डॉ. निरज वर्मा की कहानी : छोटकी दुलहिन

डॉ. निरज वर्मा की कहानी : छोटकी दुलहिन

डॉ. निरज वर्मा की कहानी :

डॉ. निरज वर्मा की कहानी : छोटकी दुलहिन
डॉ. निरज वर्मा की कहानी : छोटकी दुलहिन

छोटकी दुलहिन

-डॉ. निरज वर्मा

कहने के लिए तो आप कुछ भी कह सकते हैं। आप कह सकते हैं कि, मैं वही पुराना राग आलाप रहा हूं। यह तो होता ही रहता है। इसमें कहने वाला नया है क्या है। यह भी कह सकते हैं कि, आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस वाले एडवांस समय में जब मनुष्य अमरत्व प्राप्त करने की दिशा में अग्रसर है, मैं आपको बेतुकी बात सुना रहा हूं। कहानी का तकनीक बदल चुका है। अब तो कथानक रहित भारी भरकम बींबो से लदी आधुनिक कहानियों का दौर चल रहा है। कहना ही है तो कुछ नया कहिए वर्ना आपके कहे बिना कहानी को कोई हानि तो हो नहीं रही है। लेकिन मैं अपने पाठकों से बस इतना कहना चाहूंगा दुनिया भले चांद पर बस्ती बना ले, आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस कितना भी एडवांस क्यांे न हो जाए, लेकिन मुंतशिर आंखो के छलक की तासीर हमेशा वैसी ही रहेगी। बात बयानी तो यह है कि, बेगम मुमताज की खूबसूरती को ताज बयां नहीं करता ताज तो बेइंतहा प्यार को बयां करता है। उनके बीच बेइंतहा प्यार भले न हो पर वह होता तो ताज महल न सही सर छुपाने के लिए एक झोपड़ी तो जरुर उसकी नज़र कर देता।

‘‘आही गे मईया नतिया परान ले लेलस’’ खून के छर्राके के साथ वृंदा वहीं ढेर हो गई थी। वृंदा क्या गिरी पूरे टोले में हा हाकार मच गया था। चारो ओर धपाधप कोई इधर भागा तो कोई उधर, मोहल्ले भर की औरतें बात की बात इकट्ठी हो गईं। किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था। करें तो क्या करें। अभी हांव-हांव, झांव-झांव हो ही रहा था तभी सुनारिन चाची लपक कर वहीं बग़ल में पड़ा टीन का बड़ा वाला शीट उठा लाई थीं।

‘‘लगता है अब छोटकी दुलहिन के जाने का समय आ गया है’’ सुरेश बहू नाक में उंगली फिराते हुए बोली थी।

‘‘लग तो रहा है पर फुक-फुकी अभी चल ही रही हंै।’’ ‘‘जब तक संास है तब तक आस है,’’ लोलवा की मां की आंख पनिया गई थी।’’ करोड़ों के जजाद की मालकिन दाना-दाना के लिए मारी फिर रही थी। बेचारी जाने किस जनम का पाप भोग रही हैं, टीन की शीट में लिटाते हुए वृंदा का हाथ छिल गया था। खून के अधिक रिसाव से शरीर तो बेसुध हुआ जा रहा था लेकिन अंतर मन के विशाल आकाश में यादों के बादल लगातार उमड़-घुमड़ रहे थे।

‘‘ए क्या वृंदा की मां बहुत भाग से बेटी को बढ़ियां घर मिलता है’’ पारा टोला की औरतोें ने बेटी बिदा कर छाती कूटती वृंदा की मां को सहारा दे कर ओसारे में पड़ी बाध वाली खटिया पर बिठाया था।

’’दीदी हमारी वृंदा भले इन्नर परी नहीं है, पर घर को सरग बना कर रख देगी।’’ वृंदा की मां के भीतर से सिसकी के बुल्ले रह-रह कर फुट पड़ रहे थे। वृंदा के पिता रजिन्दर लाला कोई खास ओहदेदार तो नहीं थे पर किसी कम्पनी में लेखा-जोखा देखने का काम करने की वजह से पगार नियमित मिल जाया करती थी। इधर मंदी की मार ऐसी पड़ी कि, हाथ से नौकरी भी जाती रही। एक तो बेटा के इंतजार में रजिन्दर लाला का परिवार भी भरा पूरा था। उपर से नौकरी चले जाने की वजह से नौबत रोड पर आने की हो गई थी।

ऐसा कोई तकनीकि ज्ञान भी तो नहीं था जो कहीं कोई काम मिल जाता। परिवार की उदरपूर्ति की समस्या सुरसा मुंह फाड़े खड़ी थी। इस लिए माल गाड़ी जैसे ही आउटर पर रुकती कोयला चोरों के हुज़ूम के साथ रजिन्दर लाला भी लग जाते थे। उस दिन लोको आउटर पर रुकी ही थी कि, रेलवे गार्ड को देख कर कोयला चोरांे में भगदड़ मच गई । रजिन्दर लाला भी कंधे पर पेट लादे आपाधापी में दौड़ पड़े थे। चिल्ल-पों, कूद-फांद ऐसी मची कि,वो फिसले तो फिसलते चले गये। एक तो कंधे पर बोझ उपर से पथरिली जमीन। गिरे तो सिर पर लगे गहरे ज़ख्म की वजह से वहीं ढेर हो गये। जब घर का भर्तार ही पड़ जाए तो कोहराम तो मचना ही था। गहरे ज़ख्म को मलहम न मिले तो तड़प और भी बढ़ जाती है।

रजिन्दर लाला के इलाज के लिए वृंदा की मां के पास एक कर्णफूल के अलावा कुछ भी न था, जिसे गिरवी रखने गई तो सुनार कट वाली हंसी से ठिठियाया था, ‘‘ सिन्हाईन मुस मार के हाथ काहे गंदा कर रहीं हैं।’’ ‘‘गिलट-बट्टा काट कर भी इसको बेचने पर इतना नहीं मिलेगा कि,एक महीने का राशन चल सके।’’ ‘‘यदि ज्यादा ही दिक्कत है तो ऐसे ही ले जाईए हजार दस हजार का मनाही थोड़ी है।’’ रजिन्दर लाला की जान के आगे वृंदा की मां को जमी आसमां एक दिख रहा था। सुनार था भी बहुत चंट। बात ही बात में सौ रुपए की नोटरी पर पक्का रुक्का लिखा कर दस रुपए सैकड़े ब्याज पर उधार थमा दिया। डाक्टर, वैद्य, ओझा,गुनिया देवता, पितर, सब को मना कर हार गई लेकिन चोट खाए देह को नहीं सुधरनी थी सो नहीं सुधरी। वृंदा की मां दिन रात कुढ़ती ठुनकती रहती-

‘‘धिया भतार रहे तो तन्दरुस्त नहीं तो….’’ ‘‘बाप भाई के घर सींक नहीं डोलाए और हियां दूसरे की मजूरी करने जाना पड़ रहा है।’’

‘‘काहे कुभाखती है मां, जब तक शरीर साथ दिया कोयला ढो कर पेट पर्दा चलाए।’’ ‘‘जब बेचारे का कुदिन आया है तो धिक्कार रही है।’’ कुढ़न में तो वृंदा की मां कुछ भी बड़-बड़ा लेती पर कहने के बाद भीतर से एक बारगी दुख का सैलाब उमड़ पड़ता था।

अभी अचार कारखाने गई ही थी तभी रजिन्दर लाला लगे कुनमुनाने…..गुंगुवाती आवाज में वृंदा को आवाज भी लगाए लेकिन झपकी ऐसी लगी कि,वृंदा को कुछ चेत ही नहीं रहा। थोड़ी देर बाद जब आंख खुली तो बिस्तर से ले कर कपड़ा तक सब तर हो चुका था। रजिन्दर लाला की उदास आंखे वृंदा को देख कर झरने लगी थीं।

‘‘कोई बात नहीं पापा मैं हूं न। ’’
‘‘पुन्नु कहां गया है।’’ रजिन्दर लाला की आवाज में अस्पष्टता और विवशता साथ-साथ तैर रही थी।
‘‘काहे पापा बस पुन्नु ही आपका बेटा है क्या?’’ ‘‘मैं भी तो आपकी बेटी हूं’’ सूखा कपड़ा पहनाने के लिए जब गीला अन्र्तवस्त्रा खोला तो रजिन्दर लाला जबड़ा भींच कर फफक पड़े थे,विवशता के अश्रु भीतर के सारे उबड़-खाबड़ बांध तोड़ कर फुट पड़ेे थे।

अचार कारखाना में दिन भर आम के फांक करते-करते वृंदा की मां के हाथ के साथ-साथ मन भी कसैला हो गया था। भीतर ही भीतर कसैले पन का रेगिस्तानी धूल उड़ा करते थे। उड़े भी क्यों न एक तो घर पर लंघन की बूरी स्थिति उपर से नित जवान होती वृंदा जिसके चैड़े ललाट पर घुच-घुची आंख और सांझ होते रंग को देख कर दिल का कोई कोना भीतर से ढह जाता। मौका मिलते ही इधर उधर लोगों से चर्चा करती लेकिन दूर-दूर तक कोई रास्ता दिखता नज़र नहीं आता था।

‘‘भाभी सोच रहे हैं, सोनिया की शादी इसी लगन में कर दें एक लड़का आया है नज़र में,’’बुल्लन बाबू जो की मोहल्ले भर के च्चा थे, अपनी हर छोटी बड़ी बात दूर के चचेरा भाई होने के नाते रजिन्दर लाला और वृंदा की मां से कर लिया करते थे।

‘‘लेकिन सोनिया तो ऐबाही है।’’ ‘‘हां दिल हरदम यही हूक लगी रहती है।’’ ‘‘मेरे बाद कौन इसको पूछेगा।’’ ‘‘वैसे तो लड़का बेरोजगार है लेकिन धन संपत्ति से तगड़ा है।’’ ‘‘सांेच रहे हैं निबाह दें, कम से कम बेचारी का घर तो बस जाएगा।’’ ‘‘हमारे पास बाप दादा की अरजी हुई इतनी धन संपत्ति है, जब बाल बच्चा ही खुश न रहें तो किस काम की।’’‘‘हालाकि अजित बहु का नाक मुंह चढ़ गया है, लेकिन हम साफ कह दिए हैं जितना दान दहेज लगे हम पीछे हटने वाले नहीं हैं।

वृंदा की माँ ऊपर से तो हाँ- हूँ करती रही लेकिन भीतर का जलधि हा हा कार मचा रहा था। ‘‘हाय रे भगवान आपकी कइसी लीला है’’ ‘‘ऐबाही लड़की का लगन ….और….का कमी है हमारी वृंदा में’’ ‘‘थोड़ा रंग ही तो दबा है और का। ’’कहां तो वृंदा की मां गई थी सोनिया के लिए, लेकिन मौका निकाल कर खुद मामला सेट कर आई। इसको लेकर बुल्लन च्चा से जिन्दगी भर का अबोला हो गया था। लेकिन, औलाद के लिए एक से बढ़ कर एक उदाहरण पड़े हुए हैं। यह तो कुछ भी नहीं है।

‘‘भाई साहब आपका लड़का है, सो आपकी मर्जी लेकिन सोनिया एक दम ऐबाही है।’’ ‘‘आपकी इतनी बड़ी खेती बाड़ी गाय बैल कहां सम्हलेगा उससे।’’

मोल मोलाई कर करा के वृंदा की मां जब घर पहुंची तो सीना कुछ भारी सा हुआ जा रहा था। पुराने जमाने की आराम कुर्सी पर पड़ी तो निढाल हो गई। भीतर का पहाड़ दरक कर चूर हुआ जा रहा था। आंख लगी तो देखती है गंदले पानी का रैला उमड़ रहा है, जिसमें वृंदा ऊभ-चूभ रही है। चारो ओर से काले बादलों के झुंड के झुंड आ रहे हैं और खुद चीखती चिल्लाती भागी जा रही है। अभी भाग ही रही थी कि पुन्नु झकझोर कर उठाया था।

‘‘माँँ…….. क्या हुआ? रो काहे रही है।’’

अचानक झकझोरे जाने से अजीब सी हड़बड़ाहट चेहरे पर उतर आयी थी। ‘‘नहीं कुछ तो नहीं बस ऐसे ही कुछ उट-पटांग सपना देख रही थी सो दिल घबरा गया।’’

‘‘कुछ बात तो जरुर है जो छिपा रही हो।’’

‘‘तुझसे क्या छिपाना बेटा वृंदा दी की शादी तय कर दी हूं, लेकिन घर में तो दानों का मुहाल है, मेरी आधी कमाई तो सुनार के ब्याज में ही चली जाती है।’’

‘‘इसका क्या मतलब वृंदा दी की शादी नहीं होगी’’ ‘‘होगी खूब धुम-धाम से होगी तू एक दम चिंता मत कर।’’ ‘‘दी कुवांरी थोड़ी रहेगी।’’ ‘‘मैं अपने सेठ जी से बात करता हूं ।’’

‘‘अच्छा चल जा बड़ा आया सेठ जी से बात करने वाला’’ पढ़ने की उम्र में परचुनिए के यहां काम के लिए पुन्नु को भेजते हुए वृंदा की मां का दिल धंस गया था। लेकिन परिस्थिति के आगे हारी थी। जीवन की उतरती सांझ में वृंदा की मां का बस एक ही सपना था वृंदा की ढलती उम्र को उसकी शादी होते तक किसी तरह थाम ले। लेकिन कटी पतंग जैसी जिन्दगी झकझोरती हवा के समुन्दर में लहराती डगमगाती यूंही बह चली थी। जाने बह कर कहां गिरेगी । वृंदा की मां हवा की नमी को भीतर तक अहसास कर ही रही थी, तभी पुन्नु हड़बड़ी में आया था। चेहरे पर उगे पसीने को समेटता हुआ मां की हाथेली पर रुपयों का बंडल रख दिया। ‘‘ इतने सारे रुपये एक साथ देख कर वृंदा की मां के चेहरे पर पसीने की बूंद छलक आयी थी।

