हिन्दी में गोपी गीत Gopi-geet-in-Hindi
हिन्दी में गोपी गीत Gopi-geet-in-Hindi
श्रीमद्भागवत के दशम् स्कन्ध में महारास के ठीक पूर्व भगवान व्रजनंदन द्वारा गोपियों के समर्पण को जांचने ऑंखमिचोली करते हुये कुछ समय के लिये अदृश्य हो गये । भगवान की अदृश्य हो जाने के कारण गोपियां भाव विहल होकर भगवान को पुकारने लगती हैं । इसी करुणामय पुकार का नाम है गोपी गीत । श्रीमद् भागवत महापुराण की गोपी गीत जो मूल संस्कृत में है, का भाव अनुवाद कर हिंदी में आपके लिए प्रस्तुत किया जा रहा है । पाठक की सुविधा के लिये नीचे टेबल में मूलपाठ भी दिया गया है । बहुत विनम्रता से कहना चाहूँगा यह कोई तुलना करने के लिये नहीं हैं, मूल पाठ की कोई तुलना संभव ही नहीं है, यह इसलिये दिया जा रहा जिससे पाठक मूल गोपीगीत का पाठ करते हुये हिन्दी गोपीगीत से भाव ग्रहण कर सकें –
हिन्दी में गोपी गीत Gopi-geet-in-Hindi
(छंद-हरिगीतिका छंद, तर्ज- श्रीरामचन्द्र कृपालु भज मन)
हे ब्रज लला ब्रज धाम को, बैकुण्ठ सम पावन किये ।
ले जन्म इस ब्रज धाम में, सुंदर चरित हैं जो किये ।।
जय देवकी वसुदेव सुत, जय नंद लाला यशुधरे ।
कर जोर कर सब गोपियां, प्रभु आपसे विनती करे ।।1।।
हे श्याम तुम जब से लिये हो जन्म इस ब्रज धाम में ।
महिमा बढ़ी इसकी तभी, बैकुण्ठ सम सब धाम में ।।
मृदुली रमा तब से यहां, करती सदा ही वास है ।
प्रभु आपके कारण बनी, ब्रज भूमि तो अब न्यास है ।।2।।
पर देखलो प्रियतम प्रिये, तुहरी सभी हम गोपियां ।
निज प्राण को तेरे चरण, अर्पित किये हैं गोपियां ।।
वन-वन फिरे भटकत गिरे, विरहन हुई हम ही जरे ।
पथ जोहती फिरती प्रिये, निज चक्षुयों में जल भरे ।।3।।
इस प्राण के तुम प्राण पति, हम तो चरण दासी प्रिये ।
है प्रेम घट अपना हृदय, हो नाथ तुम इनके प्रिये।।
नूतन कमल सम चक्षुवों, से क्यों हमें घायल किये ।
इन चक्षुयो से मारना, क्या वध नही होता प्रिये ।।4।।
दूषित हुई यमुना जहर से तब बचाये प्राण क्यों ।
हमको बचाने आप ने पर्वत उठाये हाथ क्यों ।।
तूफान आंधी आदि से, हमको बचाये आप क्यों ।
जितने असुर आये यहां सबने गवाये प्राण क्यों ।।5।।
हे विश्व पति केवल यशोदा लाल तुम तो हो नहीं ।
सब प्राणियों के नाथ हो, सबके हृदय में तू सहीं ।।
साक्षी सदा हर प्राणियों के, जानते हर बात को ।
तुम तो धरे हो तन यहां, प्रभु मेटने हर पाप को।।6।।
हे प्रभु मनोरथ पूर्ण कर्ता प्रेमियो के नाथ हो ।
तेरे चरण जो हैं गहे, उनके सदा तुम साथ हो ।।
संसार के हर क्लेष हर, करते अभय हर भक्त को ।
रख दो हमारे शीश पर, अपने कृपा के हस्त को ।।7।।
व्रजवासियों के पीर हरता, वीरवर तुम एक हो ।
हे मानमद के चूर करता, आप पावन नेक हो ।।
प्यारे सखा हे प्राण प्रिय, ना रूष्ठ हमसे होइये ।
मुस्कान निज मुख पर लिये, अंतस हमारे धोइये ।।8।।
लेकर शरण जिन श्री चरण, प्राणी तजे हर पाप को ।
जिन श्री चरण को चापती, लक्ष्मी रिझाती आपको ।।
जिन श्री चरण से आपने, मद हिन किये हो नाग को ।
पग धर वही प्रभु वक्ष पर, मेटें हृदय की आग को ।।9।।
वाणी मधुर इतनी मधुर, जिनके मधुर हर शब्द हैं ।
ज्ञानी परम ध्यानी परम, सुनकर जिसे मन मुग्ध हैं ।।
सुन-सुन जिसे हम गोपियां, दासी बनी बिन मोल के ।
प्रभु दीजिये जीवन हमें, वाणी मधुर फिर बोल के ।।10।।
लीला कथा प्रभु आपकी, मेटे विरह बनकर सुधा ।
तम पाप को मेटे कथा, कर शांत मन की हर क्षुधा ।।
मंगल परम लीला श्रवण, भरते खुशी हर शोक में ।
जो दान करते यह कथा, दानी वही भूलोक में ।।11।।
दिन एक था ऐसा कभी, जब मग्न रहतीं हम सभी ।
मुख पर लिये मुस्कान प्रभु, करते ठिठोली तुम जभी ।।
सानिध्य में प्रभु आपके, हम मग्न रहती थीं तभी ।
वह सुध लगा कपटी सखा, हम क्षुब्ध हो जातीं अभी ।।12।।
है नहि सुकोमल नव कमल, जैसे चरण है आपके ।
गौवें चराने जब गये, चिंता हुये कंटाप के ।
जब दिन ढले घर लौटते, गौ रज लिये निज देह पर ।
पथ जोहती हम गोपियां, आकृष्ट होती नेह पर ।।13।।
तुम ही अकेले हो जगत, हर लेत जो हर पीर को ।
प्रभु आपके ये श्री चरण, प्रतिपल हरे दुख नीर को
श्री जिस चरण को चापती, जिससे धरा रमणीय है ।
रख वह चरण हमरे हृदय, अंताकरण कमणीय है ।।14।।
अभिलाश जीवन दायनी, संताप नाशक रस अधर ।
वह वेणु तो अति धन्य है, जो चूमती रहती अधर ।।
जो पान करते यह कभी, वह रिझ सके ना अन्य पर
वह रस अधर फिर दीजिये, प्रियवर दया की दृष्टि धर ।।15।।
जाते विपिन जब तुम दिवस, पल पल घटी युग सम लगे ।
संध्या समय जब लौटते, हम देखतीं रहतीं ठगे ।।
बिखरे पड़े अलकें कली, मुख मोहनी मोहे हमें ।
पलकें हमारी बोझ है, अवरोध बनती इस समें ।।16।।
पति-पुत्र अरू परिवार को, हम छोड़ आयीं है यहां ।
हे श्याम सुंदर मोहना, छलिया छुपे हो तुम कहां ।।
सब चाल हम तो जानतीं, कपटी तुम्हारे गान में ।
मोहित हुई आयीं यहां, फँसकर तुम्हारे तान में ।।17।।
करके ठिठोली तुम कभी, अनुराग हमको थे दिये ।
तिरछे नयन से देख कर, थे़ बावरी हमको किये ।।
तब से हमारी लालसा, बढ़ती रही है नित्य ही ।
ये मन हमारे मुग्ध हो, ढ़ूंढे तुम्हे तो नित्य ही ।।18।।
ये प्रेम क्रीड़ा आपका, है दुख विनाशक ताप का ।
है विश्व मंगल दायका, जो मूल काटे पाप का ।।
प्यारे हमारा ये हृदय, अब भर रहा अनुराग से ।
कुछ दीजिये औषधि हमें, दिल जल रहा इस आग से ।।19।।
प्यारे तुम्हारे जो चरण, है अति सुकोमल पद्म से ।
उसको लिये तुम हो छुपे, घनघोर वन में छद्म से ।।
