छत्तीसगढ़ी कहानी-अक्कलवाली
अक्कलवाली
छत्तीसगढ़ी कहानी-अक्कलवाली
निरभे अउ गायत्री ए उमर म घलो हाड़ के टूटत ले कमावथे। उन्कर लइका दिल्लुू उछरत ले फुँसर-फुँसर के खाथे अउ गांँड़ा कस बछवा भुॅंकरत घुमत हे। न कुकुर के बूता न दिल्लू के । डंगडंग ले बाढ़ भर गेहे , जम्मो भेजा म भूँसा भराए हे। तीन तीन साल म बारवी पास नइ हो सकिस । थोक बहुत खेत खार होतिस तेला कमातिस। थोरको लाज बीज होतिस त कुछू धंधा पानी कर लेतिस, उहू तो नइहे। जम्मा नाक कान ल बेच के खा-बइठ गे हे, त का करय । जउन मेर दू चार झिन संगी संगवारी मिल जाय लफर -लफर मारना हे। एती -तेती के समाचार , एकात कन नेतइ -चमचई के गोठ , अपने मुँह म अपने बड़ई , पान गुटका खावत लठर -लठर एती ओती घूम फिर लिस तांहे होगे खाए के बेरा। कोनो जगहा तास के फड़ जमा लेवय तहाँ बेरा पहा जाय। संझा संगी संगवारी मन संग तरिया के पार म मंजन घिसत बेरा ल ढरका लेवय तांहेन बियारी के बेरा घर के घर। कहाँ गए रहे कहूँ, का लाने कुछू नहीं। गोंह – गोंह ले खा के लात ताने सुत जाय। रतिहा ल तो अपन बेरा म कटनाच हे । पढ़े लिखेहँव सोच के काकरो संग नव -झुक के बात नइ कर सकय । छोटे -बड़े के लिहाज काला कहिथे वो तो घरे ले नइ सिखे पाए हे , एकलउता लइका बर सबो छूट। राजा के दूत ते एकलउता पूत।
कोन हँ काय काहय। भँइसा के सींग भँइसा बर गरू होथे, दूसर ल का करना हे। फेर दाई ददा तो दाई ददा होथे। उन्कर मन म का होथे उही मन जानथे। निरभे अउ गायत्री साल भर होगे गजब परसान हे। मने मन तलासय । नता सैना म चुपेचुप गोठियावय । कोनो मेर ले बने असन बहू मिल जतिस, ते पार लग जतेन। गर में घाँटी बँधाही त लइका खूदे सुधर जतिस । उहू दिन आगे । सीता बारवी पास हवय । मइके म खेती खार नहीं के बरोबर हे । दाई ददा पढ़ाय के संगे संग वोला खेती बारी के काम -बूता म ठनठन ले पको डारे हे। लगिन बँधइस, गाँठ बँधाके भाँवर परइस, बिहाव होइस। सीता ससुरार आगे ।
घर के परिस्थिति ल देख के सीता ल बड़ दुख होइस। कभू कभू जीव कउव्वा जावय। रोवासी हो जाय फेर उहू निच्चट जीवपरहीन लइका ए। हार माने बर नइ जानिस। एक दिन परछी के भीथिया म टँगाए लइका के फोटू ल देख के दिल्लू ल पूछथे – ’एह काकर फोटू हरे जी’ ?
’नइ चिन्हस ’? दिल्लू चेंधिस।
इतराए सहिन ठुमकत -मुसकावत सीता कहिस – ‘उहूूॅूॅूूॅूं !
‘मोर चेहरा तोला थोरको नइ चिन्हावत हे भकली ’!
‘अइ ! तभेच तो सोंचत रहेव । कइसन फुन्डा फुन्डा मार गाल दिखत हे। घात सुग्घर लागत रहेव जी बिहाव के पहिली तुमन तो।’
अब का नइ दिखत हँव ’? दिल्लू ओकर खाँध म कोहनी ल मड़ावत ओकर आँखी म आँखी ल गड़ियाके पूछथे।
‘मैं अइसन तो नइ काहत हौं।‘
‘त का काहत हस’ ?
सीता के उल्हवा पाना कस कोेंवर -कोवंर गाल ल सहिलावत मया के पालिस मारिस दिल्लू हँ।
‘गजब फरक हे तब अउ अब म’’- सीता मुड़ ल नवाए कनेखी देखत दिल्लू के मँुूह कान ल पढ़िस अउ कहिस- दुनियाभर के निसा पानी हँ सेहत बर बने थोरे होथे जी। तुँहरेच तो सरीर झुकत हे। धन जाय तो जाय धरमो जाय। सुनके दिल्लू कनुवागे। मने मन गुस्सा तको लागिस। नारी परानी जिंहाँ समझदारी के बाना उठाथे ओेमेर मरद नाराज होथेच। काबर के मरद हँ सदादिन अपन आप ल नारी ले उपर समझिस अउ सदादिन उपरे रहिबो कहिथे। दिल्लू चुप कट खाए रहिगे। हूँकिस न भूँकिस ,नजर चोराके सुटूर -सुटूर रेंग दिस। समे काकरो लागमानी नइ होय। रेंगथे ते रेंगते रहिथे। कुछु दिन पहागे।
एक दिन दूई के दूआ निरभे अउ गायत्री गोठियावत रहय – ‘सुनत हस ? हमार दिल्लू म कूछू सुधार होइस तइसे लागत हे’।
‘सही ल काहत हस। सबो अइसने गोठियावत हे।’
सब बहू के आए उपर ले होवत हे।
हाँ ! सिरतोन कहिथस वो।
ओकरे सेती तो नारी ल लछमी केहे गे हे। मरद के बढ़वार के पीछू नारी के हाथ होथे । नारी के नार ले ए जग -संसार अतेक लामेच भर नइए। सिरजत सँवरत सरलग आगू घलो बाढ़त हेे। उपर साँस लेवत निरभे आगू कहिस – नारी परानी हँ बिहाव के बेरा सिरिफ अँचरा के गाँठ नइ जोरय, दूठन घर ल तको जोड़थे। संस्कार के समागम तो करबे करथे। दूठन अलग -अलग संसार ल जोड़- जतन के नवा संसार रचथे -गढ़थे। असल म संसार हँ नारी बिना अधूरा हे। गायत्री निरभे के मुँहू ल बोकबाय देखते रहिगे, जानो -मानो अपन भाग ल सहिरावत हे के धन भाग के अइसन जोड़ी पाएँव।
अहा ! आज गजब सुग्घर साग राँधे हस सीता बड़ मिठावत हे – दिल्लू अँगरी चाँटके चटकारत कहिस। आघू म बइठे सीता अपन सुवामी ल खुष करे बर चुटकी मारत आँखी मटकावत कहिथे – ‘आखिर आवँव कोन ?
सान से अँटियावत दिल्लू ह अपन कालर ल उचाके हलावत इसारा करिस ,जना मना काहत हे के -‘अरे ! मोर , महाराज दिल्लू के’।
‘हमर हाथ के साग तुँहार मन ल भाइस एकर ले बढ़का खुषी के बात हमार बर अउ का हो सकथे महराज’ ! सीता, महरानी के अभिनय करिस। सुनके दिल्लू फुग्गा कस फूलके तनियागे।
‘आज तो दिल्लू के दिल कर देस यार’ !
सीता बिना कुछ बोले कलेचुप अपन मुड़ी ल दिल्लू के खाँध म मड़ा दिस। अपन आप ल समरपित करके गृहस्थी के डोर ल अपन हाथ म थाम लिस । हार के जीतई इही ल कहिथे। नारी हँ अपन आप ल सौंप के ससन भर उछाह पा लेथे। समरपन के भाव , नारी बर सब सुख के छाँव। सीता मानो सरग के जम्मो सुख ल पागे। मउका के फायदा उठाय बर कोनो सीते ले सीखय। धीरे कन पूछिस – एक बात कँहव जी ?
