श्रीमती तुलसी देवी तिवारी की कहानी- चिट्ठी

    चिट्ठी -तुलसी तिवारी

श्रीमती तुलसी देवी तिवारी की कहानी- चिट्ठी
श्रीमती तुलसी देवी तिवारी की कहानी- चिट्ठी
पूरन सादी वर्दी में घर से बाहर निकलने को तैयार हो रहा था कि डाकिये ने द्वार पर खड़े हो अपनी साइकिल की घंटी बजाई।

            ‘‘किसका घर चाहिए ? ’’ बाहर निकलते हुए पूछा उसने।

            ‘‘पूरन सिंह के नाम की चिट्ठी है ?’’ डाकिये ने पत्रों के पुलिंदे से एक भारी सा लिफाफा निकालकर उसके हाथ में रख दिया।’’ रजिस्ट्री थी

            ‘‘आप यहाँ दस्तखत कर दें मुंशी जी ?’’ उसने आदर से अपना रजिस्टर पूरन के सामने कर दिया। उसी की बाल पेन से पूरन ने हस्ताक्षर किये और असंख्य प्रश्नों एवं धड़कते दिल से लिफाफा ले कर अन्दर चला गया।

            यह पुलिस क्वार्टर नं. 210 था, पुराने ढ़ंग का बना जिसके खपरैल लोना लगकर लाल धूल की तरह पानी में घुलते जा रहे थे, बारिस का सारा पानी अन्दर ही आता था, पोलीथिन से ढ़ंककर रखना पड़ता था, आवश्यक सामान, छोटा-सा आँगन, परछी जिसके आधे में खाना पका लो, एक मात्र कमरा जिसमें जीवन की सारी आवश्यकताएँ पूरी करो। फिर भी खुशी है, शहर में अपना क्वार्टर है और वह भी मुफ्त का। कमरे में खाट पर लेटी थी सुनैना, त्यौहारी काम से थकी है लगता है, दो साल की बच्ची मुस्कान उसके आसपास खेल रही थी, लगता था, आज उसे तैयार नहीं कराया गया, चेहरे पर धूल पसीने, रेमट आँसू सबके मिश्रण से बने दाग सूख चुके थे।

            पूरन आज तीन दिन बाद घर आया था, त्यौहारों पर यही हाल रहता है पुलिस वालों का, जब सारी दुनियाँ के लोग दूर-दूर से आकर अपने परिवार से मिलते हैं, पुलिस वालों के परिजन उन्हें देखने को तरसते हैं। क्या करता पूरन ? इस बीच, छोटी दीवाली, धनतेरस, बड़ी दीवाली सब बीत गई। रात दिन यहाँ से वहाँ ड्युटी, सब जगह जुएँ के अड्डों में छापे मारते, कुछ जप्ती बनाते, कुछ न कुछ आवश्य बच जाता, जो हाथ आता थाने में आकर इधर से उधर हो जाता, अधिकारी छूट देते हैं, लक्ष्मी की कृपा चाहे जिस पर हो जाय, वेतन एक दिन पूर्व ही मिल गया था, ताकि पुलिस वालों के परिजन दीवाली मना सकें – दीवाली हँ, इसके लिए घर में रहना भी तो आवश्यक है। एक तो यह मिल गई कुलक्षणी। एक औरत होती है पति के साथ चलती है, इसे तो अपना पति सबसे मूर्ख और नक्कारा प्रतीत होता है, माना कि ड्युटी की वजह से पूरन त्यौहार के चैथे दिन घर आ सका, तो क्या उसे इसका मलाल नहीं है ? पड़ी है असाध की तरह, बच्ची एकदम गंदी पड़ी रो रही है, न कुछ बनाया न मंगाया, लगता है पूजा भी नहीं की, लक्ष्मी माता की, बहस करती है घर आने पर। वेतन कहाँ गया ? पैसे दो! नहीं दोगे तो सामान कहाँ से आयेगा, क्या खुद को बेच कर पेट भरूँ तुम्हारा और तुम्हारी बेटी का? कितना सहे आदमी थकाहारा, ज्यादा थका या ज्यादा हारा ? कहा नहीं जा सकता, पूरे वेतन के साथ पाँच हजार उधार करके भी हार चुका था पूरन, तीन दिन तो कप्तान साहब भी थाने में खेल की स्वीकृति देते हैं, मौन सहमति, दूसरों को रोको स्वयं खेल लो। साल भर का त्यौहार है, जवान मायुस क्यों हों भाई ?’’ इसे कोई गम़ नहीं है, लड़े पड़ी है, जीत जाता तो क्या दूसरों को देता ? कोई पूछे इससे?’’ अच्छा खाई है घूंसे लात, अपनी आदत के कारण, नहीं तो क्या पूरन उसे मारता ?’’ घर आओ तो न खाना पूछना न पीना, कहाँ थे ? घर क्यों नही आये ? पैसे दो, घर में कुछ नहीं है, मैं एक दीया भी नहीं जला पाई, रोती है राण की तरह। मेरे मरने पर रोयेगी, इसी प्रकार, उसी का अभ्यास करती है। पूरन की खीझ वैसे ही चरम पर थी कि यह अनाम सी चिट्ठी! वह भी इतनी भारी सी, पता नहीं किस साले ने घर का पता दे दिया, वर्ना पूरन को पत्र लिखने वाला कौन है, फोन से हाल-चाल मिलता रहता है, सभी का, मोबाईल भी तो हारा है इस बार पूरन, सबसे ज्यादा अखरने वाली बात, कुछ नहीं होता। खेल ही जिगर वालों का है, हार जो नहीं सह सकता उसे पत्तों को हाथ लगाने का भी कोई हक नहीं है , भगवान् ने चाहा तो एक ही झटके में मोबाइल आ जायेगा, नहीं तो किसी दूकान से उधार ले लेगा, वर्दी का इतना अवमूल्यन नहीं हुआ, अब तक कि कोई दुकानदार उधार देने से मना कर सके।

            उसने लिफाफा उलट-पलट कर देखा, भेजने वाले का नाम पता गायब था, पत्र के कारण उसे लौटना पड़ा था घर के बाहर जा रहा था, कहीं कुछ मिले तो ले आयें, घर में तो चूहे दंड पेल रहे थे, सुनैना चाहती तो कुछ बना रखती, परन्तु वह तो लड़ने भर की बीबी है न?’’ डाकिया चला गया था, वापस आकर पूरन एक लकड़ी की कुर्सी पर बैठ गया।

            किसकी होगी ? किसी कम्पनी की ? बीमा वाले की ? चेन लिंक वालो की ? ठगों की कमी नहीं है संसार में। तरह-तरह के प्रश्नों का उत्तर ढ़ूढ़ते पूरन ने लिफाफा खोला। अनगढ़ से अक्षरों, में बिना हासिया छोड़े चार पन्ने कापी के पूरे भरे हुए, ओहो लगता है देवी देवतों के नाम का कार्ड छपाने वालों की करामात है, ‘‘मेरे बच्चा नहीं था, बीबी दूसरे से फँसी थी, मैं भूखों मर रहा था इस देवता के नाम से दस हजार पर्चे छपवाकर बाँटा, सब कष्ट दूर हो गये, जो पढ़कर विश्वास नहीं करेगा उसके परिवार का सत्यानाश हो जायेगा’’ कई पत्र पढ़े थे पूरन ने।

            लड़की बराबर कें….के… कर रही थी, सुनैना की पीठ हिल रही थी, रो रही है शायद, रोने दो जी भरकर आँसू से डर जायें वैसे नहीं हैं’’

            पाँच ही बजे होंगे, मौसम में ठण्डी के आने की खुशनुमा आहट होने लगी थी, शाम का धुंधलका छाने लगा था, पड़ोस के घर से पकवान की खुशबू आ रही थी, उनकी भी तो बीबी ही है न, कुछ भी करें, मारे-पीटे, जुआ खेले, दारू पीये, घर मे ंदूसरी लेकर आये चूँ से चाँ नहीं करतीं, और एक मिली है पूरन को।’’

            ’’पढ़ के तो देखना ही होगा क्या लिखा है लिखने वाले ने।’’ उसने पत्र के ऊपर निगाह डाली, लिखा था_

              चिरंजीव पूरन।

            शुभ आशीर्वाद के पश्चात् लिखना यह है कि मैं एक बेहद दुःखी और अभागा इन्सान हूँ, अपने पापों का बोझ सीने पर लिए मर भी नहीं सकता, तुम्हें बेटे जैसा आत्मीय समझकर पत्र लिख रहा हूंँ, पढ़कर हो सके तो मुझे क्षमा कर देना अथवा थूक देना मेरी करतूतों पर। बिना माँ का बच्चा था मैं। एक रिश्तेदार ने जिन्हें मैं मामा-मामी कहता था पाला पोसा, पुलिस में कांस्टेबल पद पर नौकरी लगवा दी उन्होंने, एक सीधी साधी लड़की से मेरी शादी कर दी, मैं चाँपा थाने में पदस्थ था उस समय, वर्दी का अहंकार, शराबियों, जुआरियों के संग ने मुझे भी अपनी ओर खींचा, कुछ जीता भी जिससे कारण लालच और बढ़ा, मैं ऐसा डूबा कि किनारा ही छूट गया, परिवार की जिम्मेदारियों से दूर होता गया मैं, मेरी बच्ची, मेरी पत्नी, मेरे जीते जी रोटी, कपड़े को मोहताज रहते थे, परन्तु मुझे कभी अपने कर्तव्य का बोध नहीं हुआ, यदि मंगला कुछ कहती, मैं उसे मारता-पीटता, मेरी बच्ची मात्र 4 वर्ष की थी, दीपावली का पर्व आया था, अन्य परिवार के लोगों के समान हीं, मंगला ने दूर से मिट्टी लाकर क्वार्टर की छबाई-लीपाई की थी। छुही-मिट्टी से किनारे-किनारे लीपकर बीच में गहरे हरे रंग के गोबर से लीपा था। आँगन घर खिले हुए फूल जैसे गहगहा उठे थे, मेरी ड्युटी ऐसी लगी कि पूरे तीन दिन घर नहीं आया, (ड्यूटी के बाद का समय मैंने जुआ खेलकर बरबाद किया था) न एक बून्द तेल, न दीया बत्ती के लिए पैसा। रास्ते पर निगाहें टिकाए मेरे इंतजार में बैठी थी,मेरी पत्नी, बच्ची तो पड़ोसियों के यहाँ खेलकूद रही थी, मंगला हारी हुई शर्मिन्दा सी दुःख चिन्ता में घुली जा रही थी, मुझे देखकर पहले तो पानी पिलाया, फिर अपनी नाराजगी जाहिर की, मेरी जेब में एक फूटी कौड़ी भी नहीं थी, सब मैं हार गया था, ऊपर से पाँच हजार का उधार कर आया था, महेन्दर दादा का। पहले तो दे दिया, जब देखा कि हार गया मैं तो तरह-तरह के एहसान जताने लगा, बोला भाई मुन्शी जी मेरी बहन घर में अकेली है, मुझे कही जाना है, कुछ दिनों के लिए अपनी बीबी को मेरे घर पर भेज दो। दोनों रहेंगी, मेरी बहन बहुत डरती है अकेली रहने से। इस प्रस्ताव का अर्थ समझता था मैं। किन्तु मेरी मजबूरी थी, यदि कप्तान साहब से शिकायत करता तो मुझे सजा मिलती, उसकी बात न मानता तो जान की खैर नहीं, महेन्द्रर दादा खून को पानी की तरह बहाने वाला आदमी है, यहाँ तो उसके रूपये फंसे हैं।

            ’’मैं जरा मंगला को समझाता हूँ ?’’

            ‘‘मैं लेते आता हूँ भाभी को अपने साथ, तुम कहाँ परेशान होगे?’’ – वह चतुराई से बोला था।

            ‘‘मेरी बच्ची है दादा, फिर वह मानेगी कैसे ?’’ मैंने मजबूरी जताई।

            ‘‘उसे मानना ही होगा, सुहागन रहना है तो, वरना अभी के अभी मेरा कर्ज चुकाओ, नहीं तो चलता हूँ कप्तान साहब के पास, फिर पहनना वर्दी, वह जहरीली मुस्कान मुस्कराया था, पसीने से नहा गया मैं, कुछ बोल न पाया, मुझे चुप देखकर उसने मोटर साइकिल पर मुझे पीछे-बैठाया और मेरे घर तक आया, बाहर खड़ा रहा, जाकर जल्दी उन्हे भेज दो, चिन्ता मत करो, मैं सुरक्षित पहुँचा जाऊँगा जैसे ही रूपया दोगे।’’

            ‘‘दादा, मैं कुछ घण्टो में ही रूपये का इंतजाम कर देता हूँ, मेरा घर न उजाड़ो।’’ मैं हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाया।

            ‘‘बड़ा चुगद है यार ! मैं पैसे रूपये के लिये कहाँ कुछ कह रहा हूँ, मैं तेरे काम आया, तू मेरा जरा सा काम नहीं कर सकता ? मेरी बहन के साथ रहने की ही तो बात है, और क्या पहाड़ ढकेलना है? चल! नहीं मानता तो लड़की को भी आने दे, आखिर यह भी तो घर ही है ।’’ वह शहद घोलकर बोला।

            मेरा कलेजा धड़क रहा था जोरो से,किसी अनहोनी की आशंका से मन घबरा रहा था।

            ‘‘दादा पहरेदारी की नौकरी मेरी है, वह तो स्वयं ही डरपोक है, चलो मुझे कप्तान साहब के पास ही ले चलो, मैं भले ही नौकरी से निकाल दिया जाऊँ, मजदूरी करके खा लूँगा, किन्तु मैं मंगला को अचानक नहीं कह सकता अनजान आदमी के घर जा रूकने के लिए।’’ मैंने हिम्मत बटोरकर कहा।

            ‘‘उसने ध्यान नहीं दिया, दरवाजे पर आकर ही मोटर साइकिल रुकी, मैं उसके द्वारा धकेलकर अन्दर भेजा गया।

            ‘‘अभी आप जाओ, मैं उससे कहता हूँ, थोड़ी रात हो जाय तब आना, अभी लोग देखेंगे तो पूछेंगे, मैं क्या उत्तर दूँगा ?’’ मैंने हाथ जोड़ते हुए कहा था।

            ‘‘मैं रूका हूँ न तुम आराम से भेजो! जाओ!’’ वह मोटर साइकिल की सीट पर बैठ गया था। मुझसे न पानी पीया गया, न उसकी बातों का उत्तर दिया गया।

            मेरी जड़ स्थिति देखकर वह सहम गई, मैं निढ़ाल सा लेट गया खाट पर, रोने का मन हुआ।

            ‘‘क्या हुआ आपको ? बहुत थके लगते हैं, वह अपनी नाराजगी भुलकर मेरे माथे पर हाथ फेरने लगी,

            ‘‘मंगला मैंने एक आदमी से उधार लिया है ?’’

            ‘‘क्यों लिया? अभी तो वेतन मिला है न सभी को ?’’ वह विस्फारित नेत्रों से मुझे देखने लगी।

            ‘‘फँस गया था समझ लो, लगा इस प्रकार सब कुछ हार कर कैसे आऊँ घर, अंतिम दाँव के फेर में ……. मैंने वाक्य अधूरा छोड़ा।

            ‘‘जाने दो! जिन्दा रहे तो चुका देंगे, अब तो शरीर पर सोने चाँदी का एक तार भी न रहा, इतनी बार समझाया, महाराज, युधिष्ठिर और नल की कहानी सुनाई, लेकिन मेरी तकदीर पर तो पत्थर पड़े है, फिर तुम्हें क्यों कर समझ आयेगी?’’ वह रोआँसी हो गई।

            मंगला तुम मेरी जान बचा सकती हो, जिसने उधार दिया है, वह कहीं बाहर जा रहा है, उसकी बहन अकेली है कह रहा है, भाभी को उसने साथ रहने को भेज दो। दो चार दिन को।’’ मैंने रुक-रुककर सब कुछ कह दिया।

            ‘‘तुम क्या कहते हो ?’’ उसने उम्मीद से मेरी ओर देखा।

            ‘‘यदि हिम्मत कर लो तो विपत्ति कट जाय, मैं अब इस व्यसन के निकट कभी न जाऊँगा’’ कहते हुए मैं अपनी ही नजरों से गिर गया।

            ‘‘ठीक है, मैं जाऊँगी।’’ उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगी थीं, दूसरे पल ही रंग बदला, जैसे ज्वालामुखी फूटने को हो, कोई अनजानी सी विद्रूपता, मुझे लगा ‘‘यह चुप है, न जाने क्यों ? क्या इसे पहले से पता था सब कुछ ? या फिर एकदम भोली है, उपकारी का प्रति उपकार करने की नियत से मान गई, यदि उसने कुछ गड़बड़ की तो यह न जाने क्या कर गुजरेगी?’’ तरह-तरह की बातें सोचते मैं कुछ देर सिर पकड़कर बैठ गया।

            ‘‘अब सोच मत करो मेरे लिए, न जाने क्या सोचकर उसने मेरे पैर छुए।’’

            ‘‘अरे ये क्या, कर रही हो ? क्या बहुत दिनों के लिए जा रही हो ?मुझे अपनी ही आवाज पराई जैसी लग रही थी।

            उसने अंतिम बिदा वाले भाव से मुझे देखा।

            ‘‘जाओ उन्हें कह दो, थोड़ा अंधेरा हो जाय तब आयें मैं कुछ काम निपटा लूँ घर का।’’ उसने मुझे बाहर भेजा।

‘‘जाओ दादा, वह जायेगी, बहन जी के साथ रहने, मुझे तुम पर भरोसा है।’’ मेरा स्वर ऐसा था कि सुनने वाला अवश्य समझले कि मैं झूठ बोल रहा हूँ।

            ‘‘ठीक है परन्तु कोई होशियारी न करना, मैं आठ बजे तक आ रहा हूँ, तब तक हमारा एक आदमी आस-पास रहेगा, यदि कुछ किये तो समझ लेना।’’