‘‘इतना रुपया तूं कहां से लाया रे’’

‘‘मुझे बच्चा समझी है क्या ?’’ ‘‘मैं जा कर सेठ जी के पैरों पर सीधा लेट गया।’’ ‘‘आखिर बहन की शादी की बात थी।’’ ‘‘सेठ जी भी रोने लगे कहते थे क्या तुम्हारी बहन मेरी कुछ नहीं लगती।’’ ‘‘फिर रुपए कौन सा खैरात में दिए हैं उधार ही तो दिए हैं’’ ‘‘पटा देंगे और क्या’’ ‘‘अब सेठ जी बिना हिल हुज्जत के पैसे दिए हैं तो मुझे भी उनकी बात माननी पड़ेगी’’ ‘‘मुझे अभी ही सेठ जी के काम से बाहर निकलना होगा’’
‘‘लेकिन अभी कैसे जाओगे पुन्नु’’ ‘‘इतना सारा काम कौन सम्हालेगा’’ ‘‘वैसे भी लड़के वाले चढ़े हुए हंै।’’ ‘‘तुम्हारे सेठ जी से मैं बात कर लूंगी’’ ‘‘इतने दयालु आदमी हैं बहन की शादी के लिए छुट्टी न देगें क्या?’’

‘‘तो तुम्ही कर लो काम अब मेरा वहां जाने का क्या फायदा?’’‘‘हर काम में अडंगा मुझे अच्छा नहीं लगता’’पुन्नु अचानक भड़क गया था, लेकिन थोड़ा सम्हलते हुए कहा था ‘‘तू चिंता मत कर मां मैं पूरी व्यवस्था कर के जा रहा हूं फिर दोस्त किस दिन काम आएंगे।’’

‘‘अब तेरा ही सहारा है।’’ बेटा इतनी जल्दी बड़ा हो जाएगा सोच कर वृंदा की मां लहालोट हुई जा रही थी। रजिन्दर लाला गुंगुवाती आवाज में कुछ पूछना चाह भी थे रहे थे लेकिन वृंदा की मां टूट पड़ी थी, ‘‘खुद तो अपाज बने खटिया तोड़ रहे हैं,‘‘ ‘‘लड़का कुछ करना चाहता है तो लगे चिचियाने।’’ रजिन्दर लाला की आंखो की कोर से बूंद लुढ़क गई थी।

इधर लड़के वाले भी चढ़े हुए थे। तीसरे दिन ही ओली की रश्म अदायगी के लिए आ धमके। पुन्नु के दोस्तों ने हड़बड़,हड़बड़,चाइनिज झालर बत्ती से घर सजाया। बन्ना बन्नी गीत के लिए मोल्ले भर की औरतें न्योती गईं। गीतहारिनो को बैना बांटने के लिए मोहल्ले के ही बीगन हलुवाई को कड़ाही पर बैठाया गया। कायस्थों के हजार चोचले थोड़ा सा काम करो तो पंडित के बिना मंत्रा उचारे कुछ नहीं होने वाला। वृंदा की मां चकरघिन्नी हुई जा रहा थी कभी पंडित, कभी हलुवाई तो कभी गीतहारिन रुक-रुक कर हंसी के गुल्ले फुट पड़ते थे। अभी कार्यक्रम चल ही रहा था तभी रिक्शे पर लदा भीम काय मारवाड़ी गन्दी गालियां बकता दरवाजे पर आ धमका था। उसके मुंह से गुस्से का फेन उड़ रहा था। पुन्नु को पकड़वाने के लिए थाना फौजदारी की धमकी देता हुआ सेठ दरवाजे पर जोर-जोर से चिल्लाने लगा । शादी घर मेेेेेेेेेें रोना रोहट मच गया। लोगों में काना-फूसी होने लगी वृंदा की मां की स्थिति तो सांप छछूंदर वाली हो गई थी। सेठ के पैरों पर गिर पड़ी बेटी का वास्ता दे कर कहा था, ‘‘भले सड़क पर आना पड़ जाए पर आपका पाई-पाई लौटा दूंगी।’’ तब कहीं जाकर सेठ वहां से टला था।

भींगती हुई पूर्णमासी की रात में चांद की डोरी पर सवार उन्मीलित आंखो में सपना भर कर पैरों में महावर सजाए बंशीधर सिन्हा की छोटकी दुलहिन जब दरवाजे पर उतरी तो झुंड की झुंड महिलाएं पहुंचने लगी थीं। कांस की थाली में छंटाक भर चावल गुड़ और हल्दी का टुकड़ा लिए आने वाली न्योतहारिन दुलहिन की एक झलक के लिए उत्सुक थीं। घर के बाहर चमर बाजा की डिडिंग डिडिंग धिंग की ऐसी धूम मची थी कि भीतर की रोमावलियां तक नाच उठतीं । लेकिन यह क्या अभी कोहबर में दुल्हा दुलहिन एक दूसरे का मुंह ठीक ढंग से देख भी नहीं पाए थे तभी सुरेश बहु हनहनाती हुई आई थी। चाभियों के गुच्छों को लगभग फेंकती हुई तमक कर बोली थी-

‘‘अब घर गृहस्थी का काम मुझसे नहीं सम्हलता’’

‘‘ए कैसा बखेड़ा है बड़की अभी रस्म चल रहा है, घर की इज्जत का कुछ तो ख्याल करो।’’ ‘‘यह नीच चाल चलता होगा तुम्हारे खानदान में हमारे यहां यह सब नहीं चलता। घर में कार्यक्रम चलता रहे और घर की बहुरिया नाटक करे अम्मा चीखी थी।’’

‘‘हां मैं नीच खानदान की हूं,’’ ‘‘लेकिन मेरे भी बाल बच्चे हैं।’’ ‘‘मैं उनका मुंह पोंछ कर आपके खानदान की सेवा नहीं कर सकती।’’ ‘‘रही रस्म अदायगी की बात तो उसमें क्या रखा है रस्म तो पूरी होगी ही।’’ उस दिन जाने क्या हुआ था बड़की भीतर से एक दम भरी हुई थी। ‘‘झबली की शादी में मेरा सारा का सारा गहना चला गया किसी के मुंह से आह तक नहीं निकला।’’ ‘‘बाबू जी चाहते तो जमीन का एकाध टुकड़ा बेच देते तो वाह-वाही हो जाती लेकिन जमीन का मोह छाती पर धरा रहा। अब सुनील बाबू हिस्सेदारी में कम तो लेगें नहीं। इधर बड़की का राग वितंडा चल ही रहा था, और नौवाइन आलता लिए पैरों पैरों घूम रही थी। हलुवाई आटे की परात लिए नाक में कोड़ी डाल रहा था सो अलग।

