भारत का जनजातीय समाज: साहित्य और संस्कृति

भारत का जनजातीय समाज:- साहित्य और संस्कृति

डॉ. अशोक आकाश

bharat ka janjati samaj

भूमिका

भारतीय संस्कृति की मूल विशिष्टता यहां की सांस्कृतिक विविधता है । विभिन्न सभ्यता एवं संस्कृति के आपसी मेलजोल से इनकी विशेषता परिलक्षित होती है। विविधताओं के बावजूद एकीकरण एवं सांस्कृतिक मेल मिलाप से इनकी संस्कृति, शिक्षा, भाषा, वेशभूषा एवं खानपान में समय के साथ बहुत बदलाव हुआ । विभिन्न प्रदेशों में निवासरत जनजातियॉ भारतीय संस्कृति को विशिष्ट संस्कृति का दर्जा देती हैं । यहाँ विभिन्न प्रदेशों में निवासरत जनजातीय समाज में संथाल,असुर, बैगा, बंजारा, बिरहोर, गोंड, खोड़, खरिया, मुंडा, भूमिज, उरांव, कोरवा, कोल, भील, मीणा, नागा, खाँसी,गरासिया, नट, राठवा आदि जनजातियां पाई जाती है, जो सदियों से सुदूर वनांचल में निवासरत है । भारत के अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग जनजाति की बहुलता है। भले ही यह जनजातियाँ एक दूसरे की संस्कृति से अपरिचित हों लेकिन सभी जनजातियों की मूल में प्रकृति है । प्रकृति पूजा की संस्कृति को अंगीकार करते आदिकाल से जंगलों में निवासरत यह जनजातियां अशिक्षा के बावजूद भी वन एवं वन्य जीवो के संरक्षक के रूप में जाने पहचाने जाते हैं।

भारत में जनजातीय समाज की अवधारणा

सुदूर वनांचल में आदिमयुग से निवासरत जनजातीय समुदाय के प्राथमिक मूलनिवासी को आदिवासी कहा जाता है। हमारे देश में 10 करोड़ के आसपास का बड़ा हिस्सा आदिवासियों का है,जो कि यहां के मूल निवासी हैं। पुरातन ग्रंथों में आदिवासियों को अत्विका कहा गया है। महात्मा गांधी ने आदिवासियों को गिरिजन यानी पहाड़ों पर रहने वाले लोग का नाम दिया। भारतीय संविधान में इनके लिए अनुसूचित जनजाति का उपयोग किया गया है। जनजातीय संस्कृति के पोषक संवाहक ये लोग पहाड़ों वनों पर आश्रित जीवन जीते इनके रक्षक एवं मूल निवासी माने जाते हैं। यह वह समुदाय है जो अपनी पृथक जीवनशैली से पहचाने जाते हैं । वन्य संस्कृति धारण किये इन समूहों की अपनी मान्यता है, इन्हें एक तरह से वनवासी भी कह सकते हैं क्योंकि यह जनजातियां वनों के आसपास, वनों पर आश्रित जीवन जीते हैं । जंगल के विभिन्न वृक्षों को देवतुल्य मान पूजन करना इनकी संस्कृति है। पहाड़ों,नदियों और वृक्षों के झुरमुट इनके पूजन स्थल होते हैं । विभिन्न सुअवसरों में इन्हीं के इर्द-गिर्द इनके समारोह होते हैं, जिनमें जन्म-विवाह से लेकर मृतक संस्कार तक शामिल है, अर्थात जन्म से लेकर मृत्यु तक के सारे संस्कारों में सभी जनजातीय संस्कृति में कहीं न कहीं समानता पायी जाती है। यह जनजातियां कृषि पशुपालन एवं वनोपज से जीविकोपार्जन करती हैं।

