छत्तीसगढ़ के गहने -डुमन लाल ध्रुव

छत्तीसगढ़ के अंगराग

-डुमन लाल ध्रुव

छत्तीसगढ़ के गहने -डुमन लाल ध्रुव

छत्तीसगढ़ के गहने -डुमन लाल ध्रुव
छत्तीसगढ़ के गहने -डुमन लाल ध्रुव

छत्तीसगढ़ के लोक जीवन में गहनों का महत्व-छत्तीसगढ़ का लोक-

जीवन श्रृंगार प्रिय है। विभिन्न पर्व और विवाह आदि शुभ कार्यों में गहनों का प्रयोग किया जाता है। लोक नृत्य प्रस्तुत करते हुए अलग-अलग नृत्य के अनुसार गहने पहने जाते हैं। गहने सामाजिक प्रतिष्ठा के अनुरूप कम या ज्यादा कीमती होते हैं। कीमती धातु के गहने संपन्न वर्ग के लोग पहनते हैं जबकि मध्यम वर्ग के लोग चांदी के गहने पहनते हैं। सामान्य लोग चांदी के साथ गिलट के भी गहने पहनते हैं। गहने श्रृंगार के अभिन्न अंग हैं। छत्तीसगढ़ के मैदानी इलाके में जो गहने पहने जाते हैं वनांचल में इससे भिन्न गहनें पहने जाते हैं। गहने संकट के समय गिरवी रखने तथा बेचने के भी काम आते हैं। युवा अवस्था में गहनों के प्रति लगाव ज्यादा होता है। बाद में यह लगाव कम होता जाता है। श्रृंगार का बदलती अभिरुचि के अनुसार गहनें भी बदल जाते हैं। पहले भारी भरकम गहने पहने जाते थे। आजकल हल्के -फुल्के गहने पहने जाते हैं। गहनें संस्कृति का भी परिचय देते हैं।

छत्तीसगढ़ के गहनों की अपनी विशिष्ट बनावट है-

गहनों से ही अंचल विशेष का अनुमान लगाया जा सकता है। छत्तीसगढ़ के गहनों की अपनी विशिष्ट बनावट है। विशेष आकार प्रकार है। इससे पहनने वाले की हैसियत और उसकी सामाजिक स्थिति का अनुमान लगता है। छत्तीसगढ़ के लोग परिश्रमी होते हैं इसलिए उनके गहने भी हल्के -फुल्के होते हैं कि उन्हें पहनने से श्रम करने में कोई व्यवधान नहीं पड़ता। इनके निर्माण में स्थानीय शिल्प कला का योगदान होता है। गहना पहने के पीछे शारीरिक संतुलन बनाए रखने की आकांक्षा भी है। प्रसव के बाद गर्दन बढ़ने से आकार ठीक होता है। नाक और कान को छेद करने के पीछे गहने धारण करने के साथ स्वास्थ्य भी कारण है। इन सब तथ्यों से छत्तीसगढ़ के लोक जीवन में गहनों के महत्व का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।

जनजातियों के गहने का वैशिष्ट्य-

आदिवासी श्रृंगार प्रिय होते हैं। यहां गिलट के गहने ज्यादा उपयोग में लाए जाते हैं। विशेष अवसर पर आदिवासी महिलाएं गहनों से लद जाती है। रुपए की माला यहां का मुख्य गहना है। गिलट का गहना मूल्य में सस्ता और वजन में हल्का होता है। गहनों में बिदली, तागली, हांसली, तूड़ा, कंडी, टीवड़ा, धूमरा, मूंदी, ढेकड़वाया, ढार,तरकी, ककनी, सुतबा, देवहिया, परछटिया आदि पढ़ने जाते हैं। लाख से निर्मित होने वाला खिनवा सौभाग्य सूचक गहना माना जाता है। विवाह के अवसर पर वन्य बालाओं की विदाई इसी गहने के साथ होती है। कान में पहना जाने वाला गहना ढाक खिले हुए फूल की आकृति का होता है। यह कान के काफी हिस्से को ढक लेता है। कान के ऊपरी भाग में पहना जाने वाला गहना झड़प कहलाता है। कान के नीचे बारी पहनने की परंपरा है। यह चांदी या सोने से बना होता है। यदि इसका प्रयोग आदिवासी पुरुष करते हैं तब इसे सूरकी कहा जाता है। नृत्य के समय विभिन्न गहनों से सजी आदिवासी युवतियां अत्यंत सुंदर दिखलाई पड़ती है। गहने प्रायरूरांगा से बने होने के कारण रंगहा कहलाते हैं और बाजार हाट में मिलने के कारण इन गहनों को बजरहा एवं हट्टा भी कहा जाता है।