अरे ! एक का , पचास कहा न। दिल्लू कही तो दिस फेर करेजा काँप गे।
सियान मन कमावत हे , हमन बइठे – बइठे खावत हवन । का ए सोभा देथे ?
सुन के दिल्लू के थोथना उतरगे। सीता बोलते गइस – उन हमला जनम दिन , पाल पोस के बड़े करिन अउ हमन का करत हन ? सोचव , का हमार इही फरज बनथे। का इही दिन बर मनखे बाल – बच्चा खातिर तरसथे -ललाथे ? उन मन जाँगर टोर -टोरके कमाइन, पेट ल काट- काटके जोरिस -जमाइस। आखिर काकर बर ? हमरेच बर तो होही न।
दिल्लू के कौंर टोटा के टोटे म अरहझगे। सोच म परगे। दूनो के मुँह ले बक्का नइ फूटिस। वो बेरा हवा घलो दूनो के बीच ले रेंगे के हिम्मत नइ कर पाइस।
बोकबाय देखत मुक्का खडे बेरा ल ठेलियावत सीता फेर कहिस – मैं पढ़ई के समे ले सिलई – कढ़ई के काम तको जानथौं। कोनो मेर ले जुन्ना -सुन्ना मसीन मिल जातिस ते मही घर बइठे दू- चार पइसा कमा लेतेंव। दिल्लू ल ठेंगा मारे कस हकरस ले लागिस ते लागिस फेर बात जँचगे। सूजी लगत ले पिराथे फेर बीमारी ले तो बचाथे। गोली -दवई मुँहे भर के जावत ले करू लागथे ताहेन सुभीते – सुभीता।
मसीन के सपना ल आँखी म सँजोए दिल्लू खुदे मसीन बनगे। काम – बूता म जमके भिड़ गे। ओला दिन रात कमावत देखके संगी संगवारी मन ताना मारे लगिन – ‘यहा का जोरू के गुलाम होगेस रे ’!
‘आइस रे मुड़ ढक्की रोग , बाढ़े बेटा ल लेगे जोग’।
‘अउ कतेक ल हकर-हकर के कमाबे’ ?
दिल्लू सबला एक कान ले सुनके दूसर कान ले उड़वा देवय। ओकर कान म चोबीसो घंटा सीता के बात हँ मसीन के चक्का कस घोर्रियावत घुमत रहय। लेहूँ त सीधा नवा मसीन लेहूँ, जुन्नेटहा ल का करहूँ। घुरवो के दिन बहुरते कहिथे। आखिर उहू दिन आ गइस। मटमटावत परी कस चुकचुक ले नवा मसीन दिल्लू -गायत्री के घर आ गे। मसीन बर थोक – बहुत पइसा कम परिस तेला अपन मोबइल ल बेचके पूरो लिस फेर संगवारी मन के देवत उधार ल नइ लिस।
सीता के मसीन चल परिस। मसीन के संगे -संग मइन्ता घलो चलिस। चार महिना नइ बीते पाइस सटर उठा के किराना दूकान घलो खुलगे। सीता अपन संगे -संग गाँव के कइयो झिन ल सिले- कढ़े बर घलो सिखो डारिस। दिल्लू के देखा -सीखी गाँव के कतको जाँगरचोट्टा टूरा मन काम -बूता म भिड गे।
बेरा -बेरा के बात होथे। घुरूवा के घलो दिन बहुरथे कहिथे। काली के धोबी खपरी आज निर्मल ग्राम धोबी खपरी हो गे।
एती सीता के मसीन खुदखुद चलत रहिथे, ओती निरभे अउ गायत्री परछी म बइठे मुटुर -मुटुर देखत रहिथे।
मया-पिरीत के गोठ गोठियावत खुलखुल-खुलखुल हाँसत रहिथे।
रद्दा रेंगइया मन ल चिचियावत रहिथे – आवव बइठ लौ गा, चहा पीके जाहू।
अब कोन ल कहाँ फुरसत हे, सीता हँ तो गाँव भर म आगी फूँक डारे हे।
-धर्मेन्द्र निर्मल कुरूद भिलाईनगर जि. दुर्ग 9406096346