कंकड़ लगे चोटिल न हो, व्याकुल दुखी हैं सोच कर ।
हे प्राणपति अब आइये, हैं हम पराजित खोज कर ।।20।।
-रमेशकुमार सिंह चौहान
इस गीत का आडियो सुनिये –
॥ गोपीगीतम् ॥ गोप्य ऊचुः । जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि । दयित दृश्यतां दिक्षु तावका- स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ॥ १॥ शरदुदाशये साधुजातस- त्सरसिजोदरश्रीमुषा दृशा । सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका वरद निघ्नतो नेह किं वधः ॥ २॥ विषजलाप्ययाद्व्यालराक्षसा- द्वर्षमारुताद्वैद्युतानलात् । वृषमयात्मजाद्विश्वतोभया- दृषभ ते वयं रक्षिता मुहुः ॥ ३॥ न खलु गोपिकानन्दनो भवा- नखिलदेहिनामन्तरात्मदृक् । विखनसार्थितो विश्वगुप्तये सख उदेयिवान्सात्वतां कुले ॥ ४॥ विरचिताभयं वृष्णिधुर्य ते चरणमीयुषां संसृतेर्भयात् । करसरोरुहं कान्त कामदं शिरसि धेहि नः श्रीकरग्रहम् ॥ ५॥ व्रजजनार्तिहन्वीर योषितां निजजनस्मयध्वंसनस्मित । भज सखे भवत्किंकरीः स्म नो जलरुहाननं चारु दर्शय ॥ ६॥ प्रणतदेहिनां पापकर्शनं तृणचरानुगं श्रीनिकेतनम् । फणिफणार्पितं ते पदांबुजं कृणु कुचेषु नः कृन्धि हृच्छयम् ॥ ७॥ मधुरया गिरा वल्गुवाक्यया बुधमनोज्ञया पुष्करेक्षण । विधिकरीरिमा वीर मुह्यती- रधरसीधुनाऽऽप्याययस्व नः ॥ ८॥ तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मषापहम् । श्रवणमङ्गलं श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः ॥ ९॥ प्रहसितं प्रिय प्रेमवीक्षणं विहरणं च ते ध्यानमङ्गलम् । रहसि संविदो या हृदिस्पृशः कुहक नो मनः क्षोभयन्ति हि ॥ १०॥ चलसि यद्व्रजाच्चारयन्पशून् नलिनसुन्दरं नाथ ते पदम् । शिलतृणाङ्कुरैः सीदतीति नः कलिलतां मनः कान्त गच्छति ॥ ११॥ दिनपरिक्षये नीलकुन्तलै- र्वनरुहाननं बिभ्रदावृतम् । घनरजस्वलं दर्शयन्मुहु- र्मनसि नः स्मरं वीर यच्छसि ॥ १२॥ प्रणतकामदं पद्मजार्चितं धरणिमण्डनं ध्येयमापदि । चरणपङ्कजं शंतमं च ते रमण नः स्तनेष्वर्पयाधिहन् ॥ १३॥ सुरतवर्धनं शोकनाशनं स्वरितवेणुना सुष्ठु चुम्बितम् । इतररागविस्मारणं नृणां वितर वीर नस्तेऽधरामृतम् ॥ १४॥ अटति यद्भवानह्नि काननं त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम् । कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते जड उदीक्षतां पक्ष्मकृद्दृशाम् ॥ १५॥ पतिसुतान्वयभ्रातृबान्धवा- नतिविलङ्घ्य तेऽन्त्यच्युतागताः । गतिविदस्तवोद्गीतमोहिताः कितव योषितः कस्त्यजेन्निशि ॥ १६॥ रहसि संविदं हृच्छयोदयं प्रहसिताननं प्रेमवीक्षणम् । बृहदुरः श्रियो वीक्ष्य धाम ते मुहुरतिस्पृहा मुह्यते मनः ॥ १७॥ व्रजवनौकसां व्यक्तिरङ्ग ते वृजिनहन्त्र्यलं विश्वमङ्गलम् । त्यज मनाक् च नस्त्वत्स्पृहात्मनां स्वजनहृद्रुजां यन्निषूदनम् ॥ १८॥ यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेष भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु । तेनाटवीमटसि तद्व्यथते न किंस्वित् कूर्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः ॥ १९॥