जनजातीय समाज एवंं संस्कृति

भारत में जनजातीय समाज एक संगठित समाज है । इनकी संगठित, सुव्यवस्थित एवं परिपुष्ट सामाजिक परिपाटियां अन्य समाज के लिये प्रेरणास्रोत होते हैं। इनकी सभ्यता मुख्यतः नदी, पहाड़ एवं वनों पर आधारित संस्कृति से परिपुष्ट हुआ है। यह जनजातियां दो प्रकार के होते हैं पहला स्थायी निवासी और दूसरा घुमंतू । स्थायी निवासी जनजातियां मूलतः स्थान विशेष पर रहकर ही अपनी आजीविका चलाते हैं जबकि घुमंतू जनजातियाँ घूम घूम कर अपना जीवन यापन करती हैं और बारीश पूर्व निश्चित समय में अपने मूल निवास में आ जाती हैं। घुमंतू जनजातियॉ व्यापार, मनोरंजन, शिकार, भिक्षाटन, ठग एवं लुटेरों के रूप में जानी जाती हैं। स्थायी निवासी जनजातियां बहुत मेहनती ईमानदार दृढ़निश्चयी और दूरदर्शी होते हैं । घुमंतू जनजातियों में भविष्यवाणी, हस्तरेखा ज्ञान, ग्रह नक्षत्र एवं मौसम के आकलन का विशेष ज्ञान होता है, जो कि वैज्ञानिकों को चकित कर देता है। सुखा,अतिवृष्टि, महामारी पर समय पूर्व आंकलन की इनकी क्षमता निश्चित ही विस्मयकारी होता है । अकाल, अतिवृष्टि, भूकम्प, महामारी को ये जनजातीय समाज दैवी प्रकोप मानते हैं और इनका त्यौहार मना कर सामुदायिक पहल से प्रकृति के विरुद्ध किए अपने कृत्य के प्रति क्षमा मांग लेते हैं । इस तरह यह जनजातियां प्रकृति के करीब और साथ रहकर जीवन जीते हैं ।अधिकतर जनजातियां मांसाहारी होते हैं, भेड़, बकरी, कुत्ता, गाय, भैंस इनके मित्र होते हैं और बकरा, मछली, मुर्गा पर्व के मुख्य आहार । किसी भी प्रकार की विपत्तियॉ इन्हें देवी प्रकोप लगता है और इसी विश्वास के चलते ये दैवस्थलों में बलि देने से तनिक भी नहीं हिचकते। इनकी खुशियों के पल बलि से प्रारंभ होती है और बलि पर समाप्त। किसी भी मांगलिक कार्यक्रम को निर्विघ्नं संपादित करने का दैवनिवेदन बलि से प्रारंभ और जीवन में किसी भी प्रकार की विघ्न पर बलि देकर प्रयश्चित ! यानी बलि प्रथा इनकी मूल प्रथा है। बलि अक्सर बकरा मुर्गा या भैंसों का ही दिया जाता है । आज भी यह प्रथा देवस्थलों में खुलेआम निभाई जाती है। इनकी मान्यता है कि पशु बलि से देवता प्रसन्न होते हैं और मनचाही मुरादें पूरी होती हैं।

जनजातीय आजीविका के साधन

कृषि जनजातीय आजीविका के मुख्य साधन होते हैं इनमें वर्षाजनित खेती मुख्य है। धान, कोदो, कुटकी, मक्का, गेहूं, चना आदि दलहन एवं तिलहन की खेती के साथ पशुपालन इनकी आजीविका के सहायक साधन होते हैं । वनोपज जैसे लाख, गोंद, तेंदूपत्ता, महुआ औषधीय जड़ी बूटियां जनजातियों के लिए अतिरिक्त आय के स्रोत हैं। वर्ष भर सतत् सक्रिय इस समाज में काष्ठ-शिल्प मूर्ति-शिल्प, लोक-कला, लोकनृत्य से इनकी विशिष्ट पहचान है,जिनसे प्राप्त आय से इनकी आजीविका चलती है।

जनजातीय मनोरंजन के साधन

भारत के भिन्न प्रदेशों में विभिन्न जनजातियॉ निवासरत् है, सबकी अलग सांस्कृतिक विशेषता है। प्रायोजित पर्वों में होने वाले लोकनृत्य, लोकगीत, लोक नाट्य इनके मनोरंजन के साधन है। सबकी अपनी अलग जीवन शैली, नृत्य,गीत एवं विशिष्टता है । इनमें मणिपुर में पुंगचोलम, मिजोरम में चेराव, अरुणाचल प्रदेश में जूजू जा जा, नागालैंड में राहोसी नृत्य, छत्तीसगढ़ में रीलो, उत्तर प्रदेश में अखड़ा अपने आप में समृद्ध लोकनृत्य है, जो भारतीय संस्कृति में विभिन्न रंगों का समावेश कर जनजातीय लोकनृत्य, लोकगीत, लोकपरंपरा, लोककला एवं साहित्य के माध्यम से मानवता को संरक्षित करने का सुदृढ़ संदेश देती हैं। अब लोगों ने इन जनजातीय संस्कृति की विशेषताओं को प्रदर्शित कर धन अर्जन का माध्यम बना लिया है।इससे इन जनजातीय समाज को कुछ फायदे हुए तो कुछ नुकसान भी उठाना पड़ रहा है। इन जनजातीय लोक संस्कृति की नकल कर अन्य व्यवसायी कलाकारों द्वारा विकृत रूप में प्रदर्शित करने की होड़ से जनजातीय संस्कृति को नुकसान हो रहा है।

जनजातीय भाषा, साहित्य एवं पौराणिक मान्यताएं

हिन्दू पौराणिक धर्म ग्रंथों में कई जनजातियों का वर्णन मिलता है, रामायण के रचयिता महान् ज्योतिषाचार्य वाल्मीकि स्वयं जनजाति वर्ग से आते थे जो राहगीरों को लूट कर अपना परिवार पालते थे सप्तऋषियों से प्राप्त ज्ञान ने उन्हें राम नाम की दीक्षा दी, मरा मरा जपते विद्वता को प्राप्त हो वाल्मीकि महर्षि बन गए । भारतीय जनजातीय साहित्य में वेद पुराणों के रचयिता वेदव्यास भी जनजातीय समुदाय से आते थे जिन्हें भगवान का दर्जा प्राप्त है । विदुर नीति जग विख्यात है जिसे दासी पुत्र विदुर ने जन कल्याण एवं जग कल्याण हेतु आमजन को समर्पित किया था । रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास ने शबरी की राम भक्ति और कोल भीलों की भगवान राम के प्रति आसक्ति एवं समर्पण का वर्णन किया है, ऐसे कई उदाहरण हैं जिनका जनजातीय समुदायों की पौराणिक कथाओं में वर्णन मिलता है इससे यह साबित हो जाता है कि आदिकाल से यह जनजातियां सेवा त्याग समर्पण मानवता और प्रकृति प्रेम के प्रति अनुराग रखते हैं ।भारत में 90 आदिवासी भाषाएं हैं जिनमें कुकना, भीली, गोंडी, मिजो, मारो, संथाली, किन्नौरी, गढ़वाली, देहवाली, वारली, पौड़ी आदि भाषाओं में सैकड़ों साहित्य समाहित है ।

भारत में इन जनजातियां को प्रायः आदिवासी ही कहा जाता है यह प्रमुख रूप से उड़ीसा मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ राजस्थान में बहुसंख्यक समुदाय में निवासरत है,तो गुजरात महाराष्ट्र आंध्र प्रदेश बिहार झारखंड पश्चिम बंगाल में अल्पसंख्यक के रूप में इनकी गिनती की गई है, जबकि पूर्वोत्तर राज्य मिजोरम में बहुसंख्यक रूप में इनकी पहचान है । भारतीय संविधान की पांचवी अनुसूची इन्हें विशेष दर्जा देकर इनकी जीवन शैली ऊंचा उठाने का उपक्रम देती है ।

