हरीश के चार सजल

हरीश के चार सजल

हरीश के चार सजल
हरीश के चार सजल

(1)

स्वयं की नींद को देकर, सदा मुझको सुलाया है।
मेरी अम्मा है वो जिसने मुझे जीना सिखाया है।

हुई पूरी जरूरत सब मेरी जिनकी कमाई से,
पिता जी ने इसी धन को बड़े श्रम से कमाया है।

मेरे घर की दीवारों में छपी ये कालिमा कहती,
कि मेरे पूर्वजों ने नित यहाँ दीपक जलाया है।

भला कैसे हुआ ऊँचा,चलों उस पेड़ से पूछें ,
कहेगा वह, धरा ने ही मुझे इतना बढ़ाया है।

बड़ी ही नासमझ माचिस की हैं तीलियाँ होती,
हुई क्या चूक थोड़ी सी,स्वयं का घर जलाया है।

सदा छत ने ढका सिर है, बचाया धूप बारिश से,
दबा इसके तले वह ही कि जिसने छत गिराया है ।

यही देखा सदा मैंने, यही जाना, यही समझा,
हुआ है वह सफल जिसने बड़ों का पग दबाया है।

(2)

साबुन भी नहीं उसका झाग काफी है।
जग भी जल जाए थोड़ी* आग काफी है।

है नहीं कोई मतलब उन्हें चाँद से
उनके लिए तो उसका दाग काफी है।

क्यों डरते हो नाहक साँपो से साहिब,
इंसानों की शक्ल में नाग काफी हैं।

कि मंजिल में पहुँचेंगे किस मोड़ से हम,
हरेक राह में भागमभाग काफी है ।

अलंकार – गहनों की चाहत है झूठी
नारी के लिए सिर्फ सुहाग काफी है।

बन जाएगा स्वर्ग , पल में ही धरातल,
बस पेड़ों से भरा इक बाग काफी है।

क्यों तकलीफ सूरज को देते भला,
अंधेरे के लिए इक चिराग काफी है ।

(3)

जो बने थे अंग रक्षक , समाने से हट गए।
फिर, लिखे पानी में शब्दों की तरह हम मिट गए।।

काल ने सबके सिरों में भयावह तांडव रचा,
जो बचे भू भाग थे, सारे शवों से पट गए ।।

तप्त इतनी हो गयी धरती शवों के दाह से,
रोज चलने पर मेरे पाँवों के तलवे फट गए।।

वह जिसे भगवान पृथ्वी का कहा करते थे हम,
जब गए उनकी शरण तो देखते ही लुट गए।।

मृत्यु की बरसात जाने कब रुकेगी फिर यहाँ,
व्योम कब बोलेगा ये कि ”गम के बादल छट गए”।।

इस विषाणु की फसल जो उग रही हर खेत में,
शीघ्र कब पाएंगे कि सारे फसल वो कट गए ।।

है हमें रखना जरा खुद को यहाँ सम्हाल कर,
धीरता के सामने तो हार “हर” संकट गए ।।

(4)

कड़े पत्थर के लगने से ये शीशे टूट जाते हैं।
जरा सी डाँट पड़ते ही ये बच्चे रूठ जाते हैं।।

सलीके से सदा रखना सम्हाले डोर रिश्तों की,
नहीं तो हाथ से अक्सर ये बन्धन छूट जाते हैं।

भरोसा गैर कंधों पर नहीं करना कभी साथी,
मुखौटों को पहन कर के हमें वो लूट जाते हैं ।

कभी छोटा समझने की किसी को भूल मत करना,
गुलेलों में सधे कंकड़ से मटके फूट जाते हैं।

अकड़ते दाँत हैं सारे सदा अपनी सफेदी पर,
लचकती जीभ रह जाती वो सारे टूट जाते हैं।

©®हरीश पटेल “हर”
ग्राम-तोरन,(थान खम्हरिया)
बेमेतरा, छत्‍तीसगढ़

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2 thoughts on “हरीश के चार सजल

  1. