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डुमन लाल ध्रुव की छत्‍तीसगढ़ी कहानी- ‘मंझली दाई’

डुमन लाल ध्रुव की छत्‍तीसगढ़ी कहानी- ‘मंझली दाई’

छत्‍तीसगढ़ी कहानी

मंझली दाई

डुमन लाल ध्रुव की छत्‍तीसगढ़ी कहानी- 'मंझली दाई'
छत्‍तीसगढ़ी कहानी- ‘मंझली दाई’

छत्‍तीसगढ़ी कहानी- ‘मंझली दाई’

मंझली दाई आ गे…’मंझली दाई आगे… जम्मो गांव म शोर-शराबा होगे अउ रोहो-पोहो लोगन मन सकलागे नानेचकुन बात जंगल म आगी असन बगरगे। जउन मनखे जइसे हाल म रिहिस, विही हाल म भागत जावत रिहिस। मंझली दाई ले मिले खातिर।

गांव ले दूरिहा खेत म काम करइया देवारिन ला घलो खबर होगे, अउ उहू हा भागत जात हे। पीछू-पीछू ओखर बहू, जउन गोबर थापत रिहिन। जोर-जोर से गोहार पारत रिहिन के रूक महू हा तोर संग चल देतेंव।

देवारिन हा आके मंझली दाई के पांव परिस अउ तीर म बइठके दू टप्पा आंसू ढार डारिस…. मंझली दाई तंय आज तक कखरो खोज खबर नइ ले, अउ न कोनो चिट्ठी-पतरी हे… नजर भर आंखी ला गड़ियाये हन। देवारिन के बहू हा मंझली दाई के पांव परिस, त जम्मो गांव के माईलोगिन मन खिलखिला के हांस डारिस काबर के तब तक के गोबर हा मंझली दाई के पांव म चिटकगे रिहिस।

मंझली दाई घलो हांस डारिस अउ आंखी तरेरत बोलिस, ’तंय काबर भाग के आये होबे ? तोर तो पांव भारी हे। आठे-दस दिन म हरू-गरू होवइया हे, कहीं कुछ हो जातिस तब ? अतेक मया-दुलार पाके मंझली दाई के आंखी म घलो आंसू टपके लगिस। गांव के अइसन मया बड़ मयारूक होथे। कोनो से लेना न कोनो ला देना, बस एक-दूसर के मया-पिरीत हे, का अपन अउ का पराया। सब अपन मया ले बढ़के हे…।

तभेच गांव के माई लोगिन मन मंझली दाई ले कहिस, ‘मंझली दाई, ये पईत बछर भर म शहर ले वापस आये हस। माधो अउ बहू हा ये पईत बने चिलिक लगाके राखे रिहिस। नाती-नतरा मन घलो आगू-पीछू घूमत रिहिस होही, तभेच तोर सुध हा बिलमगे….?

मंझली दाई ला थोकिन जमहासी आगे। कभू-कभू खुशी म दुख के भाव घलो छुपे रहिथे जउन हा हिरदय ला हुदुक मारत रहिथे। तब एक झन किहिस, ’जम्मो गोठ ला अभिनेच गोठिया लेबे तब दूसर दिन काला गोठियाबे अब मंझली दाई ला थोकिन अराम करन दे।’

खटिया म सुते-सुते मंझली दाई के आंखी ले नींद हा घलो धुरियागे, अपन ननपन ले जवानी, बुढ़ापा के एक-एक बात ओखर आंखी म झुलत रहय जब पनदरा साल के रिहिस, तब बाबूजी हा इही गांव म बिहाव धूमधाम से किये रिहिस। घर-गिरस्थी बसिस, बेटा माधो के जनम होइस, ओखर पालन-पोसन बड़ लाड़ प्यार से किये गिस। परिवार म दाई-ददा रिहिस, तीन ननद रिहिस, रेडियो, टेप, साइकिल अउ गुजारा करे खातिर ठीक-ठाक आमदनी घलो रिहिस…।

