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पुस्‍तक समीक्षा उपन्यास ‘‘केंवट कुंदरा’’-डुमन लाल ध्रुव

पुस्‍तक समीक्षा उपन्यास ‘‘केंवट कुंदरा’’-डुमन लाल ध्रुव

ग्राम्य जीवन के वाहक उपन्यास ‘‘केंवट कुंदरा’

-डुमन लाल ध्रुव

पुस्‍तक समीक्षा ग्राम्य जीवन के वाहक उपन्यास ‘‘केंवट कुंदरा’’-डुमन लाल ध्रुव
पुस्‍तक समीक्षा ग्राम्य जीवन के वाहक उपन्यास ‘‘केंवट कुंदरा’’-डुमन लाल ध्रुव
पुस्‍तक ‘केवट कुंदरा’
कृतिकारश्री दुर्गाप्रसाद पारकर
भाषाछत्‍तीसगढ़ी
विधाउपन्‍यास
समीक्षकश्री डुमन लाल ध्रुव
केवट कुंदरा

दुर्गा प्रसाद पारकर की उपन्यास ग्राम्य जीवन का वाहक-

दुर्गा प्रसाद पारकर छत्तीसगढ़ के सिरमोर लेखकों में से हैं लेकिन उनका गद्य-पद्य या उपन्यासकार का रूप भी कोई अनजाना नहीं है। खासकर उनके लिखे उपन्यास ’’केंवट कुंदरा’’ एवं ’’बहू हाथ के पानी’’ लोक जीवन, लोक चेतना, लोक संस्कृति के वाहक के रूप में व्याख्यायित भी किया गया है। दुर्गा प्रसाद पारकर की उपन्यास ग्राम्य जीवन के वाहक या आंचलिक हैं। इसमें कोई शक नहीं। इस अर्थ में कि वे घटनाओं या पात्रों पर उतना जोर नहीं देते जितना कि स्थितियों की गहरे दृश्य-चित्र उपस्थित करने में। कुल मिलाकर दुर्गा प्रसाद पारकर के उपन्यास केंवट कुंदरा लोकजीवन, लोकसंस्कृति पर आधारित है। वैसे दुर्गा प्रसाद पारकर का कृतित्व ही नहीं उनका व्यक्तित्व भी कालजयी है। श्री पारकर जी बुजुर्गों के साथ बुजुर्ग, जवानों के साथ जवान और बच्चों के साथ बच्चे हैं। जीवन के प्रति गहरी आसक्ति है, तीव्र सौंदर्यानुभूति के लेखक हैं। जीवन में भी वह इतने सहज ही उसकी भी वजह व्यापक परस्पर विरोधी जीवन स्थितियों को पचा सकने वाली क्षमता का ही प्रभाव है-जब ले पंडित सुंदर लाल शर्मा के आन्दोलन ले जुडे़ हंव तब ले मछरी अउ दारू ला तियाग दे हंव। दारू तो पीनच्च नइ चाही सेहत बर बने नइ होवय। मछरी होय चाहे कोनो जीव, जीव हत्या नइ करना चाही वोहा तो महात्मा गांधी के विचार ’’सत्य अहिंसा परमो धर्म’’ के मनइया रिहिस से। 

ग्राम्य जीवन के वाहक उपन्यास ‘‘केंवट कुंदरा’’-

‘केंवट-कुंदरा’ -यथार्थ की कठोरता

’’केंवट कुंदरा’’ उपन्यास एकबारगी पढ़ने से पता चलता है कि वह किसी व्यक्ति या स्थितियों के रेखा चित्रों की तरह हैं- और इन रेखा चित्रों को सजीव बनाने के लिए वह जीवन के छोटे-छोटे ब्यौरे देकर उनमें एक नया जीवन रस भर देते हैं। ये उपन्यास ऊपर से देखने पर अनगढ़ लग सकते है और उनमें ऐसा बहुत कुछ चला आता है जिसे हम उपन्यास के रूप में स्वीकर करने के आदि नहीं है। उससे हमारी कला की अवधारणाएं टूटती हैं या एक अजीब सी खीझ पैदा होती है। और शुरू-शुरू में हम समझ नहीं पाते हैं कि लेखक हमारी कहानी की मांग पूरी करने के बजाय यथार्थ की यह तगड़ी ’’डोज’’ क्यों दे रहा है। लेकिन एक बार दुर्गा प्रसाद पारकर की कला का मर्म समझने के बाद फिर दिक्कत नहीं होती-बल्कि हम उसी में रूचि और आनंद लेना सीख जाते हैं। ‘‘केंवट कुंदरा’’ उपन्यास का एक बड़ा फर्क तो पहली नजर में ही साफ देखने में आ जाता है कि वह यथार्थ की कठोरता को ज्यादा सहज भाव से पकड़ते हैं। 

