छत्तीसगढ़ी व्यंग्य-
गुरुजी के गुरुरनामा
-धर्मेन्द्र निर्मल
गुरुजी के गुरुरनामा

छत्तीसगढ़ी व्यंग्य-गुरुजी के गुरुरनामा
बरसो बाद काली ‘‘नमो भूखमर्रा गुरूजी’’ के दर्शन होगे। पढ़त रहेन ते समे सब्बो लइका वो गुरूजी संग कोनो मेरन झन संघरन कहिके बिनती बिनोवय। वो कहूँ बजार -हाट, रद्दा -बाट म दिख जावय त दुरिहे ले सब कन्नी काटके छू-लम्मा हो जावय। कोनो जगा अचानक -भयानक संघर जावय त वो गुरूजी अपन सब काम -बूता ल भूला-छोड़ देवय। एकदम टक लगाय हमरे कोति ल देखत राहय। उत्ता -धुर्रा रेंगत रहय तेनो हँ मरहा-खुरहा मन बरोबर एकदम धीरे -धीरे चले लगय। देख परन त मुड़ी ल नवाए कनेखी देखत बाँचे के प्रयास म सपटे-सपटे असन रहन। कहूँ नइ देखे राहन त गुरूजी हँ अपने अपन खाँसय -खखारय। अचानक देख परन, नजर मिल जावय, त वोह बिलकुल बिकेटकीपर बरोबर तियार देखत राहय कि कब हम नमस्ते के बाॅल फेंकन अउ वो गपाक के लपक लेवय। जब ओकर खखाय -भूखाय चेहरा अउ उसवाय आँखी ल नमस्ते बर अलकरहा अकबकाए -कलबलाए देखन त हमीमन ल नकमर्जी लगे लगय। नइ चाहत हुए घलो जबरन ’नमस्ते गुरूजी’ कहे बर लगय। हम नमस्ते नइ कहे पाए राहन वोह बिना कुछु देरी करे तुरत जुवाब दे देवय-
नमस्ते ! नमस्ते !!
गुरू आखिर गुरू होथे। वोह हमार चेहरा ल पढ़के जान-समझ लेवय कि अब एह नमस्ते करइया हे। तेकर पाए के हमर आधे अधूरा नमस्ते निकले राहय अउ वोह मुड़ी ल हलाके जोरदरहा किकिया-चिचियाके नमस्ते कहि डारय। एके घँव तको नहीं दू-तीन घँव कहि डारय-
नमस्ते ! नमस्ते !! नमस्ते !!!
ओकर से ए विज्ञापन होजय कि तीर -तखार के मनखे देख -सुनके जान -समझ जावय कि एह गुरूजी हरे। अउ इहाँ गुरू-चेला के भरत-मिलाप होवत हे।
हरू खर्चा म गरू बिग्यापन हो जावय। एला कहिथे बेवस्था। ए आय असल प्रबंध।
नमस्ते ल झोंक -लपक लेवय तेकर पीछू वोह अपन काम – बूता कोति धियान देवय।
बिहान भर ओ घटना हँ छात्र मित्र मण्डली बर दिनभरहा मनोरंजन के साधन बने राहय।
उही ल खाके खखाय गुरूजी दिनभर अपन गम भुलाए गुमसुम गमगमाए राहय।
गुरूजी ल देखते ही दुरिहा ले मैं दूनो हाथ ल जोर लेंव- नमस्ते गुरूजी !
वो मनढेरहा किहिस- नमस्ते (जानो मानो काहत हे के राहन दे, अब मोला तुँहार झिटी-झाँझर रिंगी -चिंगी नमस्ते के जरूरत नइहे)
बड़ अचम्भा लागिस। अचम्भा के खम्भा ल खखौरी म चपके-दाबे मैं मुस्कान ल हुदेनत होंठ म लान के कहेंव – अबड़ दिन बाद आपके दर्षन होइस गुरूजी, बड़ खुषी होवत हे।
गुरूजी मुसकियावत असमान ल देखे लगिस। ( मानो काहत हे -तोर ले जादा तो मोला खुषी होवत हे।)
मोर अहो भाग्य ! (मन के बजबजावत नाली ले बुलबुला फूटिस, सोचेंव -नमस्ते कहइया मिलगे कहिके ?)
होथे …होथे। (उहूँ ……. मोला ‘‘सच्चा गुरूजी पुरूस्कार’’ मिले हे तेला तोला बताना हे कहिके।)
मैं कहइयच रहेंव- आपमन ल ‘‘सच्चा गुरू………’’ गुरूजी मोर मुँह के भाखा ल छीन लिस अउ आँखी ल लिबलिबावत कहिस -इही साल मैं ‘‘सच्चा गुरूजी पुरूस्कार’’ से सम्मानित होए हौं।
गाड़ा गाड़ा बधई हो गुरूजी।
वो मुड़ी ल टेटका कस हला -डोलाके स्वीकार करिस। ( स्वीकार का करिस जानो मानो कोनो कपड़ा के धुर्रा झटकारते तइसे झर्रा दिस-हूूं……का तैं अउ का तोर बधई।)
आपमन ए पुरूस्कार ल पाके कइसे अनभो करत हौ।
………. गुरूजी दूनो हाथ ल उठा भर दिस, भीतरे -भीतर गदगदइ के मारे कुछू नइ बोल सकिस।
मैं जानत रेहेंव कि एकर ले तिरछन, बंचक-पंचक, नवटप्पा अउ तीन-पाँच करइया कोनो हे न तीन काल म कोनो होवय। तभो कहेंव – सब आपके मेहनत अउ ईमानदारी के फल ए गुरूजी।
बहुत पापड़ बेले बर परथे बेटा।
अतके काहत गुरूजी मोर हाथ ल धरके तीरत अपन घर कोति लेगे।
चल न .. एमेर खड़े – खड़े का बताहूँ, घर म बने बइठ के फुरसुतहा गोठियाबो ।
मैं चरनदास ल नइ निकाले पाएँव वोह लकर -धकर जाके भीतर ले अपन पोथी -पुरान ल ले लानिस। मोला एकक करके देखाए लगिस –
देख, तुँहर समाजिक बइठका के प्रमाणपत्र। ए ओकर फोटू।
अरे ! ए बइठका कब कहाँ होइस गुरूजी हमला काँही पतच नइ चलिस।
उहीच तो …..खोजे बर परथे गा, मोती बइठे-बइठे अइसने भूइयाँ म परे नइ मिलय -‘जिन खोजा तिन पाइयाँ गहरे पानी पैठ’। गुरूजी मंद- मंद मुसकाए लगिस – कोनो जात के समाजिक बैठक होवय, मैं जरूर उपस्थित राहँव। ओ जात के विषेषता के बखान करौं। दू चार झिन ओ जात के मनखे मन ल महापुरूष बता देववँ। प्रमाणपत्र मिलनच हे।
अच्छा ! आपमन तो अक्सर इहाँ-उहाँ ए कार्यक्रम कभू ओ कार्यक्रम म घूमते राहव।
त ….. मैं कोनो दिन बारा बजे के पहिली स्कूल नइ गएँव, न दू बजे के बाद कभू स्कूल म रहेंव। तभो ए शत- प्रतिषत हाजरी के प्रमाण देख ! अब सोच, ए कमाल होइस कइसे ? गुरूजी अँखिया-अँखियाके बताए लगिस – बीमार खटिया म परे रहँव तभो मोर गैरहाजरी नइ चढ़ै। दूसर गुरूजी अनुपस्थित हे अउ छुट्टी के आवेदन घलो नइ हे। अउ कहूँ कोनो साहेब- सुधा निरीक्षण बर पहुँच गे त उन्कर म लाल स्याही के टीका लग जाही। हमार न नइ लगय।
गुरूजी ए, चुप रहिबे त एकर समझ म नइ आवत हे कहिके उल्टा गोला दाग देथे। ओकर ले अच्छा मैं कुछ पूछना ही उचित समझेंव। मैं धीरे से ओकर दिमाक के तरिया म अपन दिमाक के भैंस ढील देंव –
अइसे काबर गुरूजी ?
गुरूजी जोषियागे – काबर कि हम पहिलीच ले टीकावन टीक डारे रहिथन। अइसन म कतको बड़े साहेब -सुधा होवय हमार सेर -सीधा सुविधा के आगू म बोक्को- बोकरा हो जथे। ए सब बेवस्था देखे-बनाए बर परथे, जाने।
ओतके म एक झिन लबरा नेता मीठलबरा सिंग छेरीचरे के गोड़ म घोण्डइया मारत गुरूजी के फोटू देख परेंव। जेला जनम भर गुरूजी पानी पी पीके गारी देवय।
एह तो आपमन ले कतकोन के छोटे हरे का गुरूजी ?
का होही त ! पाँव परे म माथा नइ खियावय। जेमा फर लगथे उही पेड़ नवथे। एहू जानत होबे माथ नवाए ले कोनो छोटे नइ होजय बेटा । मोला प्रमाणपत्र से मतलब। उही चढ़ौतरी के पलौंदी ले ड्यूटी के दौरान प्रमाणपत्र के फर म बढ़ौतरी करना रिहिस हे बस।
गुरूजी ओतके म कुर्सी ले झुकके मोर कान तीर म अपन बस्सावत मुँह ल टेकाके धीरे से कहिस – तैं तो अतके ल देखे हस। मैं तो एकर कस कतको जीछुट्टा, चोरहा, लबरा अउ लंपट नेता मन के मंच म चढ़के उन्कर चरण पखारे हौं। चारण घलो गाए हौं। एह अइसनेहे सब करम के परिणाम ए बेटा ! जउन आज मैं सम्मानित होए हौं। स्वाभाविक हे सम्मान देबे त सम्मान पाबे। लगाए बर बम्हरी, फरे बर आमा कहिबे त कइसे होही बता ? पाँव परत म पद मिलय, त कोन फोकट के करम छीलय।
गुरूजी आगू बोमियाते रिहिस -जनगणना ड्यूटी मैं नइ करेंव। बेरोजगार टूरा मन ले ठेका म करवाके ’सर्वश्रेष्ठ जनगणना करमचारी’ के प्रमाणपत्र पा लेंव। सरकार ल जनगणना से मतलब, बेरोजगार ल पइसा से अउ हमला प्रमाणपत्र से जी !
पोलियो डृाप मैं नइ पिलाएँव तभो सर्वश्रेष्ठ पोलियो करमचारी हौं। प्रमाण तोर आगू म हे।
मैं मनेमन सोंचे लगेव – अरे ! भयंकर !! गुरूजी तो वाकइ म गुरूजी हे भई। विचार भले पोलियो-ग्रस्त हे फेर दिमाक एक नंबर के मौकापरस्त हे।
गुरूजी सरलग अपन बखान के गरू-गरू बात निकालते गइस –
कोनो बड़का करमचारी-अधिकारी आवय, सबले पहिली मैं पाँव परँव। चिन -पहिचान होनच हे।
मैं कहेंव – गुरूजी एक बात मोर दिमाक म नइ पचत हे।
गुरूजी तुरत हाजमोला फेंकिस – पूछ, पूछ !! आज तोला सब ज्ञान से परिपूर्ण कर देथौं बेटा।
सरकारी योजना जइसे कि पोलियो ड्यूटी, जनगणना या चुनाव हँ सरकार के जिम्मा होथे त हाजरी चढ़गे। फेर कोनो समाजिक सम्मेलन के बेरा म आप उहों उपस्थित हौ अउ रजिस्टर के हिसाब से स्कूल म घलो उपस्थित हौ, ए कइसे होइस ?
उही ….सब बेवस्था। जइसे पैसा हाथ के मैल, तइसे सब बेवस्था के खेल।
गुरूजी हिन्दी साहित्य के बने जानकार रिहिस। अपन पोटली ले निकाल के एक ठन जोरदरहा लाइन फेंकिस – सेवा ले मेवा बढ़य, त कोन बलि कस बोकरा चढ़य।
मैं वाह ! वाह !! काहत गुरूजी के चाहत ल अउ बढ़ाए लगेंव – ओकर फायदा गुरूजी ?