बहुते अमीर तो नइ रिहिस, फेर बड़हर मन से घलो कम नइ रिहिस। मंय घर सम्हालत रहेंव अउ सास ससुर के सेवा करंव, संझा बेरा जब ओहर आतिस तो, आंखी परछी के मुहाटी म टिके रहितिस अउ ओंठ के मुसकान ले इनकर सुवागत करंव। दाई-ददा, लइका-सियान, भाई-बहिनी सबो अगोरा करत रहय। घर म हांसी-ठिठोली करत जेवन के अलगे मजा रिहिस। सुते-बइठे के पहिली रोजाना दाई-ददा के सेवा सतकार होते रहय। दाई-ददा घलो संत महातमा के उपदेश, कथा-कंथली सुनाते-सुनात सुत जातिस…।

सुते के पहिली ददा घलो एक-एक लइका तीर जातिस बने सुते हे के नाही। कखरों हाथ पांव मुड़े तो नइहे, कहूं सिरहाना रखे तो नइहे, जाड़ के दिन म लइका कंबल-चादर ठीक से ओढे हे के नाही अइसे कतको बात रिहिस अउ सिर म हाथ फेर के चल देतिस।

ददा हा महु ला लइका मन संग मिला लेतिस। बहू नहीं बेटी के सनमान देवय। फेर एक-एक कर तीनों बहिनी के बर-बिहाव होगे, सास, ससुर तो चल बसिस।

अब घर घलो सुन्ना होगे। ससुर के अड़बड़ इच्छा रिहिस के माधो ल डॉक्टर बनाये के, पढ़े बर शहर भेजे जाय, ओखरे इच्छा के अनुसार माधो के ददा हा चैदह बछर के उमर म ओला शहर भेज दिस पढ़े खातिर।

अब महू हर घर म अकेली होगेंव। बिहनिया येहर काम म चले जातिस तो रतिहा लौटतिस। देवारिन के दाई हा छोटेपन के चल बसिस। ओला पाले-पोसे के जिम्मा मोर उपर आगे। नउकर के बेटा हा घर के सदस्य बनगे। ओहर हमेशा मोर आगू-पाछू रहय। मंय हा दिन म आस पड़ोस गांव म निकल जातेंव, सियान-सामरथ मन के सेवा-जतन करतेव, लइका मन ला अच्छा-बुरा के गियान सिखातेंव ये मोर रोजाना के काम रहय। जम्मो लोगन मोर से हिसाब किताब पूछतिस, छोटे-बड़े तक अपन समस्या ला रखतिस गांव म जउन भी होतिस मोर से सलाह मसविरा करतिस। अब तो मंय सबके मंझली दाई बनगेंव। छोटे-बड़े, सियान बबा मन घलो मोला मंझली दाई कहिथे। इही बीच मोर बेटा माधो डॉक्टर बनगे। जब मंय सुनंेव तो मोर पांव हा अगास म माढ़े कस लगय। जम्मो गांव ला मिठाई बाटेंव, गांव के जमोंलोगन खुशी म नाचत हे।

फेर खुशी म गरहन तब लगगे जब माधो हा शहर म असपताल खोल लिस। मंय हा बहुत समझायेंव के दादा जी के इच्छा अनुरूप तोला डॉक्टर बनायेंव के गांव म रहिके सबके सेवा कर… पर उनला तो ठाकुर साहब के बेटी पसंद हे। माधो हा हमर आस म पानी फेर दिस। न चाह के घलो माधो के बिहाव करिस। शहर के सुंदर, बेबी कट वाली बेटी ला गांव के माहौल रास नइ आवत रिहिस। बड़े-बुजुर्ग मन के पांव छूना, हाथ भर घूंघट डालना, एक-एक के मर्जी अनसार चलना….। ओहर बार-बार माधो ला शहर जाये के जिद करत रहय। हप्ता पनदरा दिन के मेहमानी करके दोनों शहर चल देतेन। बहू के सुख तो मय जानबे नइ करेंव।

हमू मन कई दफा शहर गयंे, माधो हा हमेशा उंहे रूके बर कहे, पर हम मन ला उहां अच्छा लगबे नइ करय। इही अंतर हे जुन्ना अउ नवा पीढ़ी म। कोनो भी पीढी वर्तमान ला स्वीकार करबे नइ करय। जवान… भविष्य के चिंता करथे, तो बुजुर्ग मन भूतकाल के बात करथे।

अइसनेच दिन, महीना साल घलो गुजरगे। एक दिन माधो के ददा हा मोर से सदा के खातिर बिछुड़गे। मोला लगथे मोर जिनगी के कोनो साध नइहे। गांववाला मन मोला बहुते सहारा दिये हे, ये दुख से उबारे म मोर बहुते मदद करे हे तभो ले मोर तबियत बने गिनहा लगे रहय। देवारिन हा माधो तीर शोर संदेश पठोइस। माधो मोला लेगे बर आगे। महूं सोचेब के आखिरी पहरो म बेटा के इहां बने सुख से रहूं। शहर लाके मोला रिंगी-चिंगी असपताल में भर्ती कर दिस। अबड़ महंगा दवाई-दारू, पनदरा दिन ले असपताल म रहिके वापस घर आ गयंेव। घर आके देखेंव के घर के खरचा पानी हजार गुना बढ़गे हवय। बढ़िया जगमग-जगमग आलीशान महल हे, कोनो बात के कमी नइहे। कमी हे सिरिफ समे के। कोन्हो ला कखरो तीर उठे-बइठे दुख-सुख जाने के फुरसत नइहे। पांच-दस मिनट खातिर आतिस अउ हाल-चाल पूछ के चल देतिस। नौकर मन ला बता देतिस के दाई के सेवा म कोनो कमी न आए। अइसे करो, वइसे करो… ये नइ समझत हे के मोला नौकर नइ बेटा के जरूरत है। चार-पांच दिन म बहू आतिस अउ दूरिहा ले देख के चुपचाप चले जातिस।

कई दफा मोला अइसे लगे के ये घर आय के सराय जिहां लोगन मन आये अउ अपन काम होय म चले जाये। कोनो ला कखरो से कोई वासता नइहे। महू ला हफता-पनदरा दिन म अपन बेटा-बेटी से मेलजोल हो जाथे। बहू अपन पड़ोसिन मन संग गोठबात म मगन हे। कभू मंय अपन कुरिया ले बाहिर निकलथंव तब बहू हा जम्मो परोसिन मन के आघू म उदुपहा खिसियातिस। ‘दाई‘ तंय अपन भीतरी कुरिया म कलेचुप जा, तबियत खराब हो जाही। लइका मन ला बलाथंव त भाग जाथे जइसे मंय छूत के बिमारी हंव। ये महल अटारी, मोर बर कोनो काल कोठरी ले कम नइहे। ये रिंगीचिंगी खवई-पियई हा मोर बर जहर-महुरा हे, मोर दुख के पुछइया कोनो नइहे, परवार तितिर-बितिर होगे, संबंध म दरार आगे, ये शहर, इहां के लोग-बाग पराया से कोनो कम नइ लगे। चार-पांच महिना म मंय कई जनम के वनवास भोग लेंव। येहा कइसन जिनगी हे। अब तो जिनगी म घलो कुछ सांस बचे हे, वहू ला का अइसने दम तोड़ देही, मोला अब इहां से जाना पड़ही अपन गांव, अपन मन के बीच अभी मोला बहुत काम करना है। बूढ़ी सास के आंखी के आपरेशन करवाना हे, देवारिन के बहू ला हरू-गरू के समे आ गेहे, ओखर देखरेख करना हे, अइसे बहुत से काम के सुरता आत चले गे। उठिस, तो बुखार के खातिर शरीर हा साथ नइ देवत रिहिस-चक्कर खाके फिर से खटिया म बइठगे। तभे मन म कोनो कोन्टा ले अवाज आईस ‘मंझली दाई‘ इही आखर हा जम्मो शरीर ला हिलाके, शरीर के रग-रग म ताकत भर दिस अउ ’मंझली दाई’ उठ खड़े होइस अपन माटी ले, अपन चिनहारी होये खातिर।

- डुमन लाल ध्रुव
मुजगहन, धमतरी (छ.ग.)
पिन- 493773

येहू ल देख सकत हव-डुमन लाल ध्रुव की छत्‍तीसगढ़ी कहानी-”अपन डेरवठी”

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