भाषा : एक समस्या अथवा समाधान,मेरे अनुभव, मेरे दृष्टिकोण-डॉ. अर्जुन दुबे

बात उन दिनों की है जब मैं 1970 में  आठवीं कक्षा  उत्तीर्ण करके 9 वीं कक्षा में उ. प्र. के देवरिया शहर में S S B S Inter College जो बाद में S S B L Inter College हो गया में पढ़ने गया था। उसी समय अंग्रेजी हटाओ का जबरदस्त मुहिम चला था; अधिकांश मुहिम स्कूलों और कालेजों से ही शुरू होते हैं। अंग्रेजी में लिखे पोस्टर फाड़ कर नष्ट करने का अभियान चला था। मेरे आलेख में अंग्रेजी और उर्दू शब्दो की प्रचुरता है। 

मेरी शिक्षा हिंदी माध्यम स्कूल में ही हुई है। अंग्रेजी तो मैंने कक्षा 6 से लिखना पढ़ना शुरू किया था, मैं ही क्यों सभी हिंदी माध्यम में पढ़ने वाले विद्यार्थी अंग्रेजी इसी कक्षा से पढना शुरू करते थे। आज तो बच्चे प्राइमरी स्कूल से ही अंग्रेजी वर्णमाला लिखते हैं, शब्दों को पढते हैं और बोलने भी लगते हैं। 

अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने वाले बच्चे ,चूंकि सभी विषय अंग्रेजी भाषा में लिखे होते हैं , अंग्रेजी में पढते पढते उनकी अंग्रेजी तुलनात्मक रुप से हिंदी माध्यम वालों से बेहतर हो जाती है। अंग्रेजी बोलने से उनके अभिभावक भी गर्व महसूस करते हैं, क्यों न करें अंग्रेजी के कारण अभिजात्य बन जाते हैं। अंग्रेजी हुकूमत में, मैंने सुना था कि, कोई अंग्रेजी बोला नहीं कि उसे रेलवे में नौकरी मिल गई। 

आज भी अंग्रेजी भाषा में पारंगत होने पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों में चयनित होने की संभावना बढ़ जाती है बशर्ते कि विषय ज्ञान ठीक ठाक रहे! 

मैं अपनी बात कर रहा था। मेरी अंग्रेजी औसत दर्जे की थी फिर भी पढते समय अंग्रेजी विषय लेकर पढा क्योंकि अंग्रेजी नहीं पढा तो क्या पढा, विशेषकर आर्ट्स बिषयों के अन्तर्गत! इसीलिए मैंने स्नातक में भी अंग्रेजी पढना जारी रखा। एम. ए. एक विषय में करते हैं क्योंकि यह मान लिया जाता है कि विद्यार्थी उस विषय में पारंगत हो गया है, कितना हुआ इसका मूल्यांकन करना सरल नहीं है। 

चूंकि अंग्रेजी अवसर की भाषा बन गयी है, मुझे लगा कि इसकी पढाई से नौकरी मिलनी पक्की है। अतः मैंने अंग्रेजी विषय में ही एम. ए. किया और तदुपरान्त बिना नौकरी किये नियमित शोध छात्र के रुप में पी एच डी कर लिया तदुपरान्त नौकरी करते हुए प्रोफेसर के रूप में सेवा निवृत्त हुआ। 

जब मैं इस विषय को भाषा के रूप में आकलन करता हूँ तो पाता हूँ कि जितना अधिक इस भाषा का विरोध हुआ उतना ही यह सशक्त हो गया। 

आज शिक्षा क्षेत्र में सरकारी बनाम प्राइवेट संस्थानों में पढने के लिए प्राथमिकता प्राइवेट विद्यालय हैं, किंतु नौकरी के लिए सरकारी! सरकारी वाले भी अपने बच्चों को सरकारी में न पढाकर प्राइवेट में ही पढाते हैं। शासक वर्ग तो और आगे है वह अपने बच्चों को सीधे यूरोप में अथवा अमेरिका में पढाता है। 

जब कभी राजनीति के तहत एक भाषा विशेषत: हिंदी की पैरवी हुई नहीं कि देश के दक्षिणी भूभाग, पूर्वोत्तर क्षेत्रों में विरोध शुरू। अंग्रेजी के प्रति कटुता नहीं दिखाई देती है क्योंकि यह ऐसा सेतु बन गया है जिस पर चलकर चाहे पैदल अथवा गाड़ी/रेलगाड़ी से एक छोर से दूसरे छोर पर सरलता से चले जाते हैं। 

ऐसा नहीं है कि आप केवल सेतु पर चलते जाते हैं जब आप आगे चलकर संवाद प्रारंभ करते हैं तो, वह भी अपनों के बीच, अपनी माटी की ही बोली बोलते हैं। दक्षिण भाग हो, पूरब में बंगाल, आसाम आदि क्षेत्र हों, औपचारिक अवसरों के इतर माटी की ही बोली सुनने को मिलती है। महाराष्ट्र में भले ही देवनागरी लिपि में लोग लिखते हैं लेकिन मराठी नहीं बोलने पर समस्या खड़ी हो जाती है। 

मैं आज से लगभग 25 बरस पहले मद्रास में अन्ना यूनिवर्सिटी में एक अंतर्राष्ट्रीय कान्फ्रेन्स में भाग लेने गया था। ठहरा था आइ आइ टी के गेस्टहाउस में। वहाँ तो दिक्कत नहीं हुई क्योंकि अंग्रेजी जो सेतु का काम कर रही थी किंतु वापस आने में, वह भी मात्र रेलवे स्टेशन तक, यह सेतु भी लग रहा था कि टूट गया है। हिंदी बोलने पर जबाब नही, अंग्रेजी सबको आती नही थी, काफी मशक्कत के बाद रेलवे स्टेशन पहुँच गया। ट्रेन आने में 4 घंटे बाकी था, तो मैंने विश्रामालय में आराम करने के लिए एक महिला कर्मचारी से अंग्रेजी भाषा में पूछा, उसने स्थान तो दे दिया किंतु गुनगुनाने लगी ‘मुझे तुमसे प्यार कितना हम नहीं जानते’। 

तब मुझे लगा कि संगीत का सेतु तो हिंदी है। फिल्मों ने संगीत के माध्यम से सर्वत्र सेतु बनाया है लेकिन विगत कुछ दशकों से विचित्र संगीत का चलन हो गया है। आधा से अधिक अंग्रेजी शब्द और फिर अन्य! साक्षात्कार तो अंग्रेजी में ही देते हैं अधिकतर फिल्मी कलाकार। पता नहीं वे सारगर्भित हिंदी समझ पाते हैं अथवा नहीं। 

शोध छात्र के रूप में मुझे गोरखपुर विश्वविद्यालय में एक प्रतिष्ठित नेता जी द्वारा विद्यार्थियों को संबोधन कार्य क्रम में उनको सुनने का अवसर मिला था ;वे अंग्रेजी के विरोध में अपने प्रवचन जारी किये हुए थे लेकिन अंग्रेजी शब्दों से परहेज नहीं कर पा रहे थे । तब एक प्रोफेसर ने उन्हें टोक दिया और उन्हें निरूत्तर कर दिया। 

मुझे आज से 20 बर्ष पहले संघ लोक सेवा आयोग द्वारा  प्रोफेसर पद के लिए साक्षात्कार पत्र मिला। चूंकि आयोग द्वारा यात्रा किराया देने का भी बात उस साक्षात्कार पत्र में उल्लेख था अत: मैंने सोचा साक्षात्कार दे देता हूँ। चार अभ्यर्थियों को बुलाया गया था। मेरा अंतिम नंबर था। साक्षात्कार मेरी दृष्टि में संतोषजनक था। उनके प्रश्न अंग्रेजी भाषा पर ही थे। क्यों अंग्रेजी भारत में तो बोली, पढी लिखी  जाती है? क्यों ,कब और कैसे यह संवाद की भाषा बन गयी? मैंने बताया कि अंग्रेजी हुकूमत ने लगभग दो सौ बर्षो तक शासन किया था, इसलिए अंग्रेजी भाषा का भी प्रयोग शिक्षा क्षेत्र और नौकरी के क्षेत्रों में बढता गया। तब उनमें एक सदस्य ने कहा कि मुगल तो तीन सौ से अधिक सालों तक शासन किये थे किंतु उर्दू नहीं बन सकी जिसे स्वेच्छा से स्वीकार किया गया हो।यद्यपि उर्दू की लिपि नस्तालिक ( अरबी-फारसी का मिश्रण) है फिर भी संबाद  तो इसमें खूब होता है।उन्होंने कहा कि कोई अन्य कारण बतावें! कोई राजनीतिक कारण! अमेरिका का विश्व राजनीति में प्रभुत्व। वहाँ की भाषा अंग्रेजी ही है। हमारे यहाँ अमेरिका में जाकर नौकरी करने का बहुत बड़ा आकर्षण है। ऐसी परिस्थिति में अंग्रेजी भाषा तो आनी ही चाहिए। जहाँ तक टेक्नोलॉजी की बात है, अनेक देशों की बहुत उन्नत टेक्नोलॉजी है फिर भी वह आकर्षण कहाँ जो अमेरिका जाने में है भले ही डंकी रूट से जाना पड़े। अब वहाँ भी जाने में प्रतिबंध तो नहीं लेकिन बड़ी कठिन है डगर पनघट की। जिस समाज और देश में प्रतिबंध जितना अधिक होता है, मेरे मत में, भाषा सबसे अधिक प्रभावित होती है। संवाद की भाषा को lingua franca  (संपर्क की भाषा) के रूप में सशक्त होना ही चाहिए तभी वैश्विक पटल पर इसको सरलता से अंगीकार किया जा सकता है! 

मेरा प्रश्न भाषा एक समस्या अथवा समाधान है। चाहे आप बोली बोलते हैं अथवा बोली को लिखते हैं, भाषा के बिना न तो समाज में मूल्य स्थापित कर सकते हैं और न ही सौंदर्य बोध!भाषा जितनी ही अधिक सर्व ग्राह्य होगी उतनी ही अधिक पुष्पित, पल्लवित और फलित होगी! 

डॉ. अर्जुन दुबे
सेवानिवृत्त अंग्रेजी प्रोफेसर,
मदन मोहन मालवीय प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय,
गोरखपुर (यू.पी.) 273010 भारत
फोन. 9450886113

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