गुरूजी के थोथना म गुरूता – गरूर के प्रमाण पत्र लकलक ले चमके लगिस।
उही सब प्रमाणपत्र ल नत्थी करे बर परथे ‘‘सच्चा गुरूजी पुरूस्कार’’ के फारम संग।
जब आप अपन करम म बने हौ त ए सब प्रमाणपत्र अउ दुनियादारी के का मतलब गुरूजी ?
मोर सवाल के लबेदा परे ले गुरूजी के मंघार झन्नागे। दिमाक चार भाँवर घूमगे। वो अपन सात भँवरी संगिनी ल तुरत चिचियाइस – पानी लान तो वो एक गिलास।
गुरूजी सोचे लगिस – पूरा गोबर गनेस हे टूरा हँ। रात भर रमायन पढ़े, बिहिनिया पूछे – राम-सीता कोन ? त बताथे – भाई -बहिनी।
पानी के लानत ले गुरूजी आँखी ल मूँदके माथा म अँगरी फेरत मने मन गारी दे लगिस – अतका चिचिया- चिचिया के सिखाएँव-पढ़़ाएँव फेर तैं बोदा के बोदा रहे रे। अरे अक्कल के दुष्मन ! सौ बक्का एक लिक्खा। कोन कोन ल बतावत फिरतेंव कि मैं टाइम म स्कूल आथौं-जाथांै। हरेक सरकारी योजना ल बिना नागा करे जी परान देके सबले पहिली मैं पूरा करथौं। मैं सदा समे के पाबंद रथौं। ये सब प्रमाणपत्र के बिना मोला ‘‘सच्चा गुरूजी पुरूस्कार’’ कइसे मिलतिस।
मोर प्रष्न के बाद मोर प्रति गुरूजी के मन म तिरस्कार भाव आगे। संगे संग ओकर कुचराए-कोचराए दिमाक म चारी चरित्र के घलो सूत्रपात होगे। घेरघेरहा टोटा ले धीरे से कहिस – वो करमचंद सतरंगा हे न ?
मैं पूछेंव – बीईओ साहब गुरूजी ?
हाँ ….हाँ उही। वो नलायक ल साहब झन कहे करौ मोर आगू म, मोर मइन्ता भोगा जथे ओकर नाम सुनके। जनम के जाँगर चोट्टा आय वोह। जस नाम तस काम। इही करम करके वो सकलकर्मी, पहिली संकुल अधिकारी बनिस। छुट्टी के आवेदन पत्र लिखे बर नइ आवत रिहिसे। छुट्टी ल छट्ठी लिखय। हप्ता म चार दिन स्कूल आजय त अब्बड़ होजय। कोनो दिन मुड़ पिरावथे, कोनो दिन बाई के कनिहा धर लेहे, त कोनो दिन लइका ल टट्टी होवथे। …..आज वो….. हमला सिखोथे …..अयँ।
अचानक पता नहीं गुरूजी ल का सूझिस। पोंगा बंद होगे। चारी के बाना ल उतारके गंभीरता के चद्दर ओढ़ लिस। फेर धीरे से कहिथे- अइसे……मैं अब संकुल समन्वयक होगे हौं। जिला से आडर निकल गेहे। बस एक दू दिन म मोर हाथ म अइ जथे।
अब मोर बर गुरूजी गरू होगे रिहिस अउ मैं गुरूजी बर हरू। मैं लकर- धकर संकुल समन्वयक के बधाई थमावत उठते रहेंव, ओइसने म गुरूजी कहिथे – चल, ठीक हे। अच्छा लगिस। मिलत रहिबे।….चाय तो नइ पीयत होबे ?
नहीं …नहीं गुरूजी।
गुरूजी दाँत ल खिसोरिस – ओकरे सेति नइ बनवाएँव हें हें हें……!
महूँ दाँत ल निपोरत रेंगते बनेंव।
-धर्मेन्द्र निर्मल 9406096346