छत्तीसगढ़ी बाल कविता: घरघुँदिया भाग-4-कन्‍हैया साहू ‘अमित’

छत्तीसगढ़ी बाल कविता

छत्तीसगढ़ी बाल कविता गतांक से आगे

घरघुँदिया भाग-4

-कन्‍हैया साहू ‘अमित’

छत्तीसगढ़ी बाल कविता: घरघुँदिया-कन्‍हैया साहू 'अमित'
छत्तीसगढ़ी बाल कविता: घरघुँदिया-कन्‍हैया साहू ‘अमित’

छत्तीसगढ़ी बाल कविता: घरघुँदिया

बाल कविता

67- माछी

भनन-भनन भन करथे माछी।
देख असाद सँघरथे माछी।।

साबुन ले नित धोवव हाथ ल।
नइ ते पेट सँचरथे माछी।।

सरहा गलहा जीनिस छोड़व।
इँखरे पाछू परथे माछी।।

निर्मल तन ला ये बिसरावत।
पीप घाव ला धरथे माछी।।

राखव साफ सफाई सुग्घर।
एखर ले बड़ डरथे माछी।।

68- कुकुर

कुकुर पोसवा हमरो घर हे।
चोर ल एखर गजबे डर हे।।

बाँचे-खोंचे पानी-पसिया।
छप्पन भोग असन एखर हे।।

दिनभर फुरसदहा सुतथे ये।
रतिहाकुन टन्नक अलकर हे।।

पुछी हलाथे, मया जताथे।
रहू चेतलग ये कट्टर हे।।

जीभ लमाये हँफरत रहिथे।
नींद घलो मा ये खरखर हे।।
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69- मुनु बिलई

म्याऊँ म्याऊँ नरियाथे बिलई।
मुसुवा देखत पनछाथे बिलई।।

रँधनी खोली के राँई-छाँई।।
दूध दही ला चुप खाथे बिलई।।

ओन्हा-कोन्हा अँधियारी भावय।
कर्री आँखी छटकाथे बिलई।।

भुरुवा सादा करिया कबरी।
पकड़े धरबे गुर्राथे बिलई।।

बघवा के मोसी हरय भले जी।
देख कुकुर ला डर्राथे बिलई।।
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70- बेंदरा

जात बेंदरा के होथे जी, अड़बड़ के उतलँगहा।
फुलगी-फुलगी चढ़य तपय जी, जइसे के डँगचगहा।।

खीस-खीस खो-खो खैटाहा, देखत दाँत निपोरै।
करथे ये बहुते नसकानी, छानी परवा फोरै।।

बखरी बारी खेत-खार के, नँगते करँय उजारा।
दल के दल हबरँय रोजे इन, मुसकुल होय गुजारा।।

थोरिक खावँय बहुते फेंकँय, हावँय गजब उपाई।
देख बेंदरा नकल उतारय, करथें बड़ चतुराई।।