जनजातियों का आधुनिकीकरण

देश में हुए हरित क्रांति और श्वेत क्रांति के कारण छोटे बड़े आदिवासी समूह आधुनिकीकरण के शिकार हो पारिस्थितिक परिवर्तन को प्राप्त हुए । व्यवसायिक वानिकी एवं गहन कृषि के कारण जंगल कट गए, उच्च गुणवत्ता की सड़कों, पुलों एवं इमारतों के निर्माण में पहाड़ धराशाई हो खाई में बदल गए । कोयला लोहा आदि खनिजों के दोहन के कारण जनजातियों को अपने निवास स्थान से अन्यत्र पलायन करना पड़ा, इससे इनकी जनजातीय विशेषताओं का पतन हो गया। समूह में निवास करने वाले यह जनजातीय वर्ग पृथक झुंड में अपनी विशिष्टता कायम रखने का संघर्ष आज भी कर रहे हैं । आज जनजातीय वर्गों में शिक्षा के प्रति चेतना का ज्वार उमड़ पड़ा है। आजादी के बाद संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकार के फलस्वरूप इनके विकास की मजबूत नींव रखी गयी। 60 एवं 70 के दशक में इंदिरा गांधी शासनकाल जनजाति शैक्षणिक चेतना का काल कहा जा सकता है जिनमें 20 सूत्रीय कार्यक्रम दलित आदिवासी चेतना के केंद्र बिंदु रहे। 80 एवं 90 के दशक में हुई तकनीकी शिक्षा क्रांति से जोड़कर आदिवासियों को मिली तकनीकी सहयोग ने जनजातीय वर्गों के लिए उच्च शिक्षा के द्वार खोल दिए,फलतः प्रशासनिक मुख्यधारा से जुड़ कर हजारों आदिवासी परिवार उच्च पदों को सुशोभित कर राजनीतिक एवं प्रशासनिक पकड़ बनाए रखने में सफल हुए।

जनजातीय समाज की लोक प्रवृत्ति

सभी जनजातीय समाज उनकी लोक प्रवृत्ति से पहचाने जाते हैं यह लोक-प्रवृत्तियां 5 भागों में विभक्त किए जा सकते हैं
(1) भौगोलिक एकाकीपन
(2) विशिष्ट संस्कृति
(3) पिछड़ापन
(4) संकोची स्वभाव
(5)आदिम जाति के लक्षण
इन सभी लोकप्रवृत्तियों से जनजाति समाज की सहज ही पहचान की जा सकती है।

जनजातीय आहार एवं व्यवहार

सभी जातियों की अपनी जीवनशैली होती है विभिन्न रस्मो रिवाज एवं पर्वों में बनने वाले भोज्य पदार्थ सभी राज्यों में अलग होते हैं। छत्तीसगढ़ में बासी छत्तीसगढ़िया जनजाति का प्रतीक है यह सालभर खाए जाने वाले सामान्य भोज्य पदार्थ है। पर्व विशेष में बनने वाले भोज्य पदार्थों में मांस की अधिकता होती है इनमें मछली मुर्गा सुअर बकरा प्रमुख है। शिकारी जनजाति के लोग बनबिलाव, गिलहरी, कौआ, गोइहा, कोड़कोड़ी, पड़की आदि चिड़ियों का शिकार कर उनसे धनराशि अर्जित करते हैं और यही उनके भोजन का अहम हिस्सा होते हैं। कुछ जनजातियों में कुत्ता सांप लाल चीटियां भी इन भोज्य पदार्थों में शामिल होते हैं । चावल दाल अन्य सर्वत्र उपलब्ध भोज्य पदार्थ के साथ सूखी मछली आंध्र प्रदेश एवं उड़ीसा के जनजातियों के मुख्य भोजन होते हैं। मणिपुर में मछलीकरी, पताल चटनी, भात, चिकनकरी, कुलथी की दाल, असम में चावल, मसूर दाल केला फूल की भजिया, जलेबी काले तिल की चटनी जनजातियों के पसंदीदा भोजन है । कुछ जनजातियों में भिंडी, लौकी, ककड़ी, मौसमी फल एवं सलाद आदि शुद्ध शाकाहारी भोजन भी खाए जाते हैं । बैगन भरता, महुआ लड्डू, महुआ रोटी, चिकन करी, छत्तीसगढ़ के मुरिया जनजाति के पारंपरिक व्यंजन हैं झारखंड के उराव जनजाति के लोग भी छत्तीसगढ़ी जनजाति की सभ्यता संस्कृति से संबंधित जीवन जीते हैं। स्वाद आधारित भोजन के साथ नशा करना जनजातियों की बड़ी कमजोरी है जिसके कारण इनकी सभ्यता संस्कृति का समुचित विकास नहीं हो पाया। सभी जनजातियों में शराब, सल्फी, ताड़ी, बीड़ी, तम्बाकू,गांजा आदि नशा इनकी संस्कृति में शामिल हैं, सभी उत्सव पीने और खाने के बगैर पूरी ही नहीं होती। सभी जनजातीय समाज की गरीबी के बड़े और महत्वपूर्ण कारण विभिन्न उत्सवों में अनापशनाप खर्च कर मांस एवं मद्यपान है,जिसने आदिवासियों की उन्नतिपथ में बाधक बनकर अड़ा हुआ है।

जनजातीय समाज में स्त्रियों की स्थिति

वैसे तो सारे जनजाति समाज पुरुष प्रधान है लेकिन इनके पूजन स्थल में देवियों का प्रमुख स्थान रहता है, इससे यह ज्ञात होता है कि जनजाति समाज में नारी सम्मान का विशिष्ट स्थान है । इनके कई त्योहारों में नारी सम्मान की विशेषता रहती है लेकिन कहीं-कहीं देव स्थलों में वयस्क स्त्रियों का प्रवेश वर्जित किया गया है, इसके पीछे पुरातन मान्यता का हावी होना माना जा सकता है। उद्योग-धंधा,शिक्षा, स्वास्थ्य एवं रोजगार के क्षेत्र में आज इनकी बड़ी भूमिका है समय के साथ इनके जीवनचक्र में भी परिवर्तन हुआ है। आज ये जनजाति वर्ग समाज की मुख्यधारा का नेतृत्व कर नये कीर्तिमान गढ़ रहे हैं। बड़े बड़े प्रशासनिक राजनीतिक एवं सामाजिक पदों को सुशोभित कर विश्व में अपना नाम रौशन कर रहे हैं। भारतीय संविधान के शीर्ष पद राष्ट्रपति के पद पर विराजमान विराट नेत्री द्रौपदी मुर्मू जनजातीय समाज के विकसित समाज होने का सबसे सटीक उदाहरण है। जिस देश में जनजातीय समुदाय की महिला को बड़ा पद मिल जाय, उस देश की जनजातीय संस्कृति की परिपुष्टि का बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है।

कुल मिलाकर देश की राजनैतिक सामाजिक एवं आर्थिक उन्नति में जनजातीय समुदाय की लगन मेहनत का बड़ा हाथ है तभी हम विश्व के विकसित देशों से नजरों से नजर मिलाकर बात कर पा रहे हैं। आगे हमें और भी बड़े मुकाम तय करने हैं।

लेखक
डॉ.अशोक आकाश
ग्राम कोहंगाटोला पो. ज.सॉकरा तह. जिला बालोद छत्तीसगढ़
491226
मोबाइल नंबर 9755889199
Email – ashokakash1967&gmail.com

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