बाल साहित्य (कविता):डोका और लोका प्रथम भाग
-प्रो रवीन्द्र प्रताप सिंह
डोका और लोका पुस्तक डोका और लोका नामक दो बंदरों के साहस की कहानी है। बाल पाठकों के लिए यह क्रमशः प्रस्तुत है :
डोका और लोका भाग -1
बात पुरानी है यह बच्चो
कई साल पहले की ,
एक बहुत ही बड़ा था जंगल
वहां पहाड़ों से सट कर।
कई किलोमीटर तक फैला।
तरह तरह के वृक्ष थे उसमे
फल फूलों वाले और कटीले ,
कितनी भी तेज धूप फैली हो
लगता बस वहां अँधेरा फैला ।
अरे जानते हो बच्चों ,
सन -सन वहां आवाजें आती।
बड़े बड़े से बांस उगे ,
चिड़-चिड़, चड़ -चड़ करते।
सन -सन करतीं थीं आवाज़ें
जैसे आतीं अन्य ग्रहों से ,
आमों से लदे हुये कितने ही
वृक्ष वहां थे खड़े हुये ।
जाने क्या थी बात वहाँ ,
लोग वहां जाने से डरते ,
बच्चे जब पूंछे उन सब से
वे जाने कैसी बातें करते।
बात पुरानी है यह बच्चों,
बहुत साल पहले की।
एक बार दो बन्दर आये
जाने वहां किधर से।
दोनों बड़े -बड़े दिखते थे ,
काफी तेज़ उछलते थे वे।
दोनों स्वाभिमान वाले थे ,
दोनों बड़े बड़े लंगूर।
पहले तो वे रहे गाँव में ,
इधर नीम पर ,उधर नीम पर।
कभी कभी वो दूर निकलकर
तरह तरह के फल खा आते ,
कभी गाँव में ही रहकर ,
वे थोड़ा सा सुस्ताते।
दिखने में थे बहुत भयानक
पर दोनों थे कितने प्यारे ,
उनसे सभी गाँव वालों के
रिश्ते भी थे अच्छे प्यारे।
बच्चों के वे दोस्त बन गये ,
बने गाँव के वे रक्षक ,
नहीं किसी को था डर कोई ,
गाँव किले के दोनों रक्षक।
एक दोपहर धूप तेज़ थी
बन्दर भी थे अलसाये।
सोच रहे थे बादल छायें ,
वो भी पिकनिक कर आयें।
तभी अचानक डोका बन्दर
जो उनमे छोटा था ,
बोला, लोका चलो चलें ,
कुछ मौज़ करें चल कर बाहर।
नन्हे दोस्त हमारे बच्चे,
शायद अब तक सोये हैं
अरे देखते नहीं मित्र सब ,
यहाँ गाँव में अलसाये हैं।
चलो चलें उस जंगल में ,
देखें क्या -क्या होता है ,
हो सकता है नये मित्र हम
दोनों वहां बना पायें।
लोका बोला ठीक ही कहा
तुमने डोका भाई ,
हम दोनों ने तो कब का
अपना आलस त्यागा।
वैसे भी तो हम निकले हैं
करने विराट भारत दर्शन ,
छोड़ प्रदेश दूर कितना
हम आये यहाँ कूर्ग से चलकर।
चलो देखते यह जंगल ,
कितना बड़ा है , शांत पड़ा।
दोनों उछले साथ -साथ ,
जय हो ! स्वर करके।
दोनों का बल हो गया दूना
जंगल जाने की बात सोचकर।
उनकी गति चपलता का क्या ,
उनकी शक्ति चपलता का क्या,
पल भर में वे पहुंच गये
उस शांत शांत लगते वन में।
चारों ओर कटीले बांसों की
बाड़ वहां थी उगी हुयी ,
डोका बोला , जरा सम्हल के
चलना मेरे लोका भाई।
अरे जरा यह भी देखो
यह बाड़ प्राकृतिक नहीं दिख रही।
हमने कितने जंगल देखे ,
कितने पर्वत नदियां देखीं।
हमको तो वनों पठारों का
सबका अनुभव है भाई।
लगता है हमको यह जंगल
कुछ रहस्य लिये है गहरा।
इसीलिए इस वन के बाहर
लगा शिकारियों का पहरा ।
वैसे किसे यहाँ पर डर है
काँटों की , बाड़ों की।
चलो देखते क्या है अंदर
यहाँ इस तरह वन में फैला।
दोनों में मन में शंकायें ,
तरह तरह की बातें आयीं।
दोनों अंदर घुसे ही जैसे
सघन वृक्ष थे फैले ,
फल फूलों से लदे हुये
खुशबू से हर कोना महके।
सुन्दर सी झील एक थीं फैली
सुंदरता को दूना करती ,
डोका ,लोका ने सोचा फिर
ये कैसा फिर निर्जन वन है।
अंदर बढ़ते ही देखा
वहां साफ़ स्थल भी है ,
निर्जन वन में स्थल सुन्दर
ये कैसे हो सकता है।
ये तो वैसा ही लगता है ,
कैंप किसी का लगता है।
बात और आश्चर्य जनक
जब जीव जंतुओं का न दर्शन।
ऐसे विस्तृत सघन वनों में
जीव जंतु तो काफी होते।
पर यह क्या नहीं दिखे
वहां न कोई भालू बन्दर।
नहीं दिखे लोका डोका को ,
कोई चीतल , हिरन , गिलहरी ,
पक्षी भी खोजा दोनों ने
इधर उधर वृक्षों पर।
लेखक के विषय में
प्रो रवीन्द्र प्रताप सिंह लखनऊ विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रोफेसर हैं। वे अंग्रेजी और हिंदी लेखन में समान रूप से सक्रिय हैं । फ़्ली मार्किट एंड अदर प्लेज़ (2014), इकोलॉग(2014) , व्हेन ब्रांचो फ्लाईज़ (2014), शेक्सपियर की सात रातें(2015) , अंतर्द्वंद (2016), चौदह फरवरी(2019) , चैन कहाँ अब नैन हमारे (2018)उनके प्रसिद्ध नाटक हैं। , बंजारन द म्यूज(2008) , क्लाउड मून एंड अ लिटल गर्ल (2017) ,पथिक और प्रवाह(2016) , नीली आँखों वाली लड़की (2017), एडवेंचर्स ऑफ़ फनी एंड बना (2018),द वर्ल्ड ऑव मावी(2020), टू वायलेट फ्लावर्स(2020) उनके काव्य का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनकी हिंदी अंग्रेजी कवितायेँ लगभग बीस साझा संकलनों में भी संग्रहीत हैं । उन्होंने हिंदी और अंग्रेजी में बाल साहित्य के अंतर्गत लगभग 50 नाटक भी लिखे हैं। बाल साहित्य लेखन एवं शिक्षण हेतु उन्हें स्वामी विवेकानंद यूथ अवार्ड लाइफ टाइम अचीवमेंट , शिक्षक श्री सम्मान ,मोहन राकेश पुरस्कार, भारतेन्दु हरिश्चंद्र पुरस्कार एस एम सिन्हा स्मृति अवार्ड जैसे 21 पुरस्कार प्राप्त हैं ।