जइसे-जइसे जंगल कटथे, छूटय इँखर बसेरा।
दोष हमर हे, गाँव शहर मा, डारँय आ के डेरा।।

71- भलुवा

करिया-करिया चुंदी वाला।
जंगल के भलुवा मतवाला।।

अपने मन के होवय राजा।
आनी-बानी खावय ताजा।।

भलुवा निच्चट हें लजकुरहा।
बिगडैं तब बहुते बयसुरहा।।

पकड़ पकड़ के खाथें मछरी।
पानी उथली हो के गहरी।।

मधुरस खावँय चाँट-चाँट के।
भलुवा भलुवी बाँट-बाँट के।।

72- हाथी राजा

पाना पतई खावय हाथी।
सबके मन ला भावय हाथी।।

बड़ सिधवा अउ बलकर भारी।
काल बनय बइहावय हाथी।।

शाकाहारी एखर जेवन।
अति कुसियार सुहावय हाथी।।

चार पाँव हे खम्बा जइसन।
धम-धम आवय जावय हाथी।।

सूपा जइसन कान बडधे हें।
लम्बा सूँड़ हलावय हाथी।।

फुतका धुर्रा मूँड़ म डारय।
पानी सींच नहावय हाथी।।

73- उँटवा

देखव कइसन होथे उँटवा।
भारी बोझा ढोथे उँटवा।।

लाम-लाम बड़ पाँव चार हे।
जाने कइसे सोथे उँटवा।।

सरपट भागय रेगिस्तान मा।
रेती कहाँ पदोथे उँटवा।।

सबले सिधवा सुघर पोसवा।
नइ तो कभू बिटोथे उँटवा।।

लहसत लहसत सरलग रेंगय।
धीरज धरे सिखोथे उँटवा।।

74- गाय

दूध दही घी लेवना, सेहत हमर बनाय।
कलजुग के अमरित इही, जेला देथे गाय।।

दाना पानी दव सुघर, दिही दूध भरपूर।
गोबर छेना थापलव, होय गरीबी दूर।।

गउ माता पबरित हवय, कहिथे बेद पुरान।
भाव सहित सेवा जतन, मिलथे सुख वरदान।।

जेखर घर मा गाय हे, लक्ष्मी ओखर तीर।
खानपान मा पुष्टई, देंह पाँव दलगीर।।

गउ माता बाहिर फिरय, कोरा कुकुर घुमाय।
ये तो बड़ अपराध हे, वोला लगही हाय।।

75- केरा

झोत्था-झोत्था फरथे केरा।
कोरी-कोरी उतरय घेरा।।

कच्चा फर के साग बना ले।
पक्का ला गुपगुप तैं खा ले।।

बड़ गुदार केरा हा होथे।
बारी बखरी बहुते बोंथे।।

जौन बेर एला तैं खाबे।
गुलूकोस तुरते तैं पाबे।।

हावय येहा बड़ गुणकारी।
खावव केरा रोज संगवारी।।

76- आमा

महर-महर ममहावय आमा।
गरमी ऋतु मा आवय आमा।।

कच्चा मा अमसुरहा अब्बड़।
पक्का गजब मिठावय आमा।।

गाढ़ा-गाढ़ा रस एखर हे।
अपने तीर बलावय आमा।।

का सियान अउ का लइका अब।
सबके मन ला भावय आमा।।

हे सुवाद मा सबले बढ़के।
राजा तभे कहावय आमा।।

77- अमली

लटलट लटके अमसुर अमली।
मनभर खावँय कमला कमली।।

फरथे रुख मा कोकी-कोकी।
नइ तो आवय खाँसी-खोखी।।

नून लगाके खा ले चट-चट।
कोन्हों ला नइ लागय असकट।।

कोंवर-कोंवर कुरमा भाजी।
गुपगुप खावव होके राजी।।

अमली बीजा तीरी पासा।
छँइहाँ बइठे खेल तमाशा।।

78- हमर जेवन

सुघर संतुलित होवय जेवन।
सोंच समझ के करहव सेवन।।…

सेहत सिरतोन असल धन हे।
पोठ देंह ता सुंदर मन हे।।
बस सुवाद के चक्कर छोड़व,
डँट के खाय म हमर मरन हे।।
खाव भले तुम खेवन-खेवन।

सुघर संतुलित होवय जेवन।
सोंच समझ के करहू सेवन।।~1

भाजी-पाला अउ तरकारी।
खावव तन-तन शाकाहारी।।
पताल, मुरई, ककड़ी, खीरा,
राखव रोजे अपने थारी।।
सरी मौसमी फर हम लेवन।

सुघर संतुलित होवय जेवन।
सोंच समझ के करहू सेवन।।~2

दूध दही घी दलहन दलिया।
खावव संगी भर-भर मलिया।।
पीयव आरुग पानी पसिया,
पिज्जा बर्गर होथे छलिया।।
शेखी मा झन प्राण ल देवन।

सुघर संतुलित होवय जेवन।
सोंच समझ के करहू सेवन।।~3

79- हमर तिहार

हरियर-हरियर हे हमर हरेली।
सावन मा ये छावय बरपेली।।
इही महीना मा आवय राखी।
भाई बहिनी के पिरीत साखी।।

भादो म भोजली तीजा-पोरा।
बेटी माई बर गजब अगोरा।।
कुँवार नवराती म भक्ति भारी।
कातिक मा जगर-बगर देवारी।।

पूस म पुन्नी आय छेरछेरा।
माई कोठी, धान हेर हेरा।।
फागुन मा रिंगी-चिंगी होरी।
एमा भरथे बड़ मया तिजोरी।।

80- गीत सुमत के

एकमई यदि रहना हे ता, गीत सुमत के गाये जाव।
जात-पात के टोरव भिथिया, सब ला अपन बनाये जाव।।

आनी-बानी बोली भाखा, अलग-अलग हे सबके भेस।
जनम धरे हम ये भुँइयाँ मा, हमर मयारू भारत देस।।
रिंगी-चिंगी फुलवारी कस, एला सदा सजाये जाव।
एकमई यदि रहना हे ता, गीत सुमत के गाये जाव।।-1

