| कृति | छत्तीसगढ़ के लोक आभूषण |
| कृतिकार | श्री डुमन लाल ध्रुव |
| समीक्षक | डॉ. अंबा शुक्ला |

छत्तीसगढ़ का लोक जीवन अपनी समृद्ध परंपराओं, संस्कृति, और आस्थाओं के लिए जाना जाता है। यहां की जनजातियों और ग्रामीण समाज में लोक आभूषण केवल श्रृंगार का साधन नहीं, बल्कि सामाजिक, धार्मिक, वैज्ञानिक, और ऐतिहासिक दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण है। लोक साहित्यकार श्री डुमन लाल ध्रुव द्वारा लिखित ” छत्तीसगढ़ के लोक आभूषण ” सांस्कृतिक दस्तावेज के रूप में स्थापित होती है।
छत्तीसगढ़ में गहनों को केवल सौंदर्यवर्धक वस्तु नहीं माना जाता, बल्कि यह सम्मान, सामाजिक स्थिति, जातिगत पहचान और जीवन संस्कारों से जुड़ा हुआ है। बचपन से लेकर मृत्यु तक, स्त्री-पुरुष दोनों के जीवन में गहनों की भूमिका संस्कारों में प्रत्यक्ष देखी जा सकती है।
गोंड, बैगा, मुरिया, भतरा, हल्बा, उरांव जैसे जनजातीय समुदायों में पारंपरिक गहनों का उपयोग शरीर के विभिन्न अंगों पर किया जाता है। इनमें चंदी की बिछिया, कौड़ी की माला, धातु की करधनी, तांबे के तोड़ा जैसे आभूषण विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। ये गहने न केवल सौंदर्यबोध को दर्शाते हैं बल्कि जनजातीय गौरव का प्रतीक भी हैं।
लोकनाट्य जैसे पंथी, करमा, राउत नाचा आदि में कलाकारों के वस्त्र और आभूषण पात्र की भूमिका, जाति, लिंग और समाज में उसकी स्थिति को स्पष्ट करते हैं। इससे आभूषणों की सांस्कृतिक और रंगमंचीय उपयोगिता भी स्पष्ट होती है।
धार्मिकता एवं वैज्ञानिकता के रूप में भी कई गहनों का अपना अलग महत्व है । जैसे मंगलसूत्र विवाहित स्त्रियों की सुरक्षा का प्रतीक माना जाता है। नाक की नथ को सांस संबंधी विकारों में लाभकारी माना जाता है। ये दृष्टांत दर्शाते हैं कि लोक आभूषण केवल परंपरा नहीं, गहरे वैज्ञानिक और सामाजिक विचार से भी जुड़े हैं।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में
डुमन लाल ध्रुव की पुस्तक में प्रागैतिहासिक युग से लेकर आधुनिक काल तक के आभूषणों का विस्तृत अध्ययन मिलता है। महाभारत काल में वर्णित कर्ण-कुंडल, मुकुट, अंगदा आदि की उपस्थिति छत्तीसगढ़ी परंपरा में दिखाई देती है। मौर्य-शुंग, वाकाटक, चंदेल, तोमर और पुनरुत्थान काल में धातु और रत्नों से बने गहनों की शैली और उपयोग में विविधता दिखती है। आधुनिक काल में इन आभूषणों का पुनरुत्थान लोक कला, साहित्य, और फिल्म जगत में होता दिखता है।
छत्तीसगढ़ी गहनों के प्रकार में स्त्रियों के आभूषण – पैर के बिछिया, पायल, तोड़ा हाथ व उंगलियों के कड़ा, चूड़ी, अंगूठी, गले के हार, माला, मंगलसूत्र, नाक, कान, माथे और सिर के नथ, झुमका, टीका, सिंदूरदान, जूड़ा पिन, पुरुषों के आभूषण अंगूठी, बाजूबंद, कान की बालियां, कंठी, चंद्रहार आदि। बालकों के आभूषण, चांदी की करधनी, कड़ा, गले की माला, गले का ताबीज, वस्त्रों में टांकने वाले गहने, सिक्कों की लड़ी, कौड़ियों की माला, घुंघरू लगे परिधान संस्कारों, अनुष्ठानों और सामाजिकता में उपयोग आभूषण जन्म, नामकरण, मुंडन, विवाह और मृत्यु जैसे संस्कारों में अहम भूमिका निभाते हैं। एक जाति विशेष के गहनों से उसका सामाजिक स्थान और सांस्कृतिक पहचान स्थापित होती है।
फिल्म और नाट्य में लोक आभूषणों की उपस्थिति आज भी छत्तीसगढ़ी फिल्मों और मंचीय नाटकों में पारंपरिक आभूषणों का उपयोग संस्कृति को जीवंत बनाने का माध्यम बन चुका है। इससे नई पीढ़ी को लोक विरासत से जोड़ने का कार्य हो रहा है।
डुमन लाल ध्रुव द्वारा रचित ” छत्तीसगढ़ के लोक आभूषण ” केवल एक कृति नहीं बल्कि एक सांस्कृतिक धरोहर है। यह पुस्तक छत्तीसगढ़ के इतिहास, समाज, संस्कृति और सौंदर्य दृष्टि का एक साक्ष्य बनकर पाठकों को छत्तीसगढ़ी जीवन से जोड़ती है। यह गहनों की चुप भाषा को वाणी देती है ।
एक ऐसी वाणी जो सौंदर्य में संस्कृति और परंपरा की गरिमा गूंजती है।
– डॉ.अंबा शुक्ला
सुखराम नागे शासकीय महाविद्यालय नगरी (छ.ग.)







Leave a Reply