लोटा भर पानी (छत्तीसगढ़ी कहानी)
-धर्मेन्द्र निर्मल
लोटा भर पानी
अकती हॅ अंगरी म पाॅचे दिन बाॅंचे हे। मनोज के बिहाव हॅं अभी ले तय नइ होय हे। ओकर ददा देवसिंग ह फागुन के नंगारा थिराय हे तेखर बिहान भर ले पानी पी-पी के टूरी खोजत हे। फेर बात हॅ अभीन ले नइ बने हे। कई गाॅव घूमिस, कतको टूरी देखिस फेर उही भरम भारी पेटारा खाली। बहू बर जतका के चढ़ावा लेगतिस तेकर चवन्नी हिस्सा तो मोटरे गाड़ी म फूॅकागे होही। देविसिंग अपन गाॅंव के मोटहा किसान हरे। पैंतीस चालिस एकड़ के जोतनदार हे। तीर तखार के कोनो गाॅव अइसे नइ होही जिंहा ओकर पूछ परख नइ होवत होही। देवसिंग ले सुमत-सुलाह के पाछू ही कुछू बात हॅ निरने के रूप लेथे अउ नियम बनके गाॅव म बगर जथे। कोनो दिन अइसे नइ होही जे दिन चाहा के केटली हॅ चुल्हा ले उतर के चोंगी पियत ले थिराय पावत होही। जेन गाॅव म लड़की हे सुनतिस देवसिंग तुरत फुरत गाड़ी धरके पहुॅच जाय। संझा लहुट के गोठिया डरय-लडकी तो सनान हे फेर वा भइ आजकाल के लडकी ! माने बर परही। ….मैं अपन कान म सुने हॅव जी ! लड़की अपन दाई तीर कहि देवय-मैं अउ पढ लेंतेव दाई मोर बिहाव अभीन ले झन करव।
कोनो दिन अउ कहूॅ ले लहुटके गोठियातिस-लडकी के बाप हॅ हमार संग गोठियावत रहिस हे। ओकर दाईच हॅं दुवार ले कहिदिस-हमन अपन बेटी ल नौकरी वाले संग बिहाबो।
देवसिंग करय त का करय। कखरो बेटी परिया म तो नइ बइठे हे । जेन जावय अउ टुपले झोला-झंकर कस उठाके ले लानय। बेटा पढ़े लिखे हे, नौकरी घलो करत हे फेर पराभिट कंपनी म हावय। लडकी वाले मन ल सरकारी नौकरी वाला दमांद चाही।
कभू कभू चौधिंया के काहय- आजकाल लइका ल सरकारी आफिस के बाहरी धरा लय फेर डिगरी के बोजहा झन बोहावय। लड़की वाले खेती बारी पढ़इ-लिखइ तनखा-उनखा ल नइ पूछके, लड़का का करथे तेला पूछथे। ये सब बात ल देख सुनके देवसिंग के मति छरिया जाथे। गाॅंव वाले मन पहिली पहिली तो देवसिंग के गोठ बात ल सुनय त चकरित खा जाय। अब वइसन बात नइ रहिगे। चहा पानी चोंगी माखुर के पीयत ले वोकर बात म हूॅंकारू भर भरथे। एक कान ले सुनके दूसर कानले बदरा कस उड़ा देथे।
पीठ पीछू उही मन गोठियाथे-ये काला बताही गा, सगा छाॅंटत हे।
कोनो कहिथे -अतेक बड़ संसार म टूरी के दुकाल परे हे ? चलय न, हम अभीन देखा देथन, कइसन टूरी चाही ?
बाइमन मुॅंहूजोरे गोठियावय-ये काला बताही वो, दाइज वाले सगा देखत हे। दुनियाभर के गोठ ल फलर-फलर ओसावत भर हे, हम नइ जानबो एकर चाल ल।
साॅप के चाबें मुहू जुच्छा के जुच्छा ! अब जे ठन मुॅंहू तेठन गोंठ, भागे मछरी जाॅंघ अस रोंठ। भाॅड़ी के मुॅह म परइ ल तोपबे, आदमी के मुॅह ल कामा ढाॅकबे।
देवसिंग एक ठो गाॅंव गए रहय। सुने हावय कि घर दुवार खेत खार बने हे। छोकरी सुजानिक लगिस। तभो बात फेर उही मेर अटकगे। लड़की वाले मन ए साल बिहाव नइ करन कहिदिन। देवसिंग ल चट मंगनी पट बिहाव करना हे। अभीच बहू हाथ के पानी पीना हे। लड़की अतेक सुघ्घर रिहिस हे के देवसिंग चार महिना रूक सकत रिहिस हे। फेर खाए के बेरा होगे राहय तभो ले सगा घर खाए बर नइ पूछिस। देवसिंग ल इही बात खटकगे अउ बनेच खटकगे। हाले के देवसिंग जादा पढ़े लिखे नइहे फेर चार झन रोज उठत बइठत हे, धरमी सुजानिक, छोटे बड़े सबो संग बरोबर मेल जोल हे। संगत के असर जादा नही त थोरिक न थोरिक तो परबे करही। ओकर लइका मनोज घला कम नइहे। जइसन-जइसन दाई ददा तइसन-तइसन लइका, जइसन-जइसन घरदुवार तइसन-तइसन फइरका कहिथे। पढ़े लिखे के रूवाब ओकर तीर थोरको नइहे। तभे तो आज तक अपन ददा संग लड़की देखे बर नइ गए हे।
जब पहिली घॅंव लड़की देखे के नाम लेके बलाये गइस त मनोज हॅं अपन दाई ल जाके कहिदिस -माॅं बाप हॅ सिरिफ मोर बर बाई नइ खोजय, अपन बर बहू पहिली देखही। मैं अनुभोहीन लइका बाहिरे बाहिर के सुघरई ल देखहूॅ। परखही त सियाने मन। माॅं बाबू ल जेन जॅंच जाय मैं ओकरे संग भाॅंवर किंजर लेहॅूं।
जब पसंद नापसंद के बात आइस त मनोज सोज कहिदिस-माॅं बाबू मोर बइरी तो नोहय जेन निचट अंधरी -खोरी ल मोर संग धरा देही। देवसिंग अपन लइका के चलाकी ल भाॅंपगे अउ मनेमन गदगद घलो होइस। आजकाल अइसन लइका मुंड म राख डारके खोजे नइ मिलय। पूत के पाॅव पलने म दिख जथे। अइसन पूत पाके देवसिंग धन हे एला सबो गोठियाथे। देवसिंग अब हारगे। भइगे एसो के साल बिहाव नइ करना हे। इही सोच के वोह अपन घर लहुटे लगिस।
ओतके बेरा घरजोरूक राहय ते हॅ मुड़ ल खजुआवत गुनमुनाथे-
एक झिन अउ सगा हे। लड़की जादा पढ़े लिखे नइहे। घर गरीबहा हे फेर…… लड़की बने आय जाय के लाइक हे।
देवसिंग के थोरको मन नइ रिहिस हे। मन तो बतइयो के नइ रहिस हे। बता के पादा चुकाना रिहिस हे। आधा मन आधा तन बतइया के बात राखे बर चल कहत देवसिंग गाडी ले उतर के ओकर पीछू पीछू रेंगें लगिस। घरजोरूक संसो म परगे।
कहाॅं कहाॅं बता परेंव। कहाॅं राजा भोज कहाॅं गंगू तेली।
अंगसी-संगसी होवत सगा घर पहॅुचिस। देवसिंग देखथे, गिनके दूएठन कुरिया छोटकन परछी अउ खदर के छानी। घरजोरूक मुड़ ल नवाये खड़ा होगे। लड़की अकेल्ला घर म रहय। देवसिंग के संग आए परवार के अउ लोगन मन उकूल- बुकूल होगे।
ए कहॉं लान के धॅंसा दिस।
ओतके बेरा लड़की हॅ लोटा म पानी धरके आइस अउ सगा मन के आगू म रखके टुपटुप पाॅंव परिस। बइठारे बर घर म पीड़हा तो नइ राहय। एक ठन टेड़गा-कुबरा जेमा नहीं नहीं म चवन्नी नेवार नइ गुॅुथाये रहय, खटिया ल बिछावत कहिस-
बइठौ।
ओतका म देवसिंग पूछिस- तोर का नाव हे नोनी ?
जुवाब मिलिस -लछमी।
एक झन सगा मने मन मुस्काइस- अहा ह ! खदर के छानी म लछमी के बसेरा।
कतका पढे़हस ? देवसिंग तिखारिस।
चौथी पढ़के छोड़ दे हवॅंव, कहि के नोनी लहुटत कहिस -दाई बाबू मन येदे मेर खनती गए हावय। मैं बलवा देेेेेेथँव ।
देवसिंग के संग आये सगामन संघरे कहिन- नहीं नहीं राहन दे। देवसिंग चुप रहिस।
लछमी कहिस-दुरिहा नइहे, बइठव न मैं बुलुवा देथॅंव।
ठाड़हे मॅंझनिया राहय। सबो झिन भूख के मारे कलबलागे रहय। एकर पहिली घर म देवसिंग गुस्से गुस्सा म पानी घलो नइ पीये रहय। लछमी के दे पानी ल एके साॅंस म गटागट पीके देवसिंग तरगे। छाती जुड़ोवत देवसिंग पीछू कोती हाथ ल टेकिया के खटिया म बइठ गे। सगा मन म फुसुर फासर होय लगिन –
नोनी बने हे। आये जाये के लाइक हे गा।
कोनो कहिस – सबो बने हे फेर का काम के ? तुरते निचोये तुरते पहिरे।
अतका म चाहा बनके आगे। चाहा नइ सिराए पाइस खनतिहार मन घलो पहुॅंचगे। दाउ के सोर तो चारो मुड़ा उड़त रहय। नोनी के ददा रामाधीन घला देखते साथ पहिचान डारिस। सकुचागे बपुरा हॅं। छोटे मुॅहू बड़े बात, बिचारा कते मुॅंह म पूछय ?
देवसिंग घला सोचत राहय। पूछय त कोन ढंगले पूछंव ? आखिर म घरजोरूक पूछिस –
बिहाव करबे नही सगा ? रामाधीन हाथ ल जोर के काॅंपत खड़ा होगे – मोर सामरथ नइ हे दाउ अउ ए बछर बिहाव – बर करे के सोंचे घलो नइ हॅव। मोर तो सबो डाहर ले उघरा हे तुॅहर आगू म हॅव। अतके काहत ओ घर म चुप्पी हॅं हाथ गोड़ लमा के बइठ गे। घर डाहर ले खाए के बुलउवा हो गे। फेर का मजाल के ठहरे सांति हाॅ टस ले मस हो जाय। कोनों तो खुर-खार करतिस। सबो के मुॅह बंधाये के बंधाय हवय। नोनी के दाइ ह कपाट के आड़ म छपटे, सांस ल थामे सुनत रहय। छाती हॅ धक-धक करे जात हे। वोकर बस चलतिस त उहॅू ल थाम लेतिस। वोकर पीछू म लछमी मुड़ी ल गड़ियाये खड़े हे। दूनों के कान जुवाब के अगोरा म बिलई कस कान टेंड़ाये हे। घरजोरूक अउ देवसिंग के घरोधिहा सगा मन तो बनेच भूखा गे राहय। सबो झन एलम -ठेलम करत देवसिंग के मुॅह ल ताके लगिन। आखिर म देवसिंग कहिस-
ए उघरे अउ मुॅूंदाय ल तैं झन सोंच। लछमी हॅ मोर मन आगे हे एला मैं जानथौ।
एला सुन सबो के सबो अकबका गे। कोनो ल अपन कान म भरोसा नइ होवत राहय।
देवसिंग आगू कहिस-तोला मोर समधी बनना हे के नही तेन ल तैं बता ? बेटी तोर ए फेर बहू तो मोर होही न। मोर बहू ल मैं अपन बरोबर कइसे बनाके ले जाहॅू एह मोर चिन्ता हरे।
सुन के लछमी के दाई अपन मुॅह ल तोपे नइ राखे सकिस। पीछू मुड़ के लछमी ल कही भरिस-
हाय बने घर पा लिएस बेटी ! भागमानी हवस। तोला जनम देके आज मोर कोख धन्न होगे।
रामाधीन के मुॅह ले बक्का नइ फूटत हे। देवसिंग रामाधीन के मन ल टटोल डरिस। आसरा के डोर लमाय मुस्कात पूछिस-
कइसे ! का विचार हे सगा ?
रामाधीन सोच म परगे अब मैं का गोठियावॅव ? ओतका ल सुन-परख के लछमी के दाई के जी हॅ अंगार होके भरभरागे-
इही हवय नटवा। न हूंकत हे न भूंकत हे। घर बर कइसे टाॅय-टाॅय करथे।
वोकर मन होवत रहय के जोर से चिचियाके कहिदॅव-
बने हे सगा ! आज ले हमार करेजा के कुटका ला तुहाॅंर सुपरित कर देन। हमला खुसी हे।
रामाधीन धीर लगहा मुॅह ल उलाइस – ठीक हे दाउ, फेर……….देवसिंग हाथ के इसारा करके रामाधीन के मुॅह ल बाॅध दिस अउ हूत कराइस- बेटी लछमी ! कबके अपटे- थमे बेरा ल जानो मानो हरियर झंडी मिल गे। हवा सरसराय लगिस। उछाह के लाहरा हॅ हर मन म हलोर मारत दउड़े लगिस। महतारी हॅ खुसी खुसी….. फेर एक बिरहा के भय के आड़ म झुरझुरावत कहिस -जा बेटी । ऑंखी के पार ले छलक के खुसी हॅ दू कदम चलिस। लछमी अपन बिरान होय जावत हे। कुछु पूछे गउछे के नेंग नइ राखिस देवसिंग, सोज्झे पइसा धराए के नेंग करिस। लछमी के ददा संग दू टप्पा गोठियाइस अउ रेंगते रेंगिस – मोला लछमी ले जाए के तियारी करना हे।
होवत बिहिनिया देवसिंग के टेक्टर म भराके दार -चांउर, बरतन -भाॅंड़ा, टेंट-वेंट, दाइज के जम्मो समान अउ बेवस्था देखइया चार झिन मनखे रामाधीन के घर पहुॅच गे।
बिहान भर देवसिंग घर म गाॅंव म चिचियाके गोठियाइस -मैं काली अपन मनोज के बरात नइ जावॅव। अपन घर के लछमी ल लिवाए बर जाहूॅं।
लछमी सँवरके राजलछमी होगे। आज वो ह साक्छात वैभवलछमी लागत हावे। बिदई के बेरा गाॅंव भर जुरियागे। कोनो नारी परानी के ऑंखी म अतका ठौर नइ बाॅंचे होही जिहाॅं ऑंसू हॅं थोरिक पाॅंव रखके छिन भर थीरा लेवय। अंतस के उछाह हॅ उछल-उछलके ऑंखी के पार ले कूद-कूदके गाल भर बगरे जात हे। जेकर मुॅंह ले सुनतेस इहीच बात निकलय-
जा दुखाही ! राहत भर ले पारा भर ल चुलबुल चुलबुल करके खलबला डरत रहेस, अब ससरार ल खलबलाबे। कोन जनी महादेव म कतेक अकन जल चढ़ाय रहे, जेन आज घुरूवा ले उठके माहल के सोभा बढ़ाय बर जाथस। जा बेटी ! बने राज करबे। तोर पाॅंव म कभू काॅंटा झन गड़य।
-धर्मेन्द्र निर्मल कुरूद भिलाईनगर जि. दुर्ग 9406096346 धर्मेन्द्र निर्मल केे कहानी -लाला के देेेेेवारी