जिस दिन से ब्याह तय हुआ था उसी दिन से मोहल्ले भर की लड़कियां चिकोटी किया करती थीं, ‘‘इतने बड़े घर की बहु बन कर जा रही है भाई इसके क्या कहने।’’ कोई नेग में पायल मांगता तो कोई कुछ। वृंदा भीतर ही भीतर फूली न समा रही थी। बात थी भी सही सुनील के बाबा यानि पंडित रामप्रसाद की जमींदारी थी। पूरे सूबे में उनके नाम का डंका बजता था। दरवाजे पर महावतों के साथ हाथी झूमा करते थे। बेगार हलवाहों की फौज हमेशा तैनात मिलती थी। कहते हैं एक बार घुड़क देते तो छोटी जाति वालों का पेशाब बंद हो जाता था। लेकिन कहते हैं न धन आता है तो जाने का रस्ता साथ में लाता है। पंडित रामप्र्रसाद की औलादें धन के गुमान में इतना धंसी कि, होश ही न रहा। न बाल बच्चों के परवरिश की चिंता न पढ़ाई लिखाई का ख़्याल। जब आवश्यकता पड़ी बीघा दो बीघा जमीन रजिस्ट्री कर दिया। कई दफा तो पान खायी और जमीन लिख दी।

सुनील कुमार कहने भर को स्कूल जाते थे, पर मुख्य काम तो पिता जी का हुजूरी था। कभी दौड़ कर सुरती लाया, तो कभी शराब की बोतल ढो दिया। बहुत ले दे कर पांच दर्जा से उपर नहीं जा सके थे। न हाथ में कोई हुनर था, न स्कूली शिक्षा,बचीखुची जमीन और खानदानी रौब के दम पर ही घोड़ी पर जा चढ़े थे।
‘‘ब्याह करने की हमारी इच्छा तो तनिक भी न थी, लेकिन अम्मा की जिद के आगे हारे थे।’’ ‘‘कहने लगी दुलहिन ले आओ नहीं गले में रस्सा डाल लटक मरेंगे।’’ ‘‘हम भी डरे कहीं कुवां में कूद काद पड़ी तो अलग महाभारत।’’ पहली ही रात को सुनील ने अपनी राम कहानी कह सुनाई थी।
‘‘हम भी कहां शादी को मरे जा रहे थे।’’ ‘‘वो तो हम अपनी मां के सर के बोझ हुए जा रहे थे वर्ना…..बाबू जी को नहलाना-धूलाना सब हमारे जिम्मे था।’’ ‘‘हमारे आने से उनको कितनी दिक्कत हो रही होगी सोच कर दिल धुंवा हुवा जा रहा है। यहां ज्यादा दिन रहना हमारे लिए भी कठिन ही है बाबू जी की देख-भाल करने वाला कोई नहीं है,हम रहेंगे तो उनका दिल लगा रहेगा।’’

‘‘ठीक ही कह रही हो वैसे भी मिट्टी से पेट तो भरेगा नहीं’’ ‘‘कमाई धमाई भी इतनी नहीं है कि तुम्हारा शौख पूरा कर सकूं।’’ पृथक पृथक जीवन यापन के मसंूबे दोनांे गढ़ते रहे लेकिन न वृन्दा का कोेई लेवाल आया न सुनील को ससुराल जाने की इच्छा हुई। ढिबरी की लौ सी लपलपाती दोनांे की जिन्दगी गन्दले पानी से भरी बरसाती नदी सी थी जिसे बादल दिखता तो छलछला जाती नहीं सूखी सिकता सी पड़ी रहती। सुनील का एक तो देह कमजोर उपर से दरवाजे पर खड़े आम से परेशानी अलग। भर गर्मी सूखी पत्तियों को झाड़ते रहो,ठंड आए तो पूरी की पूरी धूप छेंके खड़ा रहता। डंगालिया छानी पर चढ़ी खपड़ो को नुकसान पहंुचाती सो अलग। यही कारण था कि सुनील आम को ले कर पितपिताया रहता था। उस दिन मौका अच्छा था। मुदा रात को ही महंगा की मां मिट्टी हो गई थी सो फूंकने के लिए काठी का करार हुआ। पांच सौ पर बात बनी, तय हुआ झुके हुए चार-पांच डंगाल काट ले जिससे खिस्से में कुछ आ भी जाए और पेड़ की जान भी बची रहे। एक दम भिनसारे मंहगा ने चार-पांच मोटे डंगाल तो काट लिए लेकिन अंतिम डंगाल गिरी तो बड़की भिन-भिनाते हुए आ धमकी थी।
‘‘कौन निमोछिया है रे किससे पूछ कर टांगा चलाया।’’

मंहगा वैसे भी अकड़ू था,उपर से मोल लिया था सो ऐंठ गया। ‘‘मोल लिए हैं और किसी के बाप का नहीं खाते हैं जो आप गाली देने आ गईं। बात जब बाप तक पहुंची तो जमींदारी खून हिलोड़ मारने लगा। बड़का लगे तमकने कस के धकियाये तो महंगा चारो खाने चीत पड़ गया। ठांव-कुठांव ऐसा लगा कि मुंह से खून के बुल-बुले फूट पड़े। कहां तो मां की चिता सजाता कहां पट्ठे को खुद की जान के लाले पड़ गए। गर्म मिजाजों ने मामले को थाना फौजदारी तक पहुँचा दिया। नये-नये पधारे थानेदार को क्या उसके लिए पकड़ो तो छोड़ो तो दोनों में बल्ले-बल्ले। कुछ लोग हरिजन एक्ट लगवाने को ले कर अड़ गए।

‘‘साहेब बड़का भईया छूट माई बहिन तो बकबे किहिन साथ मेें नीच की औलाद कह-कह के खूब अपमानित भी किए।’’सरकार हम लोग कोई ढोर डांगर थोड़े हैं जो लाठी ले कर हांक दो। चारो तरफ से गवाहों की फौज खड़ी हो गई थी।

बड़का की जान आफत में फंस गई लगे चिरौरी करने ‘‘साहब आप जिस सरकार की रोटी खाते हैं उसी सरकार के हम भी मुलाजिम हैं। आप तो जानते ही हैं थाना फौज-दारी हुई नहीं कि नाक कटी ससपेंसन होगा सो अलग। बड़की तो बात ही बात में कुर्सी ले आई। चाय-पानी पोहा पूड़ी उपर से।

‘‘वो सब तो ठीक है गुरुजी लेकिन नौकरी तो हमारी भी है।’’‘‘आप तो देख ही रहे हैं पूरा का पूरा समुदाय एक तरफ खड़ा है रिपोर्ट न लिखूं तो बात मीडिया तक पहुंचते मिनट नहीं लगती।’’बड़का की जान सांसत में ऐसी फंसी कि न उगलते बने न निगलते। ‘‘दांत पीसते हुए लगे घरवाली को गरियाने’’,‘‘आदमी आस पड़ोस के काम न आए तो किसके काम आएगा।’’ ‘‘बेचारे की मां मरी थी कुछ डंगाल काट ही लेता तो कौन सा अकाल पड़ जाता।’’ इधर लोगों ने महंगा को पानी-वानी पिलाया तो खड़ा हो गया।

‘‘जाने दीजिए सरकार इन लोेगों की मार-गाली खाकर ही तो हम लोग बड़े हुए हैं,’’ ‘‘अब इनकी बात का क्या बुरा मानना।’’‘‘मां मरी है कुछ-काछ हो जाता तो इधर हाथ भी बहुत तंग है।’’ ‘‘वैसे भी बड़का भईया से लड़ कर कहां जिन्दगी चलेगी।’’ कहां तो एक डंगाल को ले कर हाय-तौबा मचा था। कहां साहब को चढ़ौती समेत महंगा को हर्जाना भरना पड़ा। साथ में महुवा टांड़ का पूरा का पूरा सरई का पेड़ भी आहूत करना पड़ा सो अलग।

बड़की तो वैसे भी अलगौझा के लिए ताक लगाए बैठी थी। मौका मिलते ही भाड़ा बर्तन आंगन में पटक दिया था। ‘‘अब ऐसे कुजाल में तो मैं एक पल भी नहीं रह सकती’’ ‘‘आज से अपना अपना चूल्हा देखो’’

सुनील हडकंक हुआ जा रहा था,यह वितंडा देख भीतर से थर-थराहट सी होने लगी। लेकिन अपढ़ों में अकड़ ज्यादा होती है। सुनील भी अकड़ गया। ‘‘जब चूल्हा अलग ही करना है तो सब कुछ अलग कर दो।’’ ‘‘गाय बैल खेत बारी सब कुछ।’’

बड़का बात में मिट्टी डालने का प्रयास भी किये थे।‘‘तुम भी लगे हो बचपन से तो देख रहे हो अपनी भाभी को फिर भी नहीं समझ पाए हो।’’ इसका गुस्सा तो टीन तपने सा है क्षण में गरम क्षण में नरम।’’ ‘‘और तुम भी कहां इधर-उधर मारे फिरोगे।’’ ‘‘घर की चक्की है पीसो और खाओ।’’ ‘‘जो रोजगारी बने हिसाब से ले लो’’ ‘‘घर की बात घर में ही रहे तो अच्छा है।’’

लेकिन छोटकी का मुंह भी खुल गया था। ‘‘इतनी बेइज्जती के बाद तो बाहर की मजूरी कर के जी लेंगे, लेकिन आपका दिया ढेला भी न लेगें।’’ ‘‘यह तो अच्छा है एक दूर-दूराए दूसरा सहला कर नौकर बनाए।’’सुनील भले भाई से अलग हो रहा था लेकिन जेठ से बहुरिया बहस करे उसे तनीक गवारा नहीं था। बढ़ कर घरवाली को डपेटा तो बड़का का जी भीतर ही भीतर गद-गद हो गया था।

दूसरे दिन मज़ूर दिन भर ज़रीब लिए इधर से उधर भटकते रहे। पटवारी सीमांकन कर के कहीं पत्थर तो कहीं लकड़ी से निशान बनाते गया। टाना,झोरिखा,बहरा,टांड़,टिकरा,गाय,बैल, सब बराबर-बराबर बंटते चले गए। कहीं कोई विवाद नहीं हुआ। शाम को आर.आई साहब की शान में दावते जश्न रखा गया। बोतल के ढक्कन खूले तो धीरे-धीरे शुरुर चढ़ा। थोड़ा नशा चढ़ते ही जाने कहां से बड़का पुराना संदूक उठा लाए। संदूक क्या खुला बवंडर खुल गया। पीली पड़ी काॅपी जिसके पत्ते-पत्ते झड़ रहे थे,में लिखा था ‘‘बंशीधर सिन्हा जी को टी.बी. के इलाज के लिए दो सौ पचास रुपये मय सूद दिया जाता है। एवज में बांध के उपर वाले डेढ़ एकड़ के प्लाट को गिरवी रखी जा रही है। पैसा भुगतान होते तक खेत का मालिकाना हक मालती सहुवाईन के पास रहेगा। ऋण अदा कर दिए जाने पर मालिकाना हक स्वयमेव हस्तांतरित हो जाएगा।’’ उसके ठीक नीचे लिखा था, ‘‘बंशीधर सिन्हा जी के बड़े लड़के से दो सौ पचास रु.मय सूद प्राप्त किया। खेत का मालिकाना हक वापस किया जाता है।’’ नशा थोड़ा ज्यादा चढ़ा तो लड़खड़ाती जब़ान में बड़का ने कहा था,‘‘आर.आई.साहब इस जमीन पर मेरा काबिज बनाईएगा बस।’’

‘‘ऐसा कीजिए सब आप ही रख लीजिए।’’‘‘हम तो जइसे अपने बाप के पेशाब से पैदा ही नहीं हुए हैं।’’ ‘‘मैं तो नहीं कहने गया था, जब अम्मा का पाई-पाई गहना बेच कर झबली की शादी में लगा दिए।’’ ‘‘और उसी बहाने भाभी का नेकलेस गढ़ा लिए।’’ ज़बान की कुदाल से बात खुदती चली गई। और बात से बात निकलती चली गई। कांव-कांव इतना मचा की सब कुछ बेतरतीब होता चला गया। आर.आई. साहब तो पिनक में थे ही जिधर का पलड़ा भारी दिखा उधर ही कूद पड़े। वो तो पटवारी ने झमेले से निकाल लिया वर्ना उनका सिर खुल गया होता। दिन भर की मगज मारी बेगारी में ही चली गई समझो क्योंकि खेत नाप लिया गया निशान लगा दिए गए लेकिन नामान्तरण के समय सिर फुटौवल हो गया था। सो नामान्तरण नहीं हो सका क्यांेकि आर.आई.साहब मुंह कुप्पा किए चले गए और पटवारी अलग ऐंठ गया।

उस दिन मातमी सूरत लिए सूरज के साथ देवकुमारी बैलों को सानी-पानी देने की गरज से आई तो माजरा देख कर भीतर से हुलसी। ‘‘जो हुआ अच्छा हुआ बड़की दुलहिन अब मुंह जोर का अदरावन कोई कितना सम्हाले।’’ ‘‘छोटी मुंह बड़ी बात करते डर भी लगता है।’’ ‘‘आपके भी तो दू ठो लाल हैं।’’ ‘‘सब परिवारे में झोंक दीजिएगा तो गाढ़े दिन में कौन काम आएगा।’’ जाने क्यों देवकुमारी वृंदा से चिढ़ी रहती थी। वैसे भी सहुवाइन चाची वाली जमीन को ले कर बमचख न हुआ होता तो दूसरे तीसरे दिन खाता खतौनी अलग हो गया होता। कागजी बंटवारा भले न हुआ हो लेकिन अम्मा को छोड़ कर पूरी संपत्ति का बंटवारा हो गया था। अम्मा सुबह की चाय बड़की के यहां तो शाम का खाना छोटकी के यहां करते कराते मोक्ष को प्राप्त कर गईं। इधर जाने क्या हुआ था, नीली चादर बिछती नहीं कि सुनील को झुरझुरी सी होने लगती। देखते देखते जिन्दगी की नदी में रेत के बगुले उड़ने लगे। कभी बिहौती गगरा बेच कर, तो कुछ दिन कान की बाली तो कभी पड़ोसियों के सहारे जिन्दगी की गाड़ी घसीटती रही। सुविधा घटी तो कलह बढ़ा, रोज सुबह शाम रार मचने लगा। वृंदा चिरौरी कर कर के थक गई ‘‘चलिए किसी डाक्टर से दिखा लेते हैं’’, ‘‘कुछ महीना चढ़ कर कच्चा क्यों हो जाता है।’’ लेकिन सुनील पिनक जाता यहां ‘‘पेट पीठ से सटा जा रहा है, और तुम को बच्चे की पड़ी है।’’ ‘‘क्या करोगी बच्चा ले कर‘‘फिर चाहे मैं जीता न रहूं , इतनी खेती-बाड़ी है कि, अधियारे ही तुम्हारा पेट पर्दा चला देंगे।’’

