छत्‍तसीगढ़ी कहानी: सरद्धा- धर्मेन्द्र निर्मल

छत्‍तसीगढ़ी कहानी: सरद्धा

धर्मेन्द्र निर्मल

छत्‍तसीगढ़ी कहानी: सरद्धा

छत्‍तसीगढ़ी कहानी: सरद्धा
छत्‍तसीगढ़ी कहानी: सरद्धा

बिहिनिया -बिहिनिया जुन्ना पेपर ल लहुटा – पहुटा के चाँटत – बाँचत बिसाल खुरसी म बइठे हे। आजे काल साहर ले आहे गाँव म। जादा खेती खार तो नइ हे फेर अतेक मरहा तको नइहे। ददा साहर में नौकरी करत रिहिस हे। अपनो ह पढ़ई करत -करत इस्कूल म साहेब होगे हे। आना जाना लगे रहीथे।

“जय शंकर भोले।”
बिसाल दुवारी कोति ल मुड़ के देखथे। चुकचुक ले गोरिया, उंचपुर, छरहरा बदन के मनखे दुवारी म ठाढ़े हे। चक्क सुफेद धोती झकझक ले झोलझोलहा कुरता, देखे म मलमल अस कोवंर। टोटा म छाती के खालहे के आवत ले ओरमे रूदराक्छ के माला। माथा म छोटकुन कुँहकु के टीका। बगल म कपड़ा के बेग ओरमे हे। बिसाल देखते साठ समझगे।
कहिस – बइठ महाराज ! कहाँ ले आए हव ?

अइसे तो हमन रूद्रपुर ले आए हन बिसाल भाई – महराज अपन खाँध म टँंगाए – ओरमे कपड़ा के बेग ल सोझियावत कइथे।
“बिसाल भाई”
अपन नाम सुनके बिसाल एकघांव चकरित होगे- अरे ! मोर नाम महराज………….। बिसाल सोचते हे।
 महराज आगू कहिथे – ठहिरे खम्हरिया म हवन तीर – तखार ल सइकिल म घूम लेथन।
“हूं ऽऽ…ऽऽ…. कब के आए हौ  ?” बस चारे पाँच दिन होवत हे – महराज चट्ट ले उत्तर दिस।
 बिसाल मुड़ी ल डोलावत अकर -जकर देखे लागिस – कोनो हावय ते सेर चाउंर देवय। मन के बात गड़रिया जानय बारा घाट के पानी पीये महराज फट बिसाल के हावभाव ल समझगे।

’बात ये हे बिसाल भाइ्र्र’ बिच्चे म महराज ल टोंकत कहिथे – हमन हरेक साल इही समे म भगवान रूद्रदेव के मंदिर ले जम्मो दिसा म निकलथन अउ देषभर म घूम घूमके भगवान रूद्रदेव के अभिसेक खातिर आदेस लेथन। बिसाल कभू हूॅ … हाॅ काहय त कभू मूड़ी ल हला देवय। महराज के गोठ घोड़ा म सवार होइस ते रूके के नाम नई लय। बिसाल ह महराज के मुँह ल देखतेच रहिगे। महराज हँ बेग के चैन ल ‘चर्र’ के खोल दिस। एक ठन कापी, पींयर पींयर किताब अउ पेन निकाल डरिस। गोठ के संगे -संग महराज हँ पोथी -पतरा ल घला लमा डारिस।