बेटी बिदा के दुख भारी ए। ए दुख ला जेखर बेटी हे उही महतारी बाप जान सकथे। पंचू हा सोहाग ला बिहा के आगू डाहर बढ़त रिहिसे ओइसने मा रोवत-रोवत एक झन सियान हा कथे-बेटा जात ला तो एके घांव जमराज हा लेगथे फेर बेटी जात ला दु घांव लेगथे। एक घांव दाई-ददा के कोरा ले दमांद हा अऊ दूसर घांव ससुरार ले जमराज हा लेगथे तभे तो कथे ना ‘‘दमांद लेगे ते लेगे, जमराज लेगे ते लेगे। 

केंवट कुंदरा

केवट कुंदरा के पात्रों में जीवन जीने की चाहत –

प्रसिद्ध उपन्यासकार फणिश्वरनाथ रेणु की तरह श्री पारकर के उपन्यास ज्यादा खुरदुरे हैं तथा जीवन की जड़ों से ज्यादा गहरे और मजबूती से जुड़े हुए हैं केंवट कुंदरा की तस्वीर ज्यादा विश्वसनीय है, ग्रामीण आदमी की तरह जो चाहे रूक-रूककर छोटी-छोटी और सादा बातें कर चित्र में मुकम्मल पैदा किया है। यहां प्रेम है, करूणा है, स्त्री की देह और क्रमशः देह से मुक्त होते जाने की चेतना है, रिश्तों की गरमी, नरमी और प्यार खींचकर आगे लाते हैं और जीवन जीने की भरपूर इच्छा से जुड़ते हैं। यहां प्रेम जीवन से अलग कोई सजी हुई फुलवारी नहीं है। प्रेम तो सम्पूर्ण ’’केंवट कुंदरा’’ में निहीत है। जीवन जीने की भरपूर चाहत पारकर के पात्रों में कूट-कूटकर भरी हुई है। 

पहिली जइसन बात होय हे, हम तो ऐसो बहु हाथ के पानी पिबोन केहे रेहेन। बेटा हा पिंयर धोवाए बर जाही उही दरी बहू ला घलो बिदा कर दुहू। सवाना के ददा हा कथे-‘‘केहे बर तो केहे रेहेंव समधी महाराज फेर हमर बेटी हा नदान हे।’’ सवाना कथे-अइसे लागथे समधी महाराज बिहाव के पहिली बेटी हा बाढ़े रहिथे। बिहाव के बाद बेटी छोटे हो जथे। धनसिंह हा बेटी बर जादा गरू नइ करना चाहत रिहिसे तभे तो समधी के भाव ला राखत कहि दिस-ले भई ईश्वर के इही मरजी हे त हम्मन हमर दुलौरिन बेटी के बिदा ला घलो कर देबोन। दमांद ला पठो दुहू।

केवट कुंदरा से

केवट कुंदरा उपन्यास में मानव जीवन का चित्र-

उपन्यास ’’केंवट कुंदरा’’ आखिर तक पढ़ने को मजबूर करती है। कहने की सादगी, धैर्य और सतह के ऊपर तथा भीतर का सब कुछ सामने लाना, समस्या और कथा का संतुलन सब ऐसे घुले-मिले हैं कि बाह्य आडम्बर हावी नहीं होता। यह महज भौतिक विकास ही नहीं, गांव में मनुष्य के सामाजिक विकास की कहानी है। ’’केंवट कुंदरा’’ को पढ़ते ही कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद, फणिश्वरनाथ रेणु, बाबा नागार्जुन, डाॅ. रमाकांत श्रीवास्तव स्वभाविक रूप से याद आते हैं-उनका मानना है-मैं उपन्यास को मानव जीवन का चित्र समझता हूं। मानव चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्य को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्व है। 

कइसे करबो सवाना के दाई, हमु मन तो बेटी बिदा करे हन। ऐ तो विधि के विधान ए, एक दिन तो हमु मन ला बिदा करे रिहिन हे। त हमू मन ला तो बेटी बिदा करे  बर परही। दुनिया मा कन्या दान ले बड़े दान कुछु नो हे। बेटी के घर ला बसा के धनसिंह अउ ओकर गोसइन के आंसू कम होवत-होवत ले दे के थम्हिस। तभो ले सवाना के सुरता हा पीरा ला उल्हो देवै। 

केवट कुंदरा

दुर्गा प्रसाद पारकर की भाषा उस गांव के आदमी की भाषा है जो बहुत नहीं बोलता और अक्सर चुप रहता है, मगर जब भी बोलता है, अक्सर कोई गहरी मार करने वाली संवाद के माध्यस से बात करता है। केंवट कंुदरा उपन्यास में शब्दों की मितव्ययिता बहुत ज्यादा है। मन में एक तरह की मुग्धता या गहरा लगाव है। इस उपन्यास की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वे धीरे-धीरे सहज अपनाने वाली मंथर गति से बढ़ते हुए अपना प्रभाव कायम करते हैं। उपन्यास में लोक बोली के साथ बनते हुए चेहरे को साफ देख सकते हैं।

-डुमन लाल ध्रुव
प्रचार-प्रसार अधिकारी
जिला पंचायत-धमतरी
मो. नं. 9424210208

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