‘‘बड़ा आए खेत के मालिक बनने, मिट्टी से पेट थोड़ी भरा जाता है।’’‘‘मरने के बाद तो कुत्ता भी न पूछे।’’ ‘‘ हम पूछते हैं बियाह क्या हाड़ में हल्दी लगाने भर को हुआ है।’’‘‘ न खाने का सुख न साज सिंगार का’’‘‘बाल बच्चों को कहो तो अलग रोना’’उस दिन दोनों में खूब झन्न पटक हुआ। बात यहां तक बढ़ी कि खटिया बिस्तर तक अलग हो गए। वृंदा खटिया पर लेटी तो झपकी लगते ही देखती है,खेत खलिहान सब बहते चले जा रहे हैं। और गंदले पानी में खुद ऊभ-चूभ हो रही है। तभी क्या देखती है कि एक काला नाग विशाल फन फैलाए जीभ लप-लपाता हुआ उसकी ओर बहा चला आ रहा है। हड़बड़ाहट में जब आंख खुली तो हाथ पैर थर-थरा रहे थे। उठने की ताकत भी न रही। दिल किसी अनहोनी की शंका से धकधकाने लगा था। बाबू जी आंखो के आगे झूल जाते। फिर जी कड़ा़ करके सिर को झटका दी तो देखती है कि, सुनील कथरी में लटपटाया बेसुध पड़ा है दिल कलप गया। ‘‘सुहाग जैसा भी है, इसी पर नाज है।’’ ‘‘औैर गलत क्या कहते हैं बच्चा’’ ‘‘किसके दम पर आगे बढें कोई सरकारी नौकरी तो है नहीं कि, वेतन का आसरा रहे।’’ मन भीतर ही भीतर ग्लानि से भर गया। लगी स्वयं को कोसने हाय मैं कितना स्वार्थी हूं बस अपना ही सोचती हूं। जी में आया पैरों पर गिर कर खूब रोए। मन भारी हुआ जा रहा था। सड़क पर आने जाने वाले राहगीरों की पद-चाप सुनाई पड़ने लगी थी। वंृदा झटके से उठी पथिया उठाया और निकल गई। ‘‘यह क्या कि, मैं पड़ी रोटी तोड़ूं और बेचारे हड़कंक हो कर भी दानों के लिए मारे फिरें।’’ ‘‘अब दुनियां कहे जो कहना हो।’’ अहीर टोला के आगे वाले चुनिया महुवा के नीचे पहुंची तो महंगा बहु कनफुसियायी थी।

‘‘का दुलहिन इतने बड़े घर की बहुरिया हो कर आप महुवा चुनेंगी शोभा थोड़ी देगा।’’ वृंदा तो मौन रही पर भोर ने पूरे टोले में चुगली कर दी लाला जी की छोटकी बहुरिया के आंख का पानी मर गया है। नीच जातियों के साथ महुवा चुन रही हैं।

बात जब बड़की तक पहुंची तो भुन-भुनाती आई ‘‘अब यही बेहयाई देखने को बाकी रह गई थी।’’ ‘‘इस घर में मुझे बत्तीस बरस हो गए’’‘‘आज तक भर आंख अपनी खेती बारी नहीं देखी हूं’’‘‘और तुम पहंुच गई महुवा चुनने।’’ ‘‘जो लोग बाबू जी की एक घुड़की से पेशाब कर देते थे उनकी लुगाइयों के साथ तुम महुवा चुन रही हो।’’ ‘‘ऐसा कर के आखिर तुम जताना क्या चाहती हो।’’वृंदा के मुंह से बोल तो नहीं फूटे पर आंखो के कोर से एक बूंद अवश्य लुढ़क गया था।

वृंदा को जो डर था वही हुआ था। उस दिन भिनसारे का सपना देख कर दिल धकधका रहा था। अभी मुश्किल से दो दिन भी नहीं बिता था तभी चैक पर से लड़का दौड़ता आया था। ‘‘छोटकी दुलहिन आपके बाबू जी मर गए।’’ हाय कलेजा धक् किया। किससे कहे क्या करे सुनील से जा कर कही तो वही रोना‘‘तुम मेरी स्थिति तो देख रही हो।’’ ‘‘बार-बार ठंड लग कर ताप आ रहा है। ‘‘जी तो बहुत करता है,ससुराल का मामला है।’’ ‘‘ न जाते भी नहीं बनता है, लेकिन जाया भी नहीं जाता।’’ ‘‘जाओ तुम मैं पीछे से आता हूं।’’

जाना बहुत जरुरी था,पर हाथ में ढेला नहीं था। इस लिए दो चार पथिया महुवा बेचा और हिस्सा में मिले पीतल वाले परात को गिरवी रख भागी हुई गई तो लेकिन अंतिम दर्शन नहीं होना था सो नहीं हुआ। मां को अकवार भर के फफक कर रोई थी। दुःख पिघल कर बहा तो ढेरों गिले शिकवे एक साथ बह निकले थे।

‘‘औरत का दूसरा नाम दुःख है बेटा’’ ‘‘सीता,सती का जीवन तो पहाड़ था, तो हमें कौन पूछता है।’’मायके आई तो आज कल करते करते छः महीना बित गया लेकिन लौट कर जा न सकी। एक दो बार एस.टी.डी. से फोन भी मिलाया पर बात न हो सकी। दुःख जब सामने होता है तो पहाड़ लगता है पर दूर होने पर परछाई फिकी पड़ने लगती है। दूर से घास लगा खेत भी हरा ही दिखता है। वृंदा को लगा इतनी खेती बाड़ी हइए है। फिर नहीं रहने पर बड़की दीदी खान पान करबे करेंगी, कोई दुश्मनी थोड़ी है। अभी सोच ही रही थी तभी चचेरा भाई हड़बड़ाया हुआ आया।
‘‘यहीं बसने का इरादा है का दीदी’’ ‘‘जीजा जी का फोन आया था, गुस्सा रहे थे, चलो हम उधर ही जा रहे हैं छोड़ देंगे।’’

‘‘लेकिन ऐसे कैसे अभी तो कुछ किए भी नहीं हैं।’’ ‘‘हाथ भी खाली है।’’ वृंदा की मां ने रोकने का खूब प्रयास किया।