गोपी गीत (छंद-हरिगीतिका छंद) हे ब्रज लला ब्रज धाम को, बैकुण्ठ सम पावन किये । ले जन्म इस ब्रज धाम में, सुंदर चरित हैं जो किये जय देवकी वसुदेव सुत, जय नंद लाला यशुधरे । कर जोर कर सब गोपियां, प्रभु आपसे विनती करे ।।1।। हे श्याम तुम जब से लिये हो जन्म इस ब्रज धाम में । महिमा बढ़ी इसकी तभी, बैकुण्ठ सम सब धाम में ।। मृदुली रमा तब से यहां, करती सदा ही वास है । प्र्रभु आपके कारण बनी, ब्रज भूमि तो अब न्यास है ।।2।। पर देखलो प्रियतम प्रिये, तुहरी सभी हम गोपियां । निज प्राण को तेरे चरण, अर्पित किये हैं गोपियां ।। वन-वन फिरे भटकत गिरे, विरहन हुई हम ही जरे । पथ जोहती फिरती प्रिये, निज चक्षुयों में जल भरे ।।3।। इस प्राण के तुम प्राण पति, हम तो चरण दासी प्रिये । है प्रेम घट अपना हृदय, हो नाथ तुम इनके प्रिये।। नूतन कमल सम चक्षुवों, से क्यों हमें घायल किये । इन चक्षुयो से मारना, क्या वध नही होता प्रिये ।।4।। दूषित हुई यमुना जहर से तब बचाये प्राण क्यों । हमको बचाने आप ने पर्वत उठाये हाथ क्यों ।। तूफान आंधी आदि से, हमको बचाये आप क्यों । जितने असुर आये यहां सबने गवाये प्राण क्यों ।।5।। हे विश्व पति केवल यशोदा लाल तुम तो हो नहीं । सब प्राणियों के नाथ हो, सबके हृदय में तू सहीं ।। साक्षी सदा हर प्राणियों के, जानते हर बात को । तुम तो धरे हो तन यहां, प्रभु मेटने हर पाप को।।6।। हे प्रभु मनोरथ पूर्ण कर्ता प्रेमियो के नाथ हो । तेरे चरण जो हैं गहे, उनके सदा तुम साथ हो ।। संसार के हर क्लेष हर, करते अभय हर भक्त को । रख दो हमारे शीश पर, अपने कृपा के हस्त को ।।7।। व्रजवासियों के पीर हरता, वीरवर तुम एक हो । हे मानमद के चूर करता, आप पावन नेक हो ।। प्यारे सखा हे प्राण प्रिय, ना रूष्ठ हमसे होइये । मुस्कान निज मुख पर लिये, अंतस हमारे धोइये ।।8।। लेकर शरण जिन श्री चरण, प्राणी तजे हर पाप को । जिन श्री चरण को चापती, लक्ष्मी रिझाती आपको ।। जिन श्री चरण से आपने, मद हिन किये हो नाग को । पग धर वही प्रभु वक्ष पर, मेटें हृदय की आग को ।।9।। वाणी मधुर इतनी मधुर, जिनके मधुर हर शब्द हैं । ज्ञानी परम ध्यानी परम, सुनकर जिसे मन मुग्ध हैं ।। सुन-सुन जिसे हम गोपियां, दासी बनी बिन मोल के । प्रभु दीजिये जीवन हमें, वाणी मधुर फिर बोल के ।।