लोकनाट्य में श्रृंगार-

लोकनाट्य की कल्पना बगैर श्रृंगार नहीं की जा सकती। ’’चंदैनी गोंदा’’ हो या ’’चरणदास चोर ’’ , ’’कारी’’ हो या ’’सोनहा बिहान ’’ , सभी लोक नाटकों में गहनों का प्रयोग किया जाता था। छत्तीसगढ़ के नाटकों में महिलाएं कान में झुमका, गले में सुड़रा और रुपिया, कमर में करधन, कलाई में कटनी और ऐंठी, बांह में पहुंची पहनकर अभिनय के लिए उतरती है। इसी तरह पुरुष भी अपनी भूमिका के अनुसार अलग-अलग प्रकार के गहने पहनते हैं। जमींदार की भूमिका करने वाला पात्र हाथ में कड़ा पहनता है। उच्च वर्ग का पात्र गले में सोने का चैन और उंगली में मुंदरी पहनता है। लोक नाटक के पात्रों के गहनों को देखकर ही पता चल जाता है कि वह छत्तीसगढ़ के निवासी हैं। ’’लोरिक चंदा’’ और ’’भरथरी’’ के कलाकार विषय की आवश्यकता के अनुरूप गहने धारण किये दिखलाई पड़ते हैं। चरणदास चोर की रानी के गहने उसकी भूमिका के अनुसार है। ’’गांव के नाव ससुराल मोर नाव दामाद’’ में महिलाएं मोहर (रुपिया) कंकनी, ऐंठी और पहुंची पहनकर अभिनय करती दिखलाई पड़ती है। इसी तरह नाचा की परी का श्रृंगार भी विभिन्न आभूषणों से किया जाता है जिसे देखकर दर्शक प्रभावित हुए बगैर नहीं रह सकता। कहा जा सकता है कि श्रृंगार लोकनाट्य का अनिवार्य अंग है और विभिन्न प्रकार का गहना श्रृंगार का अनिवार्य अंग है।

लोककला-

लोककला चाहे बस्तर की हो या रामगिरी की, सिरपुर की हो या भोरमदेव की सभी जगह लोक कलाकारों की विशिष्टता दिखलाई पड़ती है। बस्तर में पंच धातु से निर्मित बेल मेटल कला प्रसिद्ध है। यह काफी पुरानी है इसलिए इसे डोकरा आर्ट भी कहा जाता है। पीतल, तांबा, लोहा आदि से निर्मित इन कलाकृतियों में लोक आभूषण का भी चित्रण होता है। रामगिरी पहाड़ी की प्राचीन नाट्यशाला में जो भित्ति चित्र हैं उसमें भी प्राचीन आभूषणों का चित्रण मिलता है। विभिन्न देवी देवताओं की प्रस्तर मूर्तियों में गहने बहुत कुशलता के साथ उत्कीर्ण किये गये। छत्तीसगढ़ की राजधानी में काले लौह धातु के बने दरवाजों की सज्जा लोक कला का उत्कृष्ट नमूना है। वनवासियों के चित्रण में उनके पारंपरिक अलंकारों का भी आकर्षक चित्रण होता है। डोंगरगढ़, दंतेश्वरी, रतनपुर की देवी, विंध्यवासिनी सभी प्रतिमाओं में सोने और चांदी का आभूषण सुशोभित है। बस्तर के आदिवासी महिलाएं जिससे लकड़ी के कंघे को जुड़े में खोंसती है उस पर अंकित कलाकृति देखते ही बनती है। लोक कला का श्रृंगार के क्षेत्र में यह अद्भुत उपलब्धि है। आदिवासी गहनों के निर्माण में मानव आकृति, वन्य पशुओं की आकृति, पहिया, तुरही आदि का प्रभावशाली अंकन करते हैं। भोरमदेव और सिरपुर के मंदिर की दीवारों पर जो आकृतियां उकेरी गई हैं उनके साथ पारंपरिक आभूषण की सज्जा देखी जा सकती है।

छत्तीसगढ़ी गहने और संस्कारों में उनका महत्व-

गहनों का संस्कारों के साथ घनिष्ठ संबंध रहा है। विवाह के अवसर पर केश सज्जा के लिए झाबा पहना जाता है। इस अवसर पर पांव की उंगलियों में बिछिया, पांवों में सांटी, बहुंटा और लच्छा, कमर में करधन, हाथ की उंगली में मुंदरी ,हाथ में ककनी,बनुरिया,अइंठी, पट्टा और चूरा, बांह में पहुंची, गले में पुतरी ( मोहर ) रुपिया ,सूर्रा,कान में बारी खिनवा ,झुमका ,नाक में फुल्ली और सिर में खोंचनी लगाया जाता है। अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार महिलाएं सोना, चांदी, तांबा या गिलट से बने गहनें पहनती हैं। विवाह के अवसर पर वर- वधु अलग-अलग किस्म के गहनें नेंग के अनुसार लेकर आते हैं। बचपन में बच्चों को अनिष्ट से बचाने के लिए चांदी या सोने की ताबीज काले धागे में गुथकर पहनाते हैं। अपने सुहाग से वंचित होने पर महिलाएं हाथ में केवल चांदी का पट्टा पहनती है। इसकी संख्या आर्थिक स्थिति के अनुसार अलग-अलग होती है। विवाह के अवसर पर वनों के महत्व को इस लोकगीत से सहज ही जाना जा सकता है जिसमें लड़की अपने भाई से कहती है-

मुडा मुडा इंरोनी दादा
सोनार पेको आयेरो दादा
सोन मुड़ा हेडरो दादा

भैया! वो अंगूठी अंगूठी कह रहा है, भैया अगर मैं सुनार की बेटी होती तो वह मुझे सोने की अंगूठी देता। विवाह निश्चित होने पर लड़की की आंख में आंसू देख कर छत्तीसगढ़ की स्त्रियां गाती है-

गिरथे मोती कस बूंद हो
का थोर होगे बिटिया, काहे बर बदन मलिन हो
सोन थोर होगे कि रूप थोर होगे?
काहे बर बदन मलिन हो ।

छत्तीसगढ़ गहनों का संस्कारों के साथ अभिन्न संबंध है। इन लोकगीतों से उनके महत्व का अनुमान लगाया जा सकता है।

छत्तीसगढ़ गहने की ऐतिहासिकता-

आदिम स्थिति में स्त्रियां कौड़ियों के गहनें पहनती थीं। आगे चलकर गिलट ,तांबा और कांसे का गहने पहनने लगीं। आजकल चांदी और सोना का गहना भी प्रचलित है। आभूषण सदैव नारी के आकर्षण का केंद्र रहा है। बस्तर के आदिवासी महिलाएं केशों के श्रृंगार के लिए कलात्मक कंघी का उपयोग करती हैं। यह अस्सी प्रकार की होती है। लकड़ी की कंघी की कलात्मकता से देने वाले के प्रेम का अनुमान लगाया जाता है। पहले श्रृंगार का उद्देश्य केवल आकर्षक दिखना होता था। गहनों से किसी प्रकार की प्रतिष्ठा जुड़ी हुई नहीं थी लेकिन आज गहनें सौंदर्य के साथ – साथ आर्थिक स्थिति का भी परिचय देते हैं। चांदी और सोने के गहने जब पहने जाने लगे तब इसके साथ प्रतिष्ठा भी जुड़ गई। गहने केवल सौंदर्य ही नहीं बढ़ाते प्रतिष्ठा भी बढ़ाते हैं। गहनों का प्राचीन उपयोग केवल सौंदर्य की अभिकृति करना था। तब इनके साथ प्रतिष्ठा के घटने बढ़ने का प्रश्न नहीं था। ऐतिहासिक विकास के क्रम में गहनें सौंदर्य के साथ प्रतिष्ठा का भी परिचय देने लगे।

गहने और धार्मिकता-

छत्तीसगढ़ के अधिकांश धार्मिक कार्यक्रमों में गहने का उपयोग होता है। धार्मिक महाकाव्यों पर आधारित पंडवानी हो या भरथरी गायन सभी में गहने जरूरी है। पंडवानी प्रस्तुत करने के लिए विश्व प्रसिद्ध तीजन बाई झुमका, सुंडरा, करधन, ककनी, ऐंठी और पहुंची पहनती हैं जबकि रितु वर्मा गले में सूर्य के साथ-साथ रुपिया भी पहनती हैं। ’’रहस’’ जो कृष्ण कथा पर आधारित होती है इसमें भी विभिन्न प्रकार के गहनों का उपयोग होता है। बस्तर के दक्षिणी भाग में निवास करने वाले माड़िया फसल कटने के बाद चढ़ौती चढ़ाने के समय गवर नृत्य करते हैं। गिलट, तांबा ,पीतल ,चांदी इत्यादि धातुओं के भारी गहने लादे एक दूसरे के कमर में हाथ डाले नृत्य करती और गीत गाती आदिवासी युवतियों के चेहरे की प्रसन्नता लय और ताल दर्शक को भाव विभोर कर देने के लिए यथेष्ट होता है। युवतियां पैरों में पैरी पहनती है जिससे इत्तापुल्ला कहां जाता है। गले में दो या तीन सूतिया, हमेल और कलाई में वजनी चूड़े पहने जाते हैं। गोत्र देवता की पूजा अर्चना तथा गांव या क्षेत्र में रहने वाले लोगों की सुख समृद्धि के लिए इष्ट देव से आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए अबूझमाड़ क्षेत्र में काकसार नृत्य पर्व का आयोजन किया जाता है। नृत्य के लिए युवतियां गले में हमेल और सुतिया पहनती है। कर्म देवता की स्मृति एवं करम वृक्ष की पूजा के अवसर पर करमा नृत्य होता है। करमा का अर्थ होता है आपस में हाथ मिलाना और काम करना। करमा नृत्य में पुरुष लोहे के पैजना, कानों में लुरकी और गले में हमेल धारण करते हैं। इसी तरह महिलाएं गले में हंसली, हमेल, कानों में बारी,डालें, बांहों में बहुंटा, ककना, कलाई में चूरा,कड़ा,दोहरी, पैरों में ढोउर तथा बिछिया पहनती हैं।

गहने और वैज्ञानिकता-

गहनों के नामकरण में ही वैज्ञानिकता दिखलाई पड़ती है। विभिन्न धातुओं के प्रयोग के अनुसार गहने के नाम परिवर्तित हो जाते हैं। गले के आभूषण के रूप में रुपिया का प्रचलन है। जब रुपियों के बीच चांदी की कुंडली लगाई जाती है कब इसका नाम हमील हो जाता है। रुपिया अगर कम वजन के सोने से बनाया जाए तो इसे पुतरी कहा जाता है और जब ज्यादा सोना उपयोग में लाया जाता है तब इसे मोहर कहते हैं। श्रृंगार के साथ-साथ इन गहनों का स्वास्थ्य की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण स्थान है। पांच या छः लर की करधन प्रसूता को बच्चे के जन्म के बाद पहनाया जाता है जिससे बच्चे के जन्म के कारण शारीरिक गढ़न पर जो प्रभाव पड़ता है वह फिर ठीक हो जाता है। इसी तरह पैरों में पहने जाने वाला गहना पांव के मांस पेशियों को अनुकूल आकार में रखता है। कई बार काले धागे में बंधा हुआ चांदी का ताबीज बच्चों को अनिष्टकारी प्रभाव से बचाने के काम करता है। वन्य जातियों में काष्ठ, कौड़ी गिलट के हल्के फुल्के गहने ज्यादा पहने जाते हैं। ऐसा करने का मुख्य कारण जंगल में लंबी यात्रा करना और श्रम से अपना भोजन एकत्रित करना है। धातु के वजनी गहने उनके लिए कार्य में बंधनकारी हैं।

-डुमन लाल ध्रुव
प्रचार-प्रसार अधिकारी
जिला पंचायत-धमतरी
मो. नं. 9424210208

बहुआयामी जीवन संदर्भों के रचनाकार: नारायण लाल परमार

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