‘धूप में दिन भर जला’ के गजलकार रंजीत भट्टाचार्य – डुमन लाल ध्रुव

‘धूप में दिन भर जला’ के गजलकार रंजीत भट्टाचार्य

-डुमन लाल ध्रुव

'धूप में दिन भर जला' के गजलकार रंजीत भट्टाचार्य
‘धूप में दिन भर जला’ के गजलकार रंजीत भट्टाचार्य

गजलकार रंजीत भट्टाचार्य-

सबसे पहले मैं ‘‘दुबला पतला चांद’’ के गजलकार श्री रंजीत भट्टाचार्य जी को प्रणाम करता हूं । रंजीत भट्टाचार्य जी मुझसे उम्र में 23 साल बड़े हैं, और बड़े लेखक हैं फिर भी वे मेरे आत्मीय हैं। व्यक्तिगत परिचय होने से पहले ही हम लेखक और ’’अपना मोर्चा’’ संपादक के रूप में एक-दूसरे से जुड़ चुके थे। आधुनिक संदर्भ में गजल के क्षेत्र में दुष्यंत कुमार ने जो कमाल कर दिखाया और अब तो उसकी बात ही कुछ और है। उन्होंने पहले अतुकांत कविताएं लिखी और बाद में गजल। लेकिन उनकी ख्याति का कारण गजल ही बनी। उनके बाद गजल लेखन में तीव्रता आई। इसके बढ़ते महत्व और व्यापक होती लोकप्रियता ने बहुत से ऐसे लेखक भी पैदा कर दिये जिन्हें गजल के फ्रेमवर्क में अंतर्निहित पेेेचीदगियों की जानकारी ही नहीं थी। वर्तमान परिवेश में गजल लेखन की अचार संहिता का पालन करते हुए निरंतर लेखन कर रहे हैं, उनका नाम है रंजीत भट्टाचार्य। रंजीत भट्टाचार्य जी गजल विधा को अनुशासित बनाये रखने के लिए कदम उठाये हुए हैं। जी हां, ये वही रंजीत भट्टाचार्य हैं जिन्होंने नई कविताओं का संग्रह ’’पांव बने हाथ’’, विज्ञान उपन्यास ‘‘अबूझमाड़ का अतिथि’’ कृति के लेखक हैं। 

गजल रंजीत भट्टाचार्य जी की अभिरूचि नहीं जीने की शर्त है-

रंजीत भट्टाचार्य जी हिन्दी, उर्दू दोनों ही भाषा में समान रूप से अधिकार रखते हैं तथा एक उच्चकोटि के गजलकार हैं। दरअसल गजल लिखना या उसके बारे में विमर्श करना रंजीत भट्टाचार्य जी की अभिरूचि नहीं है लेकिन जीने की शर्त जरूर है। हिन्दी को इसीलिए उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया ताकि उनकी बात अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचे। 25 अगस्त 1951 में जन्में रंजीत भट्टाचार्य ने साहित्य के अन्य विधाओं में भी हाथ आजमाया है लेकिन गजल के प्रति उनका लगाव हमेशा बना हुआ है। मरहूम गीतकार, गजलकार मुकीम भारती के बाद साहित्यिक गलियारों में भाषायी संरचना, तीव्र अनुभूतियों और अभिव्यक्ति के नये आयामों से संयुक्त होकर रंजीत भट्टाचार्य जी गजल के क्षेत्र में जगदलपुर (बस्तर) के शायर जनाब नूर जगदलपुरी के सानिध्य में लोकप्रियता को प्राप्त कर रहे हैं। 

रंजीत भट्टाचार्य जी की गजलें काव्यविधा के नये द्वार खोलेे-

पद्मभूषण डाॅ. गोपालदास नीरज ने गजल संग्रह ‘‘दुबला पतला चांद’’ पर अपनी अभिव्यक्ति इन्हीं शब्दों में कही है – नया सोच, नये बिम्ब, नये प्रतीक, नयी भाषा शैली और नयी भंगिमा में रची बसी रंजीत की गजलें काव्यविधा के नये द्वार खोलने में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। 