10।। लीला कथा प्रभु आपकी, मेटे विरह बनकर सुधा । तम पाप को मेटे कथा, कर शांत मन की हर क्षुधा ।। मंगल परम लीला श्रवण, भरते खुशी हर शोक में । जो दान करते यह कथा, दानी वही भूलोक में ।।11।। दिन एक था ऐसा कभी, जब मग्न रहतीं हम सभी । मुख पर लिये मुस्कान प्रभु, करते ठिठोली तुम जभी ।। सानिध्य में प्रभु आपके, हम मग्न रहती थीं तभी । वह सुध लगा कपटी सखा, हम क्षुब्ध हो जातीं अभी ।।12।। है नहि सुकोमल नव कमल, जैसे चरण है आपके । गौवें चराने जब गये, चिंता हुये कंटाप के । जब दिन ढले घर लौटते, गौ रज लिये निज देह पर । पथ जोहती हम गोपियां, आकृष्ट होती नेह पर ।।13।। तुम ही अकेले हो जगत, हर लेत जो हर पीर को । प्रभु आपके ये श्री चरण, प्रतिपल हरे दुख नीर को श्री जिस चरण को चापती, जिससे धरा रमणीय है । रख वह चरण हमरे हृदय, अंताकरण कमणीय है ।।14।। अभिलाश जीवन दायनी, संताप नाशक रस अधर । वह वेणु तो अति धन्य है, जो चूमती रहती अधर ।। जो पान करते यह कभी, वह रिझ सके ना अन्य पर वह रस अधर फिर दीजिये, प्रियवर दया की दृष्टि धर ।।15।। जाते विपिन जब तुम दिवस, पल पल घटी युग सम लगे । संध्या समय जब लौटते, हम देखतीं रहतीं ठगे ।। बिखरे पड़े अलकें कली, मुख मोहनी मोहे हमें । पलकें हमारी बोझ है, अवरोध बनती इस समें ।।16।। पति-पुत्र अरू परिवार को, हम छोड़ आयीं है यहां । हे श्याम सुंदर मोहना, छलिया छुपे हो तुम कहां ।। सब चाल हम तो जानतीं, कपटी तुम्हारे गान में । मोहित हुई आयीं यहां, फँसकर तुम्हारे तान में ।।17।। करके ठिठोली तुम कभी, अनुराग हमको थे दिये । तिरछे नयन से देख कर, थे़ बावरी हमको किये ।। तब से हमारी लालसा, बढ़ती रही है नित्य ही । ये मन हमारे मुग्ध हो, ढ़ूंढे तुम्हे तो नित्य ही ।।18।। ये प्रेम क्रीड़ा आपका, है दुख विनाशक ताप का । है विश्व मंगल दायका, जो मूल काटे पाप का ।। प्यारे हमारा ये हृदय, अब भर रहा अनुराग से । कुछ दीजिये औषधि हमें, दिल जल रहा इस आग से ।।19।। प्यारे तुम्हारे जो चरण, है अति सुकोमल पद्म से । उसको लिये तुम हो छुपे, घनघोर वन में छद्म से ।। कंकड़ लगे चोटिल न हो, व्याकुल दुखी हैं सोच कर । हे प्राणपति अब आइये, हैं हम पराजित खोज कर ।।20।।
गोपी गीत Gopi geet in Hindi का video
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-रमेश चौहान
बहुत ही सराहनीय प्रयास भैय्या
बहुत सुंदर गोपी गीत चौहान जी …
कालजयी अमर साहित्यिक कृति हेतु कोटिशः शुभकामनाएं…..
हरिगीतिका छंद में गोपी गीत का अनुपम भावानुवाद है आदरणीय चौहान भैया जी। हार्दिक बधाई।
सादर धन्यवाद वर्मा भैया
मर्मस्पर्शी आध्यात्मिक रहस्यपूर्ण गीत सृजन हेतु हार्दिक बधाई
श्रेष्ट लेखन ,बहुत प्यारा भावपूर्ण गीत रचा गया। बहुत बहुत बधाई!
सादर धन्यवाद आदरणीया