‘‘नहीं मां गोलू ठीक ही कह रहा है।’’ ‘‘घर की हालत तो तुम जानती ही हो।’’ ‘‘बहुत मुसिबत में हैं बेचारा।’’ ‘‘फिर आना- जान तो लगा ही रहेगा।’’ आनन फानन में भर हाथ चूड़ी पहनी टिकली, बिन्दी,महावर,आलता.लगा कर सोलह श्रृंगार किया गोलू पनियाई आंखो से सब देखता रहा। टोका तो डपट दी ‘‘इतने बड़े घर की छोटकी दुलहिन हैं लोग क्या कहेंगे।’’

बस जैसे ही गांव के तिराहे पर पहुंची तो गोलू अन्यमनस्क सा हो कर वृंदा को वहीं उतार दिया था। ‘‘दीदी बहुत जरुरी काम से जाना है, नहीं घर जरुर चलते।’’ अब तिराहे पर ज्यादा हील-हुज्जत का अवकाश कहां था।

मन में आया ‘‘चचेरा है न इस लिए ऐसे छोड़ कर चला गया।’’ ‘‘अपना भाई ऐसे थोड़ी छोड़ता।’’खैर मन को झटकी और सोची इनको केला बहुत पसंद है, इस लिए एक दर्जन केला खरीद लिया । वैसे भी बेचारा कहां कुछ खा पाते हैं। मुदित मन अभी घर से के सामने पहुंची ही थी तभी मौन खड़े उदास पेडों़ को देख कर दिल घबरा उठा था। सफेद चादर में लोटा छूरी धरे बड़का भईया दिखे तो दिमाग काम नहीं किया। लगा अम्मा चट-पट चली गईं। लेकिन अम्मा को गए तो साल गुजर गया….पर मातमपुरसी की सूखी चीख से तार पर पंक्तिबद्ध बैठी गोरैया अकबका कर भाग गयीं। बात समझते देर न लगी। वृंदा गश खा कर गिर गई। दांत पर दांत लगे लेकिन औरत जात कठकरेज कुछ भी नहीं हुआ। सतनहान के दिन वृंदा को घर लिपने की रस्म अदायगी करनी थी जब पोतन उठाई तो दरार पड़े चूल्हा के बगल में भुवायी हुई रोटी और करियाये प्याज को देख कर वृंदा फफक उठी थी।

अभी चिता की आग ठंडी भी नहीं हुई थी। रिस्तेदारों का जाना हो ही रहा था,तभी आंगन में एक पथिया धान पटकती हुई बड़की किच किचाई थी। ‘‘अब हियां का लेने आई हो जहां गई थी वहीं घर बसा लेती।’’

‘‘सेन्दूर दान करके लाए हैं दीदी तो कहां जाउंगी।’’ ‘‘ए भी तो बाबूजी के ही बंूद थे।’’ ‘‘इनके हिस्सा में जो उपजेगा खाउंगी और पड़ी रहुंगी।’’
‘‘ देखिए तो महारानी का जब़ान’’ ‘‘जब भतार मर रहा था तब तो चिन्ता नहीं थी।’’ ‘‘बाप को मरे सात महीना हो गया तब तो महतारी को अगोर कर बैठी थी।’’ ‘‘अब बड़ा आई है हिस्सा खोजने।’’ ‘‘कोई दूसरा परिवार होता धक्के मार कर भगा दिया होता।’’
‘‘आपकी मर्जी दीदी निकाल भी देंगी तो आपके दरवाजे पर ही पड़ी रहूंगी।’’‘‘आपका दिया भिख समझ कर खा लूंगी।’’
‘‘राड़ और सांड़ से भगवान बचाए,’’ ‘‘मैं भी देखती हूं तुम यहां कैसे रहती हो’’ भुन-भुनाते हुए बड़की चली गई थी।

उबड़-खाबड़ रास्ते से जीवन की दरिया बह निकली थी। कभी महुवा तो कभी धान पेट तो भर जाता था। लेकिन जीने के लिए सिर्फ पेट ही तो नहीं है और भी बहुत सी आवश्यकताएं होती हैं। पर जिन्दगी के रेगिस्तान में दूर-दूर तक रेत ही रेत पसरा था। इतने बड़े घर की बहुरिया कपड़ो के लिए झखे यह भी शोभा नहीं देता। किसी ने बताया था पास ही पंचायत भवन में निराश्रितों के लिए पेंशन शिविर लगा हुआ है। जाते झिझक हो रही थी। लेकिन करे भी तो क्या करे। महंगा उधर ही जा रहा था। सो सायकल की कैरियर पर बैठ गई थी।

‘‘छोटकी दुलहिन आप इतने बड़े जमींदार के घर की बहुरिया हैं।’’‘‘वहां की बेटी बहुरिया कभी अकेले बाहर नहीं निकलती हैं। आप मेरे साथ अकेले सायकल पर चली आईं आपको शोभा नहीं देता है।’’

‘‘शोभा कहां देता है मंहगा भईया।’’ ‘‘इतने बड़े घर की बहुरिया को निराश्रित पेंशन के लिए लाईन लगाना पड़े यह भी तो शोभा नहीं देता।’’ वृंदा की गुचगुची आंखे पनिया गई थीं। प्रदेश चुनाव नजदीक था। सत्तारुढ़ दल सरकारी मशीन को चुनाव की तैयारी में झोंक दिया था। शिविर में मंत्राी जी आने वाले थे इस लिए चारों ओर चाका-चक प्रबंध था। कहीं बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ तो कहीं,खुले में शौच मुक्त भारत जैसे नारे लिखे थे। पंचायत भवन के प्रांगण में लगे विशाल आम के पेड़ को नीचे से सात फीट तक चूने से रंगा गया। साक्षरता,शिक्षा से ले कर पंचायत विभग तक ने अपने-अपने बैनर के साथ मजमा सजाया था। कोई मु∂त में सोलर पंप दे रहा था तो कोई स्वच्छता रैली निकालने की तैयारी कर रहा था। सब के बीच वृंदा को अपनी जान सांसत में फंसती जान पड़ती ।

भीड़ की गहमा-गहमी में कब आंख झपक गई पता ही नहीं चला। पेड़ पर लगे कच्चे चूने से पूरा का पूरा शाल सफेद हो गया जो छूटाए न छूटा। दूसरी ओर मिसाई कटाई का समय चल रहा था। भूंसे के बारीक कण उड़-उड़ कर बालों से चिपक गए। वृंदा की तो शक्ल ही भूत हुई जा रही थी। बहुत संयम बरतते,उबते खिझते जब उसकी बारी आई तो चारो ओर अंधकार पसर चुका था। घर के लिए निकली तो हाथ को हाथ न दिखने वाला नीम अंधेरा था। गाड़ी मोटर वाले गर्दिश में कब किसके हुए हैं, जो वृंदा के होते। सब अपने धुन में मगन फुर्र हो रहे थे। अब अकेले जाते मन भयाक्रांत हो रहा था लेकिन जाना तो था ही। अभी मरियाई रोशनी वाले पीले बल्ब के खम्भे के नीचे पंहुची ही थी कि लड़-खड़ाती सायकल में समय लाल की आकृति उभरी। पास के ही टोले का समयलाल खुद को गांव भर का हीरो समझता था,वृंदा को देख झट सायकल से उतरा खंभे से सायकल टिका कर जाने किस चीज की डंडी उठाया और दाहिने पैर पर बैठ कर एक दम फिल्मी अंदाज में कहा था‘‘जिन्दगी-ए-रेगिस्तान में फूल खिला सकता हूं। एक बार संग चल कर तो देख तारों को जमीं पे ला सकता हूं।

‘‘मुंह झौंसा कहीं का उठा के पत्थर से देंगे तो दीदा चनक जाएगी।’’ ‘‘बताएं का बड़का भइया से’’ वृंदा की झड़प से समय लाल सकपका गया था। पैरों पर लोट कर गिड़गिड़ाया था,‘‘बुरा मत मानिएगा छोटकी दुलहिन मैं तो बस मजाक कर रहा था।’’
‘‘अच्छा तो अब हम तुम्हारे हंसलगुवा हो गए’’ ‘‘कहे देते हैं अपनी औकात मत भूलो।’’ ध्यान रहे लाला मैं किस घर की बहुरिया हूं।‘‘ इशारा करने की देर है बस चमड़ी छिल कर भूंसा भरी समझो।

घर पहुंच कर अभी सांकल खोल ही रही थी,तभी बड़की पिनपिनाई थी। ‘‘कहां उठा-पटक हुआ है छोटकी दुलहिन।’’‘‘पूरा देह सफेद हुआ जा रहा है।’’ ‘‘तनिक आइना में चेहरा देखो जा कर कान कपार में भूंसा लटका हुआ है।’’अभी सुनील को मरे दिन ही कितना बिता है जो लगी छिनाली करने।’’
बड़की की अर्थ भरी कुटिल मुस्कान ने वृंदा को भीतर तक तोड़ कर धर दिया था। अन्दर से हूक सी निकली लेकिन जी कड़ा कर के कही थी। ‘‘अब करम ने ही छिनाल बना दिया तो दोष किसको दें दीदी।’’‘‘सब मान जाएगा लेकिन पेट तो नहीं ना मानेगा।’’ ‘‘हाथ मंे दुगो रुपया न रहे तो देह पर चिथड़ा झूलने लगेगा फिर आप की ही नाक कटेगी।’’ ‘‘निराश्रित पेंशन का शिविर लगा था वहीं गए थे।’’

‘‘करम जान ही कपास फूटता है दुलहिन,अब जमीदार परिवार की बहुरिया निराश्रित पेंशन के लिए लाइन लगा रही है तो भवान ही मालिक है।’’ ‘‘गांव घर में बड़का भईया की नाक बचने भी दोगी की नहीं’’‘‘पहले तो बड़ा कूद-कूद के मायके चली जाती थी।’’ ‘‘अब भाई नहीं पूछता क्या?’’

‘‘भाई बाप किसके हुए हैं दीदी जो हमारे होंगे।’’बातों की बाढ़ ऐसी आई कि, दोनों घरों के चूल्हों को मौन रहना पड़ा। इधर कई दिनों से छोटकी दुलहिन के दिमाग को ले कर गांव भर में एक अलग तरह की बयार चल निकली थी। उसे कभी महुवा के नीचे तो कभी आम के नीचे देखा जा सकता था। शरीर के कुछ भाग में भयंकर एग्जिमा हो गया था। किसी ने बताया था सूर्य उगने से पहले ज़ख्म वाले भाग को धो कर सड़क के एक भाग से दूसरे भाग में डालने पर मर्ज ठीक हो जाता है। ऐसा करते हुए लोलवाइन ने देख लिया। चारो ओर कनफुसियाया गया छोटकी दुलहिन निरबंस हैं इस लिए लोगों का भरापूरा परिवार देख कर जलती हैं। किसी ने यहां तक कहा पास के ही गांव चिरगुड़ा के जटहवा बाबा से जोग सीखने जाती है। यही कारण था लोगा छोटकी दुलहिन की परछाईं से भी दूर भागने लगे थे। लोग जो चाहे समझे वृंदा को किसकी परवाह थी। शिव मन्दिर के बाजू वाली बाड़ी के आम लगे तो थे उसी के हिस्से वाली जमीन में लेकिन क्या मजाल कि, टोला के लड़कों के हाथ से एक आम भी बच कर निकल जाए। उस दिन जाने वृंदा को क्या हुआ सूर्ख लाल सूरज तमतमा कर धरती को झुलसा रहा था। लेकिन वृंदा कहां मानने वाली थी शिव मंदिर की सीढ़ी पर ताक लगाए बैठी रही। मालदा आम गिरे कि भाग कर छीने, वाह रे नियति जिन सिन्हा जी के नाम से पूरा टोला थर्राता था आज उन्ही की बहु अपने ही अमवाड़ी में एक आम के लिए चिलचिलाती धूप में देह सूखा रही थी। चाहती तो एक इशारे पर, भर टोकरी आम घर पहुंच जाता। लेकिन कहते हैं न करम का लेख मिटाए कहां मिटता है, गिरता हुआ आम देख अभी लपकी ही थी कि, एक सन सनाता हुआ ढेला आकर सीधा माथे पर पड़ा था।


-डाॅ.नीरज वर्मा
मायापुर अम्बिकापुर
सरगुजा छत्तीसगढ़
मो.9340086203/809895593
drnirajvermaneer@gmail.com

कहानीकार का परिचय

नाम- डा. नीरज वर्मा
जन्म-05-05-1974
संप्रति- छ.ग.शासन के विद्यालय में व्याख्याता।
शिक्षा-एम.ए.हिन्दी एवं संस्कृत,डी.एड. पी-एच.डी.।
प्रकाशन- हंस,परिकथा,कथादेश,कथाक्रम,उद्भावना,कथाबिंब,वसुधा,साम्य,वसुधा,युग तेवर,परतीपलार, प्रतिश्रुति,पूर्वापर, आदि पत्रिकाओं में एक से अधिक बार कहानी प्रकाशित वर्तमान में कई कहानियां स्वीकृत । आकाशवाणी अम्बिकापुर से नियमित रचना पाठ ,दूरदर्शन रायपुर से एक से अधिक बार साक्षात्कार प्रसारित और चर्चित। अभी तक बीस से अधिक कहानियां राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं में प्रकाशित और चर्चित।
संपादन-साहित्यिक पत्रिका ‘लौ’, ‘‘नया सबेरा’’ ‘‘प्रतिबिम्ब’’‘‘अक्षर दीप’’ आदि का संपादन और सह संपादन।
प्रकाशित पुस्तकः- ‘‘हिन्दी का सांस्कृतिक भूगोल’’
हंस में प्रकाशित कहानी ‘पत्थर’के लिए तिलौथु सासाराम बिहार के कालेज राधा-शंता से सम्मानित।

डा.नीरज वर्मा
मायापुर अम्बिकापुर
सरगुजा छत्तीसगढ़
मो.9340086203/809895593
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