महान विचारक अरस्तू ने कहा है – “Tragedy is the best form of poetry.” दुखांत कथानक से अधिक कौन सा कथानक मानव संवेदना को झकझोरता है! कदाचित कोई नहीं; नि:संदेह दुखांत घटना चाहे व्यक्ति के निजी जीवन में अथवा समष्टि /समूह के जीवन यात्रा में अचानक घटित होती है, सुनने और देखने वालों के मन और हृदय को विचलित ही कर देता है ।
साहित्य में तो निरीह, संघषर्रत व्यक्ति का जीवन वर्णन हमारे भावों को शून्य करते हुए शांत कर देता है, व्यक्ति के ऊपर आई विपत्ति को व्यक्ति रो कर एवं आंसूओं को बहा कर भावों को शांत कर लेता है जिसे “Purgation of Emotions and Feelings” अर्थात भावों को विरेचित अथवा शुद्धिकरण क्रिया कहते हैं ; साहित्य मैं इसे Catharsis अर्थात् भावों को साफ कर लेना होता हैं ।
साहित्य में सुदामा की दीन दशा देखकर करुणानिधि रो पड़ते हैं, वह तोड़ती पत्थर मे निराला जी द्वारा वर्णित स्त्री पाठक के भावों स्थाई रूप से शुद्ध करती है इस संवेदना के साथ हमारा जीवन कांटो भरा है जिसमें कष्ट और संघर्ष ही है । सुख में कहां वह स्थाई भाव मिलेगा जो मुस्कान तो देता है पर कब तक!
किसको पता जा था कि उड़ीसा प्रांत में अपने अपने गंतव्य को जा रहे थे कि अचानक त्रासदी का ऐसा दुखांत एपिसोड घटित होगा जो उन्हें नहीं पता था, सुखांत आशा दुखांत निराशा में परिवर्तित हो गया; उनके संबंधी और परिजनों का हृदय कितना व्यथित होगा कल्पना करने मे हम संज्ञा शून्य हो जाते हैं।
द्वितीय विश्व युद्ध मे परमाणु बम से विभीषिका ने एक प्रश्न खड़ा कर दिया था कि ईश्वर जिम्मेदार है कि मनुष्य स्वयं अपने कृत्यों के प्रति उत्तरदाई है?ईश्वर तो गलत करने को कहता नही है, उसने तो बुद्धि विवेक दिया है उचित अनुचित में भेद करने के लिए ।
प्राय:लोग कह देते है कि ईश्वर की मर्जी रही थी,परंतु हम समर्पण भाव के साथ नहीं कहते हैं बल्कि स्वार्थ के भाव के साथ ऐसा कह देते हैं ।
क्या कहूं, क्या लिखूं सिवाय रेल दुर्घटना में दिवंगत और संघर्षरत लोगों के प्रति संवेदना व्यक्त करने के!
शांति:शांति:शांति:
-अर्जुन दूबे