चारो मूँड़ा ले बैरी मन, ताकत हावय हम ला देख।
सावचेत हम रहिके संगी, आरो लेवत रहन सरेख।।
थर्र-थर्र काँपय घरभेदी, अइसन कदम उठाये जाव।
एकमई यदि रहना हे ता, गीत सुमत के गाये जाव।।-2

लालच मा नइ आना हे जी, देवय चाहे कतको माल।
थोरिक पइसा के चक्कर मा, होथे बहुते बिगड़े हाल।।
संका सुभहा टारव मन के, भुसभुस सब मेटाये जाव।
एकमई यदि रहना हे ता, गीत सुमत के गाये जाव।।-3
जात-पात के टोरव भिथिया, सब ला अपन बनाये जाव।

81- लुहुर-लुहुर लइकामन के

लुहुर-लुहुर लइकामन के।
होय रूप ये भगवन के।।

देंह केंवची मन कोंवर।
निर्मल छबि जस दर्पन के।।

गुरतुर-गुरतुर गोठ गजब।
जइसे मधुरस मधुबन के।।

घर अँगना मा किलकारी।
चिरई इन नील गगन के।।

गरमी मा जुड़ पुरवाही।
सरगबूँद कस सावन के।।

82- मीठ-मीठ बोल

मीठ-मीठ तैं सबले बोल।
मया दया के मधुरस घोल।।

चुगरी-चारी चरिहा छोड़।
सुमता के तैं बँधना जोड़।।

राखव सँइता अमित अतेक।
होय गुजारा हमर जतेक।।

अंतस के तैं इरखा लेस।
बोली ले झन पहुँचै ठेस।।

गुरतुर भाखा ओखद जान।
करुहा भाखा लेवय प्रान।।

झन कोनो हम ला उभराय।
अपन कमाई जम्मों खाय।।

83- शीत

बगरावय रतिहा हा शीत।
गावत गुरतुर-गरतुर गीत।।

चमकै मोती जइसे गोल।
दमकै हीरा कस अनमोल।।

छम-छम नाचय पाना संग।
अजब अनोखा एखर ढ़ंग।।

होत बिहनिया कहाँ लुकाय।
बाँह किरण के शीत समाय।।

मन करथे के राखँव साथ।
लाख जतन पर खाली हाथ।।

84- डोकरी दाई

हावय एक डोकरी दाई।
दिनभर अपने करय बड़ाई।।

नइ तो मानँय कखरो कहना।
अपन चाल मा चलते रहना।।

साधारण हावय कद काठी।
रेंगय टेंकत-टेंकत लाठी।।

थोरिक उँचहा येहा सुनथे।
चिटिक बेर ले वोला गुनथे।।

बइठे रहिथे भले दुवारी।
घर के करथे ये रखवारी।।

85- पढ़े ल जाबो

चलव जहुँरिया पढ़े ल जाबो।
पढ़ लिख के हम भाग जगाबो।।

अपने रद्दा अपने गढ़बो।
आगू-आगू सबले बढ़बो।।

पढ़बो-लिखबो बनबो ग्यानी।
करबो जग मा काज सुजानी।।

हमूँ नागरिक बने कहाबो।
सुमता गंगा संग नहाबो।।

हम पढ़बो ता देश ह बढ़ही।
नित विकास के रद्दा गढ़ही।।
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86- वीर सिपाही

देशप्रेम मा जीबो मरबो।
भारत माँ के पीरा हरबो।।

हवय देश के भीतर बैरी।
ओखर छाती ला हम छरबो।।

वीर सिपाही खाथँन किरिया।
अपन देश बर करम ल करबो।।

हमर प्रान हे धजा तिरंगा।
अमित पतंगा कस हम जरबो।।

जनम धरे हन भारत भुँइयाँ।
एखर कोरा मा हम तरबो।।
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-कन्हैया साहू ‘अमित’
शिक्षक-भाटापारा छत्तीसगढ
गोठबात ~ 9200252055

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2 thoughts on “छत्तीसगढ़ी बाल कविता: घरघुँदिया भाग-4-कन्‍हैया साहू ‘अमित’

  1. बहुत सुंदर कविताएं है आपकी।।
    बचपन से लेकर आज और भविष्य के लिए प्रेरणा के स्रोत से ओतप्रोत कवितायेँ।
    मार्मिक,हृदयस्पर्स,वास्तविकता,आधुनिकता आदि का गहन चिंतन मिलता है,आपकी कविताओं में।।
    अनुकरणीय पहल
    बहुत-बहुत मुबारक हो गुरूजी।।

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