गजल तो केवल गजल होती है-रंजीत भट्टाचार्य जी

सुप्रसिद्ध शायर निदा फाजली ने लिखा है नयी कविता की विचार भूमि के फैलाव से  रंजीत ने गजल को उसके परंपरागत दायरे से बाहर निकाला है और इसके चेहरे को निजी अनुभवों से उजाला है। 

गजल के संदर्भ में रंजीत भट्टाचार्य जी का मानना है कि उस पर किसी भाषा विशेष का एकाधिकार नहीं हो सकता। गजल तो केवल गजल होती है। बदलते जीवन मूल्यों के साथ शब्द के चलन पर पैनी निगाह रखते हुए भाषायी परिवर्तन और शब्द सामर्थ्‍य को ध्यान में रखकर ही शब्द प्रयोग करने पर ही ताजापन आता है। 

धूप में दिन भर जला - महका है जो प्यासा गुलाब
हक पहुंचता है, पिये शब - भर वो शबनम दो-गुना

जिसको ठुकराया हो अपनों ने बहोत ऐ दोस्तों
क्यूं न चाहे गै़र को वो शख़्स हरदम दो-गुना 

भाव तो साधना के प्रारंभ में भी होते हैं और साधना के कई वर्ष पश्चात भी। जिनकी भाषा समर्थ है उन्हीं के भावगीत बन पाते हैं। 

ज़रा तुम गुनगुनाओ, चूड़ियों की हो जुगलबंदी
रसोई से अभी आती है बर्तन की खनक ज्या़दा

खिला है मेरे आंगन में मगर दुनिया में चर्चा है
खुदा रक्खे कि है इस गुल में गुल्शन से महक महक जाये

गजलों में नये प्रयोग-

गजल लेखन बड़े धैर्य का कार्य है। जिस प्रकार चित्रकार दत्त-चित्त भाव से रंगों में डुबो-डुबोकर तूलिका चलाता है। जिस तरह से गमक-गमक कर गायक गीत-गजल गाता है, अपनी सुध-बुध खो देता है, ठीक इसी तरह गजलकार को भाव सरिता में डूब-डूबकर लिखना होता है। अतः ना तो गजल अनुपयोगी रहा है और ना गजल कभी अनुपयोगी होगा। 

छत्तीसगढ़ राज्य हिन्दी ग्रंथ अकादमी के पूर्व संचालक एवं वरिष्ठ पत्रकार श्री रमेश नैयर जी लिखते है- रंजीत की गजलों में नये प्रयोग हैं। कभी-कभी ऐसा लगता है कि रंजीत जब गजल लिखने बैठता है तो अचानक धमतरी के मधुर गीतकार और सम्मोहक गजलगो मुकीम भारती की आत्मा उसके पास आकर सुषुप्त प्रतिभा की कोई खिड़की खोल देती है। 

लोग रहते हैं यहां अपने घरों में इस तरह
कांच के बर्तन में जैसे मछलियां रहने लगीं

हंस पड़ा तो आदमी के कहकहे गायब रहे
और जब रोया तो उसको अश्क की किल्लत हुई

कुछ लोग चढ़के वक्त पे सवार हो गये
बाकी जो बच गये थे वो कहार हो गये

रंजीत भट्टाचार्य जी ने गजल की जिस परंपरा को अपनाया और आगे बढ़ाया उसी परंपरा को अपनाने और आगे बढ़ाने के वास्ते भट्टाचार्य जी को जन्मदिन की शुभकामनाएं ‘‘दुबला पतला चांद’’ के साथ . . . 

-डुमन लाल ध्रुव
मुजगहन धमतरी (छ.ग.)
पिन- 493773

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