मुस्काने वाले।
वे जो हलधर हैं अन्नदाता,
सब की भूख मिटाने वाले।।
जिनकी मेहनत की मोती,
सजती है सबकी थाली में।
जिसका दीपक बुझ गया हो,
सरहद की रखवाली में।।

कमीशन का दस्तूर

नेता जी पाँच साल शासन किया।
सड़क बनाने का आश्वासन दिया।।

खुशियों से बस्ती झूम गए।
नेता जी मस्ती में झूम गए।।

सड़क बनकर तैयार हुई।
वाहनों की तेज रफ्तार हुई।।

उड़ रही अब देखो धूल।
जैसे होली का हो धूर।।

मौसम आया बरसात का।
या मौत के सौगात का।।

सड़कों में पड़ गए हैं गड्ढे।
पानी भरे मेंढक है गड्ढे।।

डामर पी गए ठेकेदार।
जनता सहती गिट्टी की मार।।

सड़कें दे रही मौत को न्योता।
सड़कें हो गई जैसे का तैसा।।

एक गिरा डबरे के उपर।
लग रहा था देशी सुअर।।

झट से बुलवाया 108।
वो तो था नेता का ठाठ।।

फूटे माथ और टूटे हाथ।
मुँह से गायब सारे दाँत।।

इतना ही नहीं पैर भी टूटे।
नेताजी के किस्मत फूटे।।

पड़ा हुआ है टूटी खाट।
नींद नहीं अब सारी रात।।

डाक्टर रह गए छुट्टी में।
मरीज की जान है मुट्ठी में।।

पता चला अब तीन दिन बाद।
मरीज था नेता का औलाद।।

देख सड़क सब देते गाली।
नेता खाते पैसा खाली।।

कोई और मरे तो असर कहाँ।
अब ढूँढ रहे हैं कसर कहाँ।।

कान्ट्रेक्टर की मिटींग बिठाई।
यह सड़क किसने बनवाई।।

तब बिफरे वो ठेकेदार।
चोरों के तुम हो सरदार।।

डामर के पैसे तुमने खाए।
तेल से रोड हमने बनवाए।।

अगर न पैसे खाए होते।
औलाद अपने न गँवाए होते।।

ये है कमीशन का दस्तूर।
इसमें अपना क्या कसूर।।

पर्यावरण दिवस

चुनाव से हारे नेता को, एक बात बढ़िया सूझा।
हरित क्रांति लाने देश में, वृक्षारोपण को जूझा।।

गांँव गाँव शहर-शहर, पर्यावरण का लहर चला।
हमको नेताजी के अन्तर्मन का,जब खबर चला।।

हमने पूछा नेताजी से, वृक्षारोपण से क्या होगा?
हरित क्रांति कामिन लकड़ी,वर्षा शुद्ध हवा होगा।।

वृक्षों की हरियाली से,जल स्तर कायम होगा।
बहु रोजगार और घर,सुंदर सुखद मौसम होगा।।

फूल फल मिलेंगे मीठे,कचरों से मिलेंगे खाद।
क्या क्या लाभ गिनाऊँ, जीवन होगा आबाद।।

सूखे सड़े लकड़ी से, भ्रष्टों के चिता जलाएंगे।
पके और सार लकड़ी से,कुर्सी लाख बनाएंगे।।

कुर्सी पर जाति वंश के,सब अपनों को लायेंगे।
महामहिम बन दिल्ली के,कुर्सी पर शोभा पाएंगे।।

घर की मुर्गी दाल बराबर

किरोड़ीमल कंगाल बराबर,महंगाई की चाल बराबर।
अब तो लगता है हमको, घर की मुर्गी दाल बराबर ।।

डाल-डाल पर बैठे पाए, सब उल्लू के पट्ठे हैं।
जिन हाथों में कलम चाहिए, उन हाथों में कट्टे हैं ।।

लोभ के दाने हैं बिखराए, सियासी है चाल बराबर।
अब तो लगता है हमको, घर की मुर्गी दाल बराबर।।

दिन दोगुनी रात चौगुनी, महंगाई की चाल मियाँ।
अपनी पहुँच से लगता है,अब तो रोटी दाल मियाँ।।
महंगाई रफ्तार पकड़ ली,ज्यों घोड़े की चाल बराबर।
अब तो लगता है हमको, घर की मुर्गी दाल बराबर।।

मिलकर सपने संग तुम्हारे,गढ़ने को तैयार हैं हम।
अच्छे दिन की बाधाओं से,लड़ने को तैयार हैं हम।।

समय चक्र कहता है देखो,रहता नहीं ये काल बराबर।
अब तो लगता है हमको, घर की मुर्गी दाल बराबर।।

हमें चाहिए वफादारी की,मेहनत की दो टुक रोटी।
देश के खातिर चाहे कट जाए,जिस्म की बोटी बोटी।।
ललकार बुलन्दी की देखो,चलो चलें एक चाल बराबर।
अब तो लगता है हमको, घर की मुर्गी दाल बराबर।।

वीर देश की माटी

उठो जवानों ……… जागो रे साथी …… ।2।
जगवंदन कर तिलक करो,ये वीर देश की माटी।।

तेरो मेहनत के आगे, झुकी है अन्नकुमारी ।
इस मिट्टी की रक्षा खातिर,लगे हैं पहरेदारी।।
सैनिक पकड़े बंदुकें और,कृषक पकड़ लें लाठी
जगवंदन कर तिलक करो,………….

श्रृंगार करो इस धरा वधु की,दरिया हरी बिछाकर।
नन्हें हाथों धरा पे लाओ,सीधा स्वर्ग उठाकर।।
सिर पर कफन बांध लो भाई, इज्जत की परिपाटी।
जगवंदन कर तिलक करो,……………….

शीश न कभी झुकाएंगे हम,अन्यायी के आगे।
खतरों से हम सावधान हैं,दुश्मन से क्यों भागें।।
पैर खींच दुश्मन को गिराए,फोड़ दें उनकी आँखी
जगवंदन कर तिलक कऱो,ये वीर देश की माटी।।

             कवि भरत "बुलन्दी"
               896495603

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