            वह मुझे धमकी देता, मोटर साइकिल चालू कर चला गया। मैं अन्दर आया तो देखा मंगला रो रही थी, बहुत बुरी तरह।

            ‘‘डर लग रहा तो बोलो! ज्यादा से ज्यादा वह मुझे मार डालेगा, मैंने किया है मैं ही भोगूँगा।’’ न चाहते हुए भी मेरे मुँह से निकल गया।

            ‘‘ऐसा क्यों कहते हो ?’’ वह मेरे सीने से लग कर रोती रही, फिर बोली- ‘‘जाओ कुछ ले आओ, चाहे आधा किलो चावल ही ले लेना, दुकानदार दे देगा, खिचड़ी बना लेंगे अभी हल्की फुल्की।’’ वह सिसकती हुई बोली।

            ‘‘मैं शर्मिन्दगी का बोझ उठाये बाहर निकला, किससे अनाज उधार माँगू, अच्छी भली नौकरी वाले की ये फाकामस्ती ? कोई क्या कहेगा ? अच्छा हो स्टाफ में किसी से कहा न जाये।

            लगभग एक घंटे बाद मैं अपने मित्र से लिए सौ रूपये के चाँवल-दाल सब्जी आदि लेकर घर पहुँचा तब तक मेरी दुनिया लुट चुकी थी, घर से आग की लपटे उठ रही थीं, स्टाफ के लोग मेरे घर के सामने जमा थे, कोई पानी, कोई रेत डालकर आग बुझाने का प्रयास कर रहा था, मुझे मंगला के मौन का अर्थ समझ में आ गया, पागल की भाँति मैं आग में कूदना चाहता था, कई लोगों ने पकड़ लिया मुझे, मंगला की कंचन काया, क्षण में कोयला बन गई थी।

            ‘‘न जाने कैसे आग लग गई आश्चर्य है ?’’

            ‘‘लगता है दीया विया बार रही थी।’’

            “अरे नहीं, ऐसा कैसे हो जायेगा।’’

            ‘‘कहीं खुद तो नहीं….ऽ…ऽ ?’’

            ‘‘कहीं, नरेन्द्र ने तो नहीं?’’

            ‘‘नहीं भाई, वह तो दूकान गया था सामान लाने ।’’

            ‘‘मंगला की मृत्यु दुर्घटना सिद्ध हुई, मुझ पर कोई आँच नहीं आई, किन्तु मन की ग्लानि ने कभी चैन से जीने न दिया।

            मेरी बेटी रिश्ते की चाची के यहाँ पली, जहाँ से पसन्द करके तुमने उसे पत्नी बनाया, मैं लंबे समय से तीर्थों में भटकता हुआ आया। चाची के यहाँ से पता लेकर घर के पास पहुँचा, हिम्मत न पड़ी सुनैना से बातें करने की, तुम्हें सबसे अपना समझकर अपना अपराध स्वीकार करता हूँ। मैं अब अधिक दिनों का मेहमान नहीं हूँ हो सके तो बेटी को दिखा देना, मैं चाचा के घर में रहूँगा।

तुम्हारे पिता के समान

नरेन्द्र

            पूरन ने एक ही साँस में पत्र समाप्त किया, कौतुहल ने उसे बीच में छोड़ने नहीं दिया।

            ‘‘तो पूज्य ससुर जी हैं…..ऽ….ऽ? जरूर कहीं से सब कुछ जानकर बहाने से जली-कटी सुना रहे हैं मुझे। अब बताने से क्या फायदा ?

            ‘‘कहीं ऊब कर सुनैना भी ……..?

            ‘‘नहीं ……. एक दुर्घटना रही होगी वह।’’

            उसने पत्र जेब में रखा

            ‘‘उनके समय से पहले ही राजा युधिष्ठिर और राजा नल अपनी कहानी छोड़ गये थे।’’…. उसने व्यंग किया मन ही मन।

            ‘‘ए….उं….ऽ….ऽ…..उं…….लड़की रो रही है।

            ‘‘सुनैना, …… उसने प्यार से पुकारा।

            बेटी को गोद में उठाया।

            अंधेरा घिर आया था, मिट्टी तेल का एक दिया जलाया पूरन ने अपने हाथों से अपने घर में।

-श्रीमती तुलसी देवी तिवारी  
बी /28 हरसिंगार  राजकिशोर नगर 
बिलासपु  छत्‍‍‍‍‍‍‍तीसगढ़तीसगढतीसगतीसतीत
मो.9907176361 

Loading

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *