देवनागरी लिपि: वैज्ञानिकता, सरलता और स्वर की सजीवता

देवनागरी लिपि भारतीय भाषाओं की आधारशिला है, जो अपनी वैज्ञानिकता और व्यावहारिकता के लिए जानी जाती है। यह न केवल शब्दों और स्वरों का सटीक प्रस्तुतीकरण करती है, बल्कि इसे सीखने और प्रयोग में लाने की प्रक्रिया भी सरल और आनंददायक है। इस लिपि में शब्दों को उनकी ध्वनियों के अनुरूप लिखना और पढ़ना अपेक्षाकृत आसान है। यह अद्भुत संरचना देवनागरी लिपि को न केवल भाषाओं का माध्यम बनाती है, बल्कि एक जीवंत कला भी बनाती है।

लिपि और स्वर: क्या पहले आया?

महान कवि कालिदास ने अपनी रचना ‘रघुवंश’ में कहा है:
“वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये।
जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ॥”

अर्थात, शब्द और अर्थ एक-दूसरे से अभिन्न हैं, जैसे शिव और पार्वती।

यह कथन यह स्पष्ट करता है कि शब्द और स्वर का गहरा संबंध है। मानव सभ्यता की शुरुआत में, प्रकृति के रूप-स्वरूप को देखकर शब्द और ध्वनियों का निर्माण हुआ। पहले मानव ने प्रकृति को देखा, फिर उसे समझने और व्यक्त करने के लिए ध्वनियां उत्पन्न कीं।

यह प्रक्रिया दो रूपों में विकसित हुई:

  1. चित्रण और अनुकरण की प्रवृत्ति:
    मानव ने जो देखा, उसे चित्रित करने की प्रवृत्ति अपनाई। इससे लिपि का प्रारंभ हुआ।
  2. स्वरों की उत्पत्ति और प्रसार:
    मनुष्य ने ध्वनियों के माध्यम से चीजों को व्यक्त किया। जैसा उसने सुना, वैसा ही स्वर दोहराने लगा।

यह अनुकरणीय प्रक्रिया अरस्तू के ‘Imitation’ सिद्धांत पर आधारित है, जहां मनुष्य ने प्रकृति से प्रेरणा लेकर अपनी भाषा और लिपि का निर्माण किया।

देवनागरी की वैज्ञानिकता

देवनागरी लिपि का सबसे बड़ा गुण इसकी वैज्ञानिक संरचना है। इसमें हर ध्वनि (स्वर) और व्यंजन को एक अद्वितीय प्रतीक दिया गया है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि जो लिखा जाए, वह ठीक उसी प्रकार पढ़ा और बोला जा सके।

वर्णमाला की पूर्णता

देवनागरी वर्णमाला में स्वर और व्यंजन एक संगठित और संतुलित रूप में प्रस्तुत हैं।

  1. स्वर और व्यंजनों का स्वरूप: प्रत्येक वर्ण एक निश्चित ध्वनि का प्रतिनिधित्व करता है।
  2. अक्षरों की पूर्णता: स्वर और व्यंजनों के संयोजन से अक्षर बनते हैं, जो ध्वनि और अर्थ का सटीक प्रतिनिधित्व करते हैं।
  3. उच्चारण में सरलता: अक्षरों की संरचना इस प्रकार है कि उन्हें पढ़ने और बोलने में किसी प्रकार की अस्पष्टता नहीं होती।

वर्णमाला की सजीवता और साहित्यिक योगदान

गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने ‘रामचरितमानस’ के आरंभ में वर्णमाला की इस अद्वितीयता को सराहा है:
“वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मंगलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥”

भावार्थ: अक्षरों, अर्थ समूहों, रसों, छंदों और मंगल कार्यों के कर्ता सरस्वती और गणेश जी की वंदना करता हूं।

देवनागरी लिपि में लिखने और पढ़ने की प्रक्रिया में एक सहज आनंद है। जब हम अक्षरों को उनकी ध्वनि के साथ जोड़ते हैं, तो यह एक सजीव अनुभव बन जाता है।

देवनागरी का वैज्ञानिक और सांस्कृतिक पक्ष

  1. वैज्ञानिक दृष्टिकोण:
    देवनागरी लिपि ध्वनि और प्रतीक (ग्राफेम) के बीच एक सीधा और तर्कसंगत संबंध स्थापित करती है।
    • प्रत्येक अक्षर का स्वरूप उसके उच्चारण से मेल खाता है।
    • स्वर और व्यंजनों का तालमेल इसे अन्य लिपियों से अलग और अद्वितीय बनाता है।
  2. सांस्कृतिक योगदान:
    देवनागरी न केवल भाषा का माध्यम है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति, दर्शन और आध्यात्मिकता का वाहक भी है। यह संस्कृत, हिंदी, मराठी और अन्य भाषाओं की लिपि है, जो भारतीय ग्रंथों और साहित्य की अमूल्य धरोहर को संरक्षित करती है।

आधुनिक युग में देवनागरी की प्रासंगिकता

आज के डिजिटल युग में भी देवनागरी लिपि की प्रासंगिकता बनी हुई है। तकनीकी उपकरणों और सॉफ़्टवेयर ने इस लिपि को और अधिक सुलभ और उपयोगी बना दिया है। डिजिटल प्लेटफॉर्म पर देवनागरी का व्यापक उपयोग इसे वैश्विक पहचान दे रहा है।

निष्कर्ष: देवनागरी की विलक्षणता

देवनागरी लिपि केवल एक लिखित माध्यम नहीं, बल्कि भाषा, विज्ञान और संस्कृति का संगम है। इसकी सरलता और वैज्ञानिकता इसे एक उत्कृष्ट लिपि बनाती है।
यह लिपि हमें सिखाती है कि स्वर और शब्द केवल माध्यम नहीं हैं, बल्कि जीवन के सजीव अनुभवों का प्रतिबिंब हैं।

देवनागरी लिपि को अपनाएं, इसे संजोएं और आने वाली पीढ़ियों तक इसकी धरोहर पहुंचाएं।

आपका क्या अनुभव है देवनागरी लिपि के साथ? इसे सरल और वैज्ञानिक मानते हैं या आपकी कोई अन्य राय है? अपनी प्रतिक्रिया हमारे साथ साझा करें।

लेखक-प्रोफेसर अर्जुन दूबे, सेवा निवृत्त
गोरखपुर, 9450886113

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