कहिथे – हमर संस्थान म पूजा – पाठ, हवन – अभिसेक पूरा बिधि -बिधान से होथे फेर सरध्दालु भाई मन के सहुलियत खातिर समान्य अउ बिसेस दूनो परकार के करथन।
सुन के बिसाल मुसकाय बिगर नइ रहे सकिस। बामहन देवता थोरके चुप रहिस तहन फेर चालू। एक्सप्रेस फेल होगे। तैं डार – डार त हम पान पान। महराज रसीद बुक ल खोल डरिस –
ए देखव ! बाजू वाले गाँव उसलापुरिहा दाउ हँ महारूद्राभिसेक के आर्डर दे हावय।
 ’वो सब तो ठीक हे महराज ! फेर हमन अभीन अभिसेक-उभिसेक नई करावत हन।’
महराज सोचे लागिस पासा हा उल्टा परगे का ?
 बिसाल रूके -रूके कस आगू कहिस – ’अउ जिहां तक मोर खियाल हे दीन-हीन के सेवा ले जबर दीगर -धरम, दान -पुन अउ कोनो नइहे।’
महराज एक गोड़ म दूसर गोड़ के पाँव ल मढ़ाये बइठे हे। पँवतरी ल सहिलावत कहिथे – ’बिसाल भाई , वो सब तो आत्मा के शांति खातिर होथे, संसार के दुख – पीरा ले छुटकारा काकर ले मिलथे ? घर मे सुख-समृध्दि धन-मान कहाँ ले आथे ? एहू ल तो सोचॅव।
बिसाल सोच के धार म बोहाय लगिस। कोनो ल बूरा लगय अइसन कभू केहे हे, न करे हे। दुवार म आय बामहन देवता ल खाली हाथ कइसे लहुटावंव ? माटी के महक पानी के सुभाव अउ हवा के रंग ल कोनो अलग नई कर सकय। नस -नस म दया -धरम आदर अउ सम्मान, मीठ बोली अउ संस्कार छत्तीसगढ़ के पहिचान हरे, बैरी ल घला उंच पीढ़वा देहे के इहेंच रिवाज हे। जेने अइस तेकरे कटोरा ल भरिस, भले अपन लांघन भूखे रही जाय। फोकट में धान के कटोरा नई कहाय हे छत्तीसगढ़ हँ। अइसे -तइसे महराज अपन रसीद बुक ल खोल डारिस । उप्पर म क्रमांक डार के श्रीमान लगाके बिसाल के नाम लिखके पूछथे –
बाबू जी के का नाम हे ?
श्री बेद राम।
जाति म धोबी लिखागे, महराज हँ तो गाँव म घुसरे के पहिली सब्बो ल पता कर डारे हे। गोत के संगे -संग परवार के जम्मो सदस्य मन के नाम ल सरलग पूछ -पूछ के लिखिस।
महराज – ’कतेक वाला करना हे भाई साहब ?
बिसाल – ’ अब अतेक जोजियावत हव त एक सौ इनकावन रूपया वाला करवा लेथंव महराज, अइसे तो………….।
अतका म महराज के मन नई माड़िस कहिस – अतेक दुरिहा ले आए हन। सिरिफ तुंहर सरधा अउ उपर वाले के कृपा ….अउ तुमन …..!
बिसाल थोरिक सकुचागे। गाय कतको मरखण्डी रहय दूहे बर राउते जानथे – ले भई तीन सौ इनकावन लिख ले फेर ऽऽ…ऽऽ… ”।
 ’ अं…..ह….हां मै कहाँ अभी पइसा मागथौं। बिसाल के गोठ ल पूरा नइ होवन दिस। महराज हँ ओला फुग्गा कस फुलो के हरू कर दिस – ’ अभी तो नाम लिख के जाथौं। तुंहर परवार के नाम से उहां रूद्राभिषेक होही। जब हमार आगमन दुबारा होही, हम तुंहर परवार बर परसाद सरूप कुछु लाबोन तब आप पइसा देहू – अभी नहीं।’
बिदा करे के पहिली आधा डर आधा बल करत बिसाल ह पूछथे – ’चाहा चलही महराज ?
’अंधरा खोजय दू आँखी’।
महराज खुष होगे – ’जिहां परेम हे उहां सब कुछ हे बिसाल भाई, हिरदे मिलगे उहां का के भेदभाव ?
चाहा पीके महराज चलते बनिस।
चार महिना बीतगे। नेकी कर दरिया में डार। बिसाल धीरे -धीरे सब बिसर गे। एक दिन बिसाल ठउंका खाये बर बइठत रहय। आचमन करके भोग भर लगाये रिहिस हे के ठुक ले महराज पहुंच गे। बिसाल जेवन छोड़ के उठत रिहिस हे के “ नहीं नहीं बिसाल भाई ! तुमन सांति से भोजन करव, अइसन ह अन के अपमान होथे। मैं बइठ के अगोर लेथंव।”
बिसाल ह महराज के बात नई काट सकिस। महराज हँ बिसाल के खावत ले बिसाल के बाई ममता ले कटोरी मंगाके दू – तीन किसम के माला, नान -नान पुड़िया अउ परसाद निकाल के रख डरिस। बिसाल पाँव परके के एक तीर खुरसी म बइठ गे। महराज एक -एक करके बिसाल ल देखाथे – ये तुलसी माला, महापरसाद, भोज पत्र कहत लइका मन बर छोटे -छोटे माला, सुहागिन मन बर कुँहकु, बंदन, चंदन के पुड़िया कटोरी म रखके बिसाल ल समझाथे – ये फटीक ए, विषेष आप के लिये। येहा रूदराभिषेक के संगे -संग पवित्र अउ स्थापित होगे हे। आप ल केवल सनिच्चर के दिन नहा -धोके उदबत्ती जला के धारण करना हे।’
महराज जब दुबारा अइगे पूजा -परसाद ल सउँप दिस तब अउ का नेंग रहिगे, -भइगे बिदागरी ! बिसाल बिना कुछु कहे कुरिया म गइस अउ ला के चार सौ रूपिया महराज के हाथ म समरपित करके पाँव ल छूलिस –
 “कल्याणम् अस्तु।”
सनिच्चर के दिन बड़े फजर बिसाल नहा – धोके उदबत्ती जलाइस अउ महराज के दिए समान के कटोरी ल धुँगिया देखाइस। स्फटीक के माला ल निकाल के अपन घंेच म अरो लिस। एक अजीब आत्मिक आनंद बिसाल के हिरदे म खलबलाय लगिस। बिसाल ल सरग के सुख के अनभो होय लगिस।
रतिहा बिसाल सुते के पहिली माला टूटय झन सोंचके निकालिस अउ खटिया के खुरा म ओरमाइस। बिसाल कहँू सुने रहय कि स्फटिक के माला हँ आपस म रगड़ाथे त ओमाले चिनगारी फूटथे।
सोचिस – रगड़के देखव का ?
ओकर आत्मा धिक्कारथे ‘‘-च्च …..च्च..! अतेक बड़ संका’’ उहू हँ धरम के काम म ? महराज के दिए परसादी के परीक्षा, घोर पाप होही अउ कुछू नहीं।
कलथी मार के बिसाल सुते के बहाना खोजे लगिस। जी अकुलागे । नींद नइ अमराइस। गलत तो नइ करत हौं, चिनगारी कइसना होथे तेला तो देख सकत हौं। उठके बइठ गे । माला ल दूनों हथेरी के बीच म रखिस अउ रगड़े लगिस । अंधियारी रात, आँखी ल बटबटले ले नटेरे बिसाल टकटकी लगाए देखत – एक दू….तीन….रगड़त हे खर्र खर्र।
    बिसाल के बिसाल हिरदे ले सरध्दा ह ‘सर्र ‘के महराज बर गारी बनके निकल गे फेर फटीक के माला ले चिनगारी नइ निकलिस।

-धर्मेन्द्र निर्मल
कुरूद भिलाई जिला दुर्ग
9406096346

धर्मेन्‍द्र निर्मल की कहानी- धोखा

Loading

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *