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दत्त, दयाध्वं और दम्यत ही क्यों?-डॉ. अर्जुन दुबे

दत्त, दयाध्वं और दम्यत ही क्यों?-डॉ. अर्जुन दुबे

-डॉ. अर्जुन दुबे
अंग्रेजी के सेवानिवृत्त प्रोफेसर,
मदन मोहन मालवीय प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय,
गोरखपुर (यू.पी.) 273010
भारत
फोन. 9450886113

बीसवीं शताब्दी के महान कवि तथा नोबेल पुरस्कार से सम्मानित T. S. Eliot ने अपनी प्रसिद्ध कृति The Waste Land में “दत्त, दयाध्वं और दम्यत” जैसे मानवता के मंत्रों का समावेश क्यों किया था?
Eliot ने दो वर्षों तक संस्कृत का गहन अध्ययन किया था। यह मूल मंत्र बृहदारण्यक उपनिषद से लिया गया है।

इन तीनों शब्दों — “द, द, द” —“दत्त, दयाध्वं और दम्यत” का विशेष महत्व है।  यह मानव को ज्ञान चक्षु खोलने के लिए आकाशवाणी हुई थी जिसे मानव को समझना ही होगा तभी उसका कल्याण संभव है।

 अथ हैनमसुरा ऊचुर्ब्रवीतु नो भवानिति तेभ्यो हैतदेवाक्षरमुवाच द इति व्यज्ञासिष्टा३ इति व्यज्ञासिष्मेति होचुर्दयध्वमिति न आत्थेत्योमिति होवाच व्यज्ञासिष्टेति तदेतदेवैषा दैवी वागनुवदति स्तनयित्लुर्द द द इति दाम्यत दत्त दयध्वमिति तदेतत्त्रयꣲ᳭ शिक्षेद्दमं दानं दयामिति ।३।

बृहदारण्यक उपनिषद् (पञ्चम अध्याय, द्वितीय ब्राह्मण, तृतीय मंत्र)

(फिर असुरों ने (ब्रह्मा से) कहा — “हे भगवान! हमें उपदेश दीजिए।”
तब प्रजापति ने उन्हें भी केवल एक अक्षर कहा — “द”।
असुरों ने समझा कि इसका अर्थ है — “दयध्वम्” अर्थात् दया करो।
प्रजापति ने कहा — “हाँ, तुमने ठीक समझा।”
इसी कारण आज भी यह दिव्य वाणी मेघ-गर्जन के रूप में सुनाई देती है — “द, द, द”।
इसका आशय है: दाम्यत (संयम रखो), दत्त (दान दो), दयध्वम् (दया करो)।
अतः मनुष्य को इन तीनों का अभ्यास करना चाहिए — दम (आत्मसंयम), दान और दया।)

प्रथम ‘द’ — दत्त

दत्त अर्थात देना। परंतु देना क्या है? दान देने के बाद कोई अपेक्षा नहीं रहनी चाहिए। देने के लिए विशाल हृदय चाहिए, इस भाव के साथ कि मैंने जो दिया उसका मात्र निमित्त हूँ। मैं तो माँ की कोख से नग्न आया था और नग्न ही पंचतत्व में विलीन हो जाऊँगा। देना-लेना सब माया है।

द्वितीय ‘द’ — दयाध्वं

दयाध्वं अर्थात दया करो। हे मानव, बिना दया के कोई मूल्य स्थापित नहीं हो सकता। यह दया बाहरी नहीं, आंतरिक होनी चाहिए। तभी उसका अर्थ सार्थक होगा। यह दया केवल मानव-मानव के बीच ही नहीं, बल्कि सभी प्राणियों और यहाँ तक कि जड़-चेतन पर भी होनी चाहिए। तभी प्रकृति में संतुलन स्थापित हो पाएगा। शास्त्रों में अनेक दृष्टांत मिलते हैं जहाँ जीव की रक्षा हेतु मनुष्य ने अपने शरीर तक का त्याग कर दिया। ऐसा केवल करुणा और संवेदना से ही संभव है। प्रकृति की गोद में सबको जीने का समान अधिकार है।

तृतीय ‘द’ — दम्यत

दम्यत अर्थात इंद्रियों को संयमित करो। इच्छाएँ कभी जीर्ण नहीं होतीं, पर मानव अवश्य जीर्ण हो जाता है। देवता भी भोग-विलास में लिप्त रहते हैं और इंद्रियों को वश में नहीं रख पाते, परिणामस्वरूप असुर उन पर आक्रमण कर उन्हें परास्त कर देते हैं। ऐसे अनेक प्रसंग मिलते हैं।

बृहदारण्यक उपनिषद में इसका उदाहरण है। एक समय ऐसा आया जब सर्वत्र दुर्भिक्ष पड़ा। नदियाँ सूख गईं, वृक्ष सूख गए, छाया कहीं नहीं रही। मनुष्य की परछाईं ही छाया देती थी — पर कितनी देर? मनुष्य एक-दूसरे का वध करने लगा। तब सब ब्रह्मा जी के पास त्राहिमाम करते पहुँचे।

ब्रह्मा जी ने मानव से कहा — “दत्त” अर्थात दो, क्योंकि मानव देना नहीं चाहता और यदि देता भी है तो कहता जरूर है कि मैंने दिया। हे मानव! तुम दो, बिना इस भाव के कि तुम दानदाता हो।

ब्रह्मा जी ने दानवों से कहा — “दयाध्वं” अर्थात दया करो, क्योंकि तुम स्वभाव से क्रूर और निर्दयी हो। यहाँ दया का प्रदर्शन नहीं, बल्कि सच्चा समर्पण चाहिए।

अंत में ब्रह्मा जी ने देवताओं से कहा — “दम्यत” अर्थात संयम रखो। तुम भोग-विलास में इतने डूबे रहते हो कि चेतते ही नहीं।

ब्रह्मा जी ने कहा — जब तुम तीनों (मानव, दानव और देवता) अपने-अपने दायित्व निभाओगे, तभी गंगा अपनी निर्मल धारा के साथ पृथ्वी पर अवतरित होगी और इसे हरा-भरा करेगी।

हे मानव, तुम लोभ छोड़ना नहीं चाहते। कभी इतने क्रूर हो जाते हो कि दानव तुम्हारे भीतर ही बसने लगता है। दानव बाहर से नहीं आते। जब तुम भौतिक सुख-सुविधाओं में उलझ जाते हो, तब देवताओं की भाँति भोग-विलास में डूबकर प्रकृति का दोहन करने लगते हो।

जब तक ये तीनों (दान, दया और संयम) तुम्हारे भीतर संतुलन नहीं पाते, न तो गंगा का अवतरण होगा और न ही शांति।
पर यदि सामंजस्य स्थापित कर लो, हे मानव, तो शांति: शांति: शांति: होगी — ऐसी शांति जिसमें कोई पूर्ण विराम नहीं होगा।

— डॉ. अर्जुन दुबे

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