लघु व्‍यंग्‍य आलेख: चर्चा में-अर्जुन दूबे

लघु व्‍यंग्‍य आलेख: चर्चा में

-अर्जुन दूबे

समसमायिक विषय पर जो विषय चर्चा में है उस पर डॉ अर्जुन दूबे चुटिले अंदाज लघु व्‍यंग्‍य आलेख के रूप में प्रस्‍तुत कर रहे हैं ‘चर्चा में’ ।

लघु व्‍यंग्‍य आलेख: चर्चा में-अर्जुन दूबे
लघु व्‍यंग्‍य आलेख: चर्चा में-अर्जुन दूबे

1.स्त्रीवाद का अनोखा रूप

भारत के गुजरात प्रांत में एक वयस्क लड़की द्वारा स्वत: का स्वत:से विवाह करके उदाहरण प्रस्तुत करके सूर्खियों में छायी रही; उसके इस कदम को आलोचना एवं समर्थन मिले हैं।

जीवन बिना विवाह के बिताया जा सकता है और इसीलिए अनेक पुरूष और महलाएं अविवाहित रहकर प्रसन्नचित्त होकर जीवन जीते हैं । वहीं कुछ विवाह नहीं हो पाने की दशा में एकांकी ही रह जाते है । समाज में बिना विवाह किये जीवन निर्वहन करने के अनगिनत उदाहरण भूत और वर्तमान समेटे हुए है ।

किंतु यहां इस गुजराती कन्या ने विवाह किया, किंतु किससे? पुरूष से इतर किसी जीव से अथवा किसी पेड़ से अथवा किसी शैल खंड से?जिनके विवाह में हिंदू मान्यताओं के अनुसार दोष होते हैं, उनका विवाह विवाह दोष को दूर करने के लिए वृक्ष अथवा शैल खंड से करा दिया जाता है ।

समाज में बिना विवाह किये लिव इन रिलेशनशीप के भी भरपूर मिशाल हैं जिसमे विवाह नामक शब्द का कोई स्थान नहीं होता है । कभी-कभी अत्यंत छोटी आयु में ही बिना वैवाहिक इच्छा के विवाह करा दिया जाता है अथवा बस्तु की भांति पुरूष को दे दिया जाता है जिसमें कन्या की भावनाएं गौण हो जाती हैं ।

किंतु इस गुजराती, वयस्क के साथ साथ शिक्षित, लड़की ने तो अनूठा उदाहरण प्रस्तुत कर दिया । विवाह किया किंतु “स्वयं” से । वैवाहिक रोमांच का कोई स्थान नहीं । परिपक्व अवस्था में लिया गया निर्णय है, ऐसे निर्णय इसी अवस्था में संभव हैं।

स्वय़ं को स्वयं से विवाह करके वैवाहिक रीति का हिस्सा बनकर एक स्त्री द्वारा लिया लिया चेतना से परिपूर्ण स्त्रीवाद का उदाहरण है ।जिसमे न किसी से, विशेषकर पुरूष समाज से, गिलवा शिकायत दिखी है. स्त्रीवाद की मिशाल एक नये रूप में…नमन है इस स्त्री के साहस को ।

2. संवाद माध्यम कैसा हो!

किस तरह का संवाद (Communication) अधिक असर डालता है–लिखित अथवा श्रव्य माध्यम? लिखित 9% और श्रव्य 49% का होता है । दोनों मिलाकर 58% ।लिखित सामग्री पड़ी की पड़ी रह जाती है जब तक उसे पढा न जाय अर्थात पाठक उसे संवाद का माध्यम न बनावे. पाठक के लिए साक्षर होना जरूरी है जबकि श्रव्य माध्यम में श्रोता निरक्षर भी हो सकता है । ज्ञान साहित्य अथवा धर्म साहित्य का तब तक वजूद नही रहता जब तक पाठक उसे स्वयं समझे अथवा श्रोता को समझाये; यह आवश्यक नही है कि अर्थ वही रह जायें जो लिखित साहित्य में है अथवा श्रोता भी उसी अर्थ में समझे ।

संवाद क्षेत्र में लिखित और पाठ्य माध्यमों में (9+16)=25% की ही भागीदारी होती है.वहीं वाचन और श्रव्य संवाद माध्यमों की भागीदारी (26+49)=75% की हो जाती है । बोलने वाले ने लिखित को पढकर बोल दिया अर्थात 9+16+26=51% संवाद सामग्री प्रस्तुत कर दिया जिसका प्रभाव 49℅ धारित श्रव्य माध्यम धारित पर पडता है।

टेक्नोलॉजी के जमाने में वक्ता Obscure नहीं रह पाता है बल्कि सशरीर लिखित को पढकर एवं बोलकर अपने दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए दिखाई देता है जिसे श्रोता भी दर्शक के रूप मे फीडबैक देने लगता चाहे फीडबैक सकारात्मक हो अथवा नकारात्मक ।

संवाद ज्ञान वाहक भी है, यह समस्या जनक कारक भी है साथ ही निवारक भी है । हां मौन सुरक्षित विधा है कितुं मूल्य कैसे स्थापित हों!धर्म प्रणेताओं और धर्म वाहकों ने मौन विधा अपनाई होती तो कौन उन्हें जानता! कौन बुद्ध, जीसस, मुहम्मद, गुरु गोविंदसिंह, शंकराचार्य आदि को जानता और आज चर्चा ही करता!

3. मैं क्या करूं?

एक अंग्रेज निबंधकार Sir Arthur Helps ने अपने एक लेख Aids to Contentment में लिखा है कि हमारी असंतुष्टि का एक मुख्य कारण “हमें उसने क्या कहा और क्यों कहा,वह भी जिससे मैं चोटिल हो गया हूं ।” आप के बारे में कहा है? नहीं, मेरे आराध्य के बारे मे. “उन्हें चोट लग गयी”, शरीर पर जख्म हैं? बकवास बंद करो, मैं उस शब्द की चोट के बारे में कह रहा हूं जो उनको चीरते हुई मेरे हृदय को विदिर्ण कर गयी है ।जरा दिखाओ तो। बकवास बंद करो ।

“तुम गाली दोगे? क्या मैं गाली योग्य हूं? “यही बात है । हां, हां, हां। तुम भी गाली दे दो ।फिर बकवास ।अच्छा माफ कर दो। फिर बकवास । तो तुम चाहते क्या हो? तुम्हारी घोर बेईज्जती । अच्छा कर लो मेरी । ये सब तो कर रहा हूं लेकिन संतुष्टि नहीं मिली, इसी लिए बेचैन हूं ।कैसे दूर होगी? मुझे खुद नहीं पता। वैसे मैं एक बात बता दूं । क्या है, बता दो!” जो हो रहा है उसी में मजा है”!

-अर्जुन दूबे

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