यात्रा संस्मरण :- गंगासागर यात्रा
भाग-5 दक्षिणेश्वरी काली की दर्शन
-तुलसी देवी तिवारी
दक्षिणेश्वरी काली की दर्शन
गतांक से आगे-सारे तीरथ बार-बार गंगासागर एक बार
गंगासागर मंदिर दर्शन से वापसी-
मंदिर दर्शन के पश्चात् हम लोग पेट पूजा के लिए कोई उचित स्थान ढुढ़ने लगे। मंदिर के पास ही एक होटल दिखाई दिया जहाँ जाकर हम सभी ने भारी- भरकम जलपान किया। पानी पीकर जान में जान आई । होटल में काम करने वाले बुजुर्ग से पता चला कि —गंगासागर में पेय जल की बहुत कमी है। मीठे पानी का एक छोटा सा सरोवर है उसी से काम चलता है, सागर जल तो न नहाने के काम आये न पीने के। बाहर के लोग पुण्य कमाने के लिए नहाते हैं, यहाँ जो थोड़े से साधु-संत वर्ष भर निवास करते हैं उनका सहारा वही सरोवर है, हम लोग भी वहीं से पानी लाते , खारे पानी के तो दो-तीन सरोवर हैं लेकिन उनके पानी से तो कपडा़ भी नहीं धुलता।
गंगासागर के अन्य दर्शनीय स्थल-
’’यहाँ और क्या- क्या है देखने लायक ?’’ मैंने पूछ लिया।
’’ बस यहीं है जो कुछ है , यहाँ से उत्तर की ओर बामन याल में एक पुराना मंदिर है , उसी के पास चंदनपीड़ी वन में एक टूटा- फूटा मंदिर है। और बुडबड़ीर नदी के तट पर माँ विशालाक्षी का मंदिर है, पूरा घूमने के लिए एक दिन रुकना पड़ेगा, ज्यादातर लोग यहीं से वापस चले जाते हैं। ’’
’’ फिर मेले के समय कैसे काम चलता है ?’’
मेले के समय तो कुछूबेड़िया से हुगली नदी का पानी आता है टेंकर से, उन दिनो सरोवर में नहाना मना रहता है, सब हो जाता है जरूरत के अनुसार। वे अपने काम की ओर आकर्षित हो गये। हम लोग वहाँ से निकले तो सुंदर सजे बगीचे की ओर नजरें उठ गईं, वहाँ भी शंकर भगवान् की विशाल मूर्ति बनी हुई है भगीरथ उनके सामने खड़े शंख बजा रहे हैं, गंगा जी उनके सिर पर विराज रहीं हैं। यह मूर्ति रंगीन होने के कारण और नयन रम्य दिखाई देती है। और भी बहुत कुछ है गंगा सागर में — कोलकाता पोर्ट ट्रस्ट का एक पायलट स्टेशन और एक प्रकाश दीप जिसके प्रकाश में रात के समय समुद्री यात्रियों को मार्ग का ज्ञान होता है। आगे के लिए सरकारी योजना बन रही है यहाँ गहरे पानी में एक बंदरगाह बनने वाला है, इसके बन जाने से द्वीप के गाँवों में खुशहाली आयेगी, रोजगार के अवसर बढ़ेंगे और पश्चिम बंगाल की अर्थव्यवस्था को और मजबूती देंगे।
गंगासागर से वापसी-
अब तक सूर्य पश्चिम की ओर झुकने लगा था। हमें आज ही कोलकाता पहुँचना था, कल हमारी बिलासपुर वापसी थी। धीरे-धीरे हम लोग वापसी के लिए मुड़ने लगे । मैंने एक बार मुड़कर सागर संगम को प्रणाम किया, भगीरथ की पुत्री भागीरथी जो हम सब की माँ हैं अपनी ससुराल में अपने स्वामी के साथ सुखी है। उसका यश संसार में व्याप्त हो चुका है । अब विदा की बेला आ गई है, माँ इतना करना कि अंत में अपनी गोद में स्थान दे देना अपनी इस अज्ञानी पुत्री को । मैंने अपनी आँखों की नमी अपने मित्रों से छिपाई। आगे वहाँ के खास ठेले की सवारी कर हम लोग मोटर स्टेंड आ गये , संयोग से जो बस हमे छोड़ने आई थी वही आकर खड़ी थी जैसे हमारा इंतजार ही कर रही हो, अविलंब हम सब उसपर चढ़ गये। इस बार मुझे देवकी दीदी के पास ही सीट मिल गई थी। हम कुछ-कुछ बातचित करते अपनी प्रसन्नता को स्वर दे रहे थे। एक तरह से हमारी यात्रा का उद्देश्य पूर्ण हो चुका था इसलिए मन तनाव रहित हो गया था । मेरा मन तो बच्चों की तरह उछलकूद मचाने का हो रहा था । कुछ गाने और गुनगुनाने का हो रहा था। समय पर हम कुछूबेड़िया पहचुँ गये। वहाँ से तो इस बार पैदल ही घाट तक आये और बड़ी वाली नौका में बैठ कर जिसे वहाँ लांच कहते हैं हम लोग वापस काक द्वीप आग गये । इस बार घाट तक जाने के लिए हमें ऑटो नहीं मिल सका अतः ठेले की सवारी का आनंद लेते हम लोग रेलवे स्टेशन पहुँचे । कुछ देर में रेलगाड़ी आ गई, पहले की तरह ही बहने महिला कंपार्टमेंट में बैठी और भाई लोग पुरूष कंपार्टमेंट में । गाड़ी चलने के साथ ही काक द्वीप पीछे छूट गया।
1893 में महात्मागांधी के साथ घटी घटना की याद ताजी हो गई-
गंगा सागर यात्रा की यादों को चिरस्थाया बनाने के लिये हमने हर जगह फोटो ग्राफी की थी। कुछ देर उन्हें देखते रहे। इस बार मेरे साथ गीता , हेमलता देवकी दीदी लक्ष्मी दूबे आदि बैठीं थीं, हमने समय बिताने के लिए अन्त्याक्षरी खेलना प्रारंभ किया, जो थोड़ी ही देर में इतना जम गया कि हम भूल गये कि हम घर में नहीं ट्रेन में हैं । जमाने से भूली हुई गीतों के मुखड़े याद आते गये और हम उसमें डूबते गये।
’’ ए ..ऽ..ई..ऽ! ऐ सब बंद करों !’’ एक रूखी सी आवाज सुन कर हम वर्तमान् में लौट आये सबने एक साथ आवाज की ओर देखा- हमारे सामने दरवाजे के पास वाली सीट पर बैठी नवयुवती हमे घूर रही थी। मैं तो एकदम से सकपका गईं ?
’’ आप को क्या तकलीफ है?’’ मैंने झेंपते हुए पूछा।
’’ बस! नहीं चलेगा ये सब चुपचाप बैठो!’’ वह बुरा सा मुँह बनाकर बोली। मुझे लगा मैं अंगे्रजो के राज में रेल का सफर कर रही हूँ, जैसे महात्मा गांधी को 1893 में दक्षिण अफ्रिका के पीटरमेरिट्वर्ग नामक स्टेशन पर सामान सहित फेंक दिया गया था क्योंकि वे गुलाम देश के अश्वेत आदमी थे, अपने देश में मेरे साथ कुछ कम ही हुआ, अपमान का घूंट पीकर मैंने अपना खेल समाप्त कर दिया । उसके बाद वह लड़की अपनी ही हम उम्र एक दूसरी लड़की के साथ रास्ते भर जोर-जोर से बांग्ला में बातें करती आई जिसे कान लगाकर सुनती आई मैं , वह क्रिकेट मैच की बात कर रही थी और कभी खुशी कभी गुस्से का इजहार कर रही थी। ममता दीदी की शह पाकर इतना बदलाव आ गया कि एक कम उम्र लड़की ने बुर्जुग महिलाओं को डाँटने की गुस्ताखी करने की हिम्मत की। मन ही मन सोचते मैने उस बालिका को निर्दोष मानकर माफ कर दिया। रात्रि के साढे नौ बजे गंगासागर एक्सप्रेस सियालदह स्टेशन पर रुकी, हम अपने ठिकाने पर पहुँचने से पहले कल वाले होटल में भोजन करने गये। संभवतः हम लोग ही अंतिम ग्राहक थे, उसके कर्मचारी थके हारे थे फिर भी उसने हमें पेटभर भोजन कराया।
राम कृष्णपरमहंस का निवार्ण स्थल का दर्शन-
अगले दिन सुबह हम लोग थोड़ा आराम से उठे, कल की थकावट बहुत कुछ दूर हो चुकी थी। आज हमें दक्षिणेश्वरी काली माता के दर्शन करने के लिए जाना था। अभी आधे लोग ही नहा पाये थे कि टंकी का पानी ख्त्म हो गया, हम बड़ी परेशानी में पड़े। फिर से टंकी भरी गई तब कहीं जाकर सब लोगों का नहाना हो सका। घर से लाये गये नाश्ते में से हमने जलपान किया। तैयार होकर नीचे आये तब तब लगभग नौ बज चुके थे। हमने दक्षिणेश्वरी जाने के लिए तीन ऑटो किराये से ले लिया। शहर की संरचना देखते आगे जा रहे थे। सड़के साफ- सुथरी और बराबर थीं। बड़ी-बड़ी दुकाने खुलने लगीं थीं। हमने एक जगह चाय कॉफी पी और आगे बढ़े, तब ऑटो वाले एक अच्छा स्थान दिखाने की बात कह कर हमें एक विशाल मंदिर के सामने ले गये। विशाल प्रवेश द्वार पर सुरक्षा गार्ड तैनात थे। छोटे वाले प्रवेशद्वार से हम अन्दर प्रविष्ट हुए। हमारे सामने हरियाली की कसीदाकारी विभिन्न आकृतियों में सजी हुई थी। तरासी हुई गुलमेंहदी मनमोहक नमूनों में इठला रही थी। छोटे- छोटे गुलमेंहदी से घिरे मैदान में गलीचे वाली दूब पसरी हुई थी। क्यारियों में रंग-बिरंगे पुष्प वृंत्त के सिर पर बैठे हिंडोला झूल रहे थे। कई बडे़-बड़े छायादार पेड़ दिखाई दिये जिनके नीचे सुपुष्ट सुपालित ऊँची पूरी गायें जिनके थन अंकवार भर के थे आराम कर रहीं थीं। हमने एक बार पूरे रास्ते का चक्कर लगाया। बाग की शोभा देखी वास्तु कला का मिश्रित नमूना था वहाँ का मंदिर, कई मंजिल ऊँचा लेकिन बंद था उस दिन किसी कारण वश, जिसके कारण हम अंदर से दर्शन नहीं कर पाये। पता चला कि यह राम कृष्णपरमहंस का निवार्ण स्थल है। अंदर उनकी यादों को चिरस्थायी बनाये रखने के लिए उनके जीवन और तपस्चर्या से संबंधित वस्तुएं रखी गईं हैं । हमारे पास लौटने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं था। अतः ऑटो में बैठ कर हम लोग दक्षिणेश्वरी काली की दर्शन करने निकल पड़े।
दक्षिणेश्वरी काली की दर्शन –
हमारे सामने दक्षिणेश्वरी काली मंदिर का विशाल प्रवेशद्वार था। हमारे आगे बहुत सारे दर्शनार्थी थे। प्रवेश द्वार के ऊपर स्वस्तिक का शुभ चिन्ह अंकित हैं शीर्ष पर दुर्गा माँ के वाहन सिंह की प्रतिमा विराजित है। हमारे दल के सभी लोग दक्षिणेश्वरी काली की दर्शन के लिए आगे पीछे चल रहे थे, मैं देवकी दीदी के साथ ही थी। वे स्थान बहुत जल्दी पहचानती हैं, मैं जब कुछ सोचने लगती तो वे मुझे विचारों से बाहर निकाल देतीं।
विवेकानंद सेतु दर्शन-
प्रवेश द्वार के अंदर पहले हम एक बगीचे में पहुँचे जहाँ छायाएवं फलदार वृक्षों के घने पत्तों के पीछे से कोयल कूंक रही थी और भी पक्षी कलरव कर रहे थे। गिलहरियाँ इस पेड़ से उतर कर उस पेड़ पर खुट-खुट चढ़ रहीं थी, न जाने क्या पहुँचा रहीं थीं यहाँ से वहाँ। नदी का तट होने के कारण चारे की अधिकता थी पक्षियों को चाहिए भी क्या भोजन पानी के सिवा? बाग के बीच बनी पगडंडी को पार कर हम उस स्थान पर पहुँचे जहाँ अनेक तीर्थों के अधिष्ठाता देवों की मूर्तियाँ विराजित है। सबके दर्शन करते हम ने गंगाघाट पर नजर डाली, अपरिमित जलराशि से भरी पूरी गंगा, जैसे गहनों से लदी-फदी नव वधू साजन से मिलने जा रही हो। देश के विभिन्न कोनों से आये श्रद्धालू स्नान कर रहे थे। नौकाएं जल पर तैर रहीं थीं। पास ही विवेकानंद सेतु दिखाई दे रहा था, गंगा के ऊपर से हजारों लोंग आ जा रहे थे। आसमान पर सूरज चमक रहा था। पक्के घाट की सीढ़ियों पर कोई मुंडन करा रहा था तो कोई नहा कर पूजा कर रहा था। आज बड़ा धोखा हुआ हमारे साथ, हमने पानी का अभाव झेला और यहाँ जल ही जल! नहाने का कार्यक्रम रहा होता तो कितना अच्छा होता?
’’ बने इहें असनादे रइतेन त का होतिस ?’’ देवकी दीदी भी मेरी तरह ही सोच रहीं थीं।
स्वामी रामकृष्ण परम हंस का कक्ष-
गंगा दर्शन के बाद हमने प्रमुख प्रांगण में प्रवेश किया। इसके उत्तरी पश्चिमी कोने पर स्वामी रामकृष्ण परम हंस का कक्ष बना हुआ है। हमने दर्शन लाभ लिया। पश्चिम बंगाल के कमारपुकुर ग्राम में पिता खुदीराम चट्टोपाध्याय और माता चन्द्रमणिदेवी के घर सन् 1836 में अद्भुत् बालक गदाधर का जन्म हुआ । गर्भ काल में ही माता को अनेक विचित्र अनुभव हुए। गदाधर को सांसारिक शिक्षा से अरूचि थी । बडे़ भाई रामकुमार चट्टोपाघ्याय इसी मंदिर के पुरोहित थे सो इन्हें भी इस मंदिर में पूजा में मदद करने के लिए रख लिया। समय पाकर इनका विवाह शारदामणि देवी के साथ हो गया। आध्यात्मिक गुरू तोता रामजी ने इन्हें दीक्षा दी थी। इनके अनुसार धर्म एक ही है, कर्मकांड इनमें फर्क करते हैं। ये जाति-पांति के विरोधी थे। इनके दर्शन के कारण राष्ट्रवाद को बहुत आधार मिला। देश में आजादी के लिए प्रतिबद्धता बढ़ी । हम आगे बढ़े मुख्य मंदिर प्रांगण में भक्तों की भीड़़ लगी हुई थी। लंबी लाइन लगी थी, हम लोग भी लाइन में खड़े हो गये। देवकी दीदी को एक जगह छाये में बैठा दिया गया।
दक्षिणेश्वरी काली की दर्शन –
अब माँ का सुंदर भवन मेरे सामने था। यह एक ऊँचे चबूतरे पर बना हुआ है, दक्षिणेश्वरी काली मंदिर तक जाने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं । इसकी तीन मंजिलें हैं, 40फुट चैड़ा और 100 फुट ऊँचा यह मंदिर 25 एकड़ में फैला हुआ है। इसके शीर्ष पर बारह गुंबद आकाश की ओर सिर उठाये माँ की जय-जयकार करते रहते हैं। ऊपर की दो मंजिलों पर नौ गुंबद समान रूप से फैले हुए हैं । धूप सीधी सिर पर पड़ रही थी, पैरों के नीचे तो चलो कालीन बिछा हुआ था फिर भी शरीर पसीने से भीग रहा था। मैं सीढ़ियाँ चढ़ कर जैसे-जैसे माँ के समीप पहुँच रही थी हृदय प्रेममग्न होता जा रहा था। माँ का दर्शन बगल वाले छोटे दरवाजे से हो रहा था, सुनने में आया कि साधारण भक्त माँ के इस रूप के तेज को बर्दाश्त नहीं कर सकते इसलिए बगल से झाँकी दर्शन कराया जाता है। मेरी बारी आई, मैंने आँखें फाड़कर दक्षिणेश्वरी काली की दर्शन की चेष्टा की, किंतु मेरी आँखें बंद हो गईं, मै प्रयासपूर्वक नेत्र खोलकर माँ भवतारिणी की छवि निहारने लगी।
गर्भगृह में हजार पंखुड़ियों वाले रजत कमल पुष्प के ऊपर भगवान् शंकर के सीने पर लात जमाये माँ काली खड़ी र्है। उनकी जीभ निकली हुई है, गले में नरमुंड की माला शोभा पा रही है, कमर की करधनी भी नरमुंड की ही है, लंबी सी लाल जिह्वा ज्योति के आकार की है। नेत्रों की ज्योति सूर्य के समान प्रकाशित हो रही है। मैने माँ को प्रणाम करने के लिए गर्दन झुकाई और हाथ जोड़ लिये -’’संसार को रक्तबीज के भय से मुक्ति दिलाने के लिए तुमने यथोचित रूप बनाया माँ, संसार के हर प्राणी पर करुणा बरसाने वाली माँ काली, हमारे भय का नाश कर दो ! और कुछ कहने के लिए वाणी मूक हो गई । आँखों में प्रेम के आँसू भर आये । माँ के सामने साधकों के बैठने के लिए स्थान है। वहाँ कुछ लोग बैठे हुए माँ की सेवा कर रहे थे। मुझे आगे बढ़ना पड़ा, मेरे सभी साथियों ने माँ के दर्शन किये ,। हम नीचे उतरने वाली सीढ़ी से नीचे उतर आये। मन अब भी आनंद मग्न था, आज बेटी माँ से मिलने उनके घर आई थी। उनके आशीर्वाद से आंचल भर कर फूली नहीं समा रही थी।
बारह शिव मंदिर दर्शन-
दक्षिणेश्वरी काली की दर्शन के बाद हम लोग छाया देख कर एक जगह कुछ देर बैठे। प्यास लग आई थी वहाँ पानी की व्यवस्था तो थी किंतु बिना कुछ खाये पानी पीने का मन नहीं था। प्रांगण में और भी कई मंदिर है जिनमें देवी देवताओं के विग्रह विराजित हैं। मैं उठकर मुख्य मंदिर के दालान में स्थित राधा कृष्ण के दर्शन कर आई । पश्चिम दिशा में बारह शिव मंदिर हैं, दर्शन करते हुए मैं उनके नाम पढ़ती जा रही थी , मैंने देखा कि त्रिपाठी जी भी दर्शन करने वहाँ आ गये हैं, (मेरा मन्तव्य जानकर उन्होंने सभी विग्रहों के नाम लिख कर मुझे दिये जिसे मैं अपने पाठकों के लिए संस्मरण में लिख रही हूँ) ’’ 1. यज्ञेश्वर 2.जलेश्वर 3. जगदीश्वर 4. नान्देश्वर 5. नन्दिश्वर 6. नरेश्वर 7.योगेश्वर 8. रेटुनेश्वर 9. जटिलेश्वर 10. नकुलेश्वर 11. नागेश्वर 12. नीरजारेश्वर । हमने साथ- साथ दर्शन परसन किया। भोले नाथ के यहाँ गंगा नदी के चांदनी स्नान घाट के चारों ओर मंदिर बने हुए हैं। घाट के दोनो किनारों पर भी गंगाघर के मंदिर बने हुए हैं । मंदिर के तीन दिशाओं उत्तर, पूर्व, पश्चिम में भव्य अतिथि कक्ष और कार्यालय बने हुए हैं, जो साल भर यायावरों के लिए खुले रहते है, इसके अतिरिक्त यहाँ आद्या मंदिर और मठ भी है। यह स्थान बैरकपुर उपविभाग के बेलघटिया थाने में आता है।
समाज सेविका रासमणि देवी –
सब कुछ देख सुन कर मन में उस धर्मात्मा प्राणी के लिए श्रद्धा उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है। कितनी बड़ी साधना है इतना सब कुछ बना कर हिन्दू धर्म के सिद्धान्तों को अमर करने की। मंदिर में अंकित शिला लेखों से ज्ञात हुआ कि- बंगाल के नवजागरण काल में रासमणि देवी नाम की समाज सेविका धर्म संरक्षिका हुईं हैं , इनके कार्यों के कारण इन्हे बंगाल की अहिल्या बाई भी कहा जाता है। ये कोलकाता के जानबाजार की जमींदारिन थीं इन्होंने कई मंदिर बनवाये ,तीर्थयात्रियों की सुविधा के लिए कोलकाता के पूर्व पश्चिम में स्थित सुवर्ण रेखा नदी से जगन्नाथ पुरी तक सड़क का निर्माण कराया। हुगली नदी पर बाबूघाट, अहेरीघाट, नीमतालघाट का निमार्ण कराया जो आज भी कोलकाता के प्रसिद्ध घाट हैं, इन्हीं रासमणि देवी को एक बार काली माता ने सपना दिखाया कि -’’मेरा भव्य मंदिर बनना चाहिए। ’’ इन्होंने गंगा के पुनीत तट पर स्थित इस स्थान को पसंद किया और सन्1847 में इसका निर्माण प्रारंभ होकर 1855 में पूर्ण हुआ। अपने भाई के बाद रामकृष्ण परम हंस यहाँ के पुजारी नियुक्त हुए, रासमणि देवी सदा उनका ध्यान रखतीं थीं, उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति बड़े यत्न से करतीं थीं। यही नहीं उन्होंने इम्पीरियल लाइब्रेरी,हिन्दू काॅलेज, प्रेसीडेंसी विश्वविद्यालय आदि को वित्तीय सहायता दी । आज का भारतीय राष्ट्रीय पुस्तकालय , इम्पीरियल लाइब्रेरी ही है। मैंने उन दलित महिला को प्रणाम किया जिन्होंने सिद्ध कर दिया कि श्रेष्ठता किसी जाति विशेष की बपौती नहीं है।
ऐसा भी हो जाता है-
साथियों का बिछुड़ना-
हमने वह चबूतरा भी देखा जिस पर बैठकर स्वामी रामकृष्ण जातिगत एकता पर आधारित व्याख्यान देते थे। प्रांगण में बगीचे की ओर आकर त्रिपाठी जी ने साथियों का मिलान किया तो चार आदमी गायब मिले 1. ओंकार शर्मा 2. शशि शर्मा 3. अशोक तिवारी 4. मीना तिवारी, अब तो चारों ओर खोज प्रारंभ हुई, एक ओर त्रिपाठी जी , एक ओर पटेल जी एक ओर ब्रजेश, हम लोग चिन्तातुर से एक पेड़ के नीचे बैठे, वैसे तो पर्वकाल नहीं था इसलिए वैसी कोई भीड़ नहीं थी कि आदमी खो जाय परंतु हो सकता है वे किसी ठग या लुटेरे के चक्कर में न पड़ गये हों यही आशंका खाये जा रही थी। मोबाइल पर नंबर लगाया गया तो कवरेज क्षेत्र से बाहर बताया गया। हमने कार्यालय में जाकर शिकायत दर्ज करायी, इस बीच त्रिपाठी जी लगातार शर्मा जी और तिवारी जी को फोन लगा रहे थे, आधे घंटे बाद फोन लग गया तिवारी जी का, पूछने पर उन्होंने बताया कि सिर दर्द होने के कारण वे चारों धर्मशाले लौट आये हैं। त्रिपाठी जी के साथ ही हमें भी बहुत नागवार गुजरी उनकी यह हरकत, बिना बताये इस तरह साथ छोड़कर निकल लेना कहाँ का नियम है? त्रिपाठी जी ने अपनी नाराजगी प्रकट की । सभी का मन खराब हो गया था अतः और किसी स्थान पर जाने का विचार त्याग कर हम लोग भी धर्मशाले आ गये । बाद में उन चारों ने खेद व्यक्त किया ।
जेबकतरी का शिकार होना-
थोडी देर आराम करने के बाद सभी बाजार करने निकले आज सुबह घूमने जाते समय लक्ष्मी दूबे ने मेरा छत्तीसगढ़ राजभाषा द्वारा प्रदत्त बैग सेवाभाव से ले लिया था, (डायरी पेन आदि के कारण मेरा बैग हमेशा भारी ही रहता है) इस समय देखा तो वह एक तरफ लंबा सा कटा हुआ था। मैंने समझ लिया कि किसी ने इसे मालदार बैग समझ कर किनारे से काट कर छोटा वाला मनीबैग निकाल लिया है। मैंने लक्ष्मी को बताया तो वह बहुत अफसोस करने लगी।
’’ मर गँय रोगहा मन देवता धामी म घलो चोरी जेबकतरी ले बाज नई आवैं।’’
’’ काटिस होही ओहू पछताही बहिनी, जियादा पइसा नई रहिस।’’ मैंने सच ही कहा था बैग में हजार के अंदर ही रहे होंगे रूपये। चलो कोई बात नहीं कहीं दान पुण्य में कमी रही होगी। मैंने स्वयं को समझाया।
बहुत सारे दर्शनीय स्थल देखने से रह गये-
ब्रजेश हम लोगों को बताये बिना ही धर्मतल्ला मैदान चले गये, यह कोलकाता का बहुत बड़ा थोक और खुदरा बाजार है, सामान सस्ता भी मिलता है, ब्रजेश अपने लिए एक सफारी बैग और उपहार की वस्तुएं लेकर आ गये। नीचे आकर मैंने भी घर के लिए कुछ खरीदा पर कुछ अधिक नहीं, सारी चीजें तो बिलासपुर में भी मिलती हैं फिर गंवार मरे लकडी के बोझ वाली कहावत क्यों चरितार्थ करूँ? अपने साथी की लापरवाही के कारण हम लोग कोलकाता के बहुत सारे दर्शनीय स्थलों को नहीं देख सके, जैसे- विक्टोरिया मेमोरियल विलियम फोर्ट, म्यूजियम ,इडन गार्डन? बेलूर मठ आदि और लोग तो संभवतः आ भी जायं मेरा निकलना असंभव जैसा ही है। इसी कोफ् में समय कट गया।
मैं बिछुड़ती-बिछुड़ती बची-
शाम को सात बजे हम लोग अपने सामान के साथ नीचे उतरने के लिए तैयार हो गये, बैठे- बैठे मैंने अपना सामान रख लिया था, समय हो जाने पर हड़बड़ी में ब्रजेश आये और चलने की बात कहते हुए हाथ में दीदी के सामान के साथ ही मेराट्राली बैग भी उठा कर सीढ़ियाँ उतरने लगे। एक हाथ से उन्होंने दीदी का हाथ पकड़ रखा था। बाकी बहने भी उनके पीछे लपकीं। पीछे-पीछे मैं भी चली अपने बड़े वाले बैग के साथ, लेकिन सीढ़ियाँ अधिक होने के कारण पिछड़ गई, मेरे अधिकोश साथी धर्मशाले के सामने खड़ी लंबी वाली सीटी बस में चढ़ चुके थे , मेरा ट्रालीबैग प्रवेश द्वार के पास पड़ा हुआ था। मैंने झट उसे उठा लिया और तेजी से बाहर लपकी, लगा मैं बस छोड़ दूंगी, बस के पास जब तक पहुँची बस ने रेंगना शुरू कर दिया था मुझ पर घबराहट बुरी तरह हावी हो गई थी, छूट जाने के बाद मेरी क्या दशा होती, यह भी याद न रहा कि इतने में त्रिपाठी जी ने जो बस के दरवाजे पर थे मेरा ट्राली बैग ऊपर खींच लिया और पटेल जी ने दोनो हाथों से सहारा देकर मुझे ऊपर चढ़ा दिया, साथ ही वे भी ऊपर आ गये। बस ने रफ्तार पकड़ ली। बड़ी देर तक मेरी सांसें फेफड़े में समाने से इंकार करती रहीं , साथियों ने मेरे लिए जगह बनाई ।
’’ भैयाऽ! अगर मैं छूट जाती तो ऽ,?’ मैने त्रिपाठी जी की ओर कातर दृष्टि से देखते हुए पूछा
’’ हाँ परेशानी हो जाती एक बार फिर आना पड़ता यहाँ तक।’’ उन्होंने सहज भाव से कह कर मुझे आश्वस्त किया । इसके बाद पता लगाया कि मैडम का बैग कौन लेकर उतरा था और किस कारण उसे छोड़ दिया। उस समय तो किसी ने कुछ नहीं बताया परंतु बाद में पता चला कि ब्रजेश के पास बजन अधिक हो जाने के कारण उन्होंने खतराई वाले प्रीतम पटेल से कहा था कि तुम बैग चढ़ा दो , परंतु -’’मैं क्यों चढ़ाऊँ?’’ कह कर उसने वहीं छोड़ दिया था। वह हमारे दल में इसी बार शामिल हुआ था इसीलिए शायद उसके अन्दर अपनेपन की भावना अभी दृ्ढ़ नहीं हो पाई थी।
न्यू हावडा़ पुल का नजारा-
हम हावड़ा स्टेशन जा रहे थे, वहीं से हमे बिलासपुर के लिए गाड़ी मिलने वाली थी। हमारी बस विश्व विख्यात न्यू हावडा़ पुल पार कर रही थी जिसे आज तक फिल्मों में ही देखा था आज वह आँखों के सामने था। बहुत सारे लोग नहा धो रहे थे तट पर, जो बस से बौनेा जैसे दिखाई दे रहे थे। हुगली नदी के गहरे विस्तृत पाट पर कई बड़ी-बड़ी नावें तैरती हुई अपने गंतव्य की ओर बढ़ रहीं थीं। गंगा जी की ओर से आने वाली शीतल हवा मुझे जैसे प्यार से सहला रही थी। पुल पर वाहनों की भरमार थी , कहते है लगभग डेढ़ लाख वाहन और चालीस लाख पैदल रोज यात्रा करते हैं, पहले चलने वाली ट्राम गाड़ी के लिए बनी रेल पाँतों जैसी पटरिया अब भी बिजली के उजाले में चमक रहीं थीं, इसमें रेल के डिब्बे की भाँति एक ही बड़ा सा डिब्बा होता था, सामने इंजन रहता था अब तो कोलकाता में शायद ही कहीं ट्राम चलता हो ।
हावड़ा पुल का इतिहास-
हावड़ा पुल की आयु का ध्यान कर सन् 1993 में इस पर ट्राम की आवाजाही पर बंदिश लगा दी गई, वैसे सबसे पहले हावड़ापुल पर चलने वाला वाहन ट्राम ही था।
अंग्रजों के शासन काल में कोलकाता से हावड़ा जाने के लिए जल मार्ग के सिवा कोई साधन नहीं था, जिसके कारण उन्हे प्रशासनिक कार्यो में अवरोध का सामना करना पड़ता था। कोलकाता और हावड़ा दोनों ही प्रशासनिक कार्यालयों के केन्द्र थे, इस असुविधा को दूर करने के लिए सन् 1871 में हावड़ा ब्रिज अधिनियम पास हुआ। सन् 1874 में पीपे का एक पुल बनाया गया जिसकी लंबाई 1528 फिट और चैड़ाई 62फिट थी। ऐतिहासिक तथ्य है कि सन् 1906 में हावड़ा में रेलवे स्टेशन बन जाने के कारण आवागमन बढ़ जाने से पक्का पुल बनाना अनिवार्य हो गया। यहाँ एक ऐसा पुल बनाने की योजना बनी जिसमे कोई खंभा न हो , ताकि बनने वाले पुल से नावों के आवागमन में कोई बाधा न पहुँचे, आगे पहले विश्वयुद्ध ने इस कार्य में बाधा पहुँचाई। सन् 1922 में न्यु हावड़ा ब्रिज कमेटी का गठन हुआ। सन् 1936 में इस सेतु के निमाण का ठेका ब्रेथ वेट बर्न एन्ड जोसेप कंस्ट्रसन को सौंपा गया। इसके दो पायों के बीच 1500 फिट की दूरी है, इसकी लंबाई 705 मीटर और टावर की ऊँचाई 82 मीटर है। अब तो इसके दोनों ओर नदी पर दो और बड़े- बड़़े पुल बन गये हैं विद्या सागर सेतु और विवेकानंद सेतु । हावड़ा पुल का नाम बदल कर पश्चिम बंगाल के महान् कवि, लेखक, चित्रकार, दार्शनिक ठाकुर रविन्द्रनाथ टैगोर के नाम पर रविन्द्र सेतु कर दिया गया किंतु जनता की जिह्वा पर तो हावड़ा पुल ही चढ़ा हुआ है। नदी के दोनों किनारों पर दो-दो खंभों के अतिरिक्त सहारे के लिए कुछ नहीं हैं ।कई बार तो यह पुल झूलता हुआ भी अनुभव होता है। इस अनोखे पुल के निमार्ण में हजारों टन वजनी इस्पात के गर्डरों प्रयोग हुआ है। पुल हवा में संतुलन बनाकर 75 वर्षो से टिका हुआ है। सन् 1942 में बन कर तैयार पूरा होने वाले इस पुल को सन् 1943 में जनता के लिए खेाला गया।
हावड़़ा पुल फिल्म निर्माताओं का भी पसंदीदा स्थान-
तत्कालीन युद्ध काल के करण इस पुल का औपचारिक लोकार्पण नहीं हो सका फिर भी यह सेतु कोलकाता के साथ ही देश भर का चहेता पुल बन गया।हावड़़ा पुल फिल्म निर्माताओं का भी पसंदीदा स्थान है, सत्यजीत रे, रिचर्ड एटनबरो , मणिरत्नम आदि की फिल्मों में हमने इस पुल को पहले भी देखा है।
यात्रा की वापसी-
सीटी बस ने हमें हावड़ा स्टेशन के पास पहुँचा दिया। हमारी गाड़ी एकदम पीछे वाले स्टेशन पर आने वाली थी। अभी गाड़ी आने का समय भी हो ही रहा था इस वक्त साढ़े आठ बज रहे थे और गाड़ी छूटने का समय 9.50 बजे था। हम जहाँ बैठे थे वहाँ न तो पेयजल दिखाई दिया न कुछ खाने का सामान । हम लोग जल्दीबाजी में गाड़ी पर चढ़ गये थे खाने-पीने के लिए कुछ बचा नहीं था। भीड़ भी बहुत कम थी। हम सभी पास-पास बैठे गाड़ी का इंतजार कर रहे थे । हमारे दल के वरिष्ठ सदस्य श्री मीनदास बैष्णव जी अपने पास का बचा हुआ नाश्ता सब को बांटने लगें, त्रिपाठी जी ने एक जगह पीने का पानी देख लिया था सबने पानी पीकर परम संतुष्टि का अनुभव किया।
-तुलसी देवी तिवारी बी/28 हरसिंगार राजकिशोर नगर बिलासपुर छत्तीसगढ़ मो. 9907176361
बहुत अच्छा लगा भैया जी ।
आपकी ओर से लेखिका को हार्दिक बधाई और मेरी ओर से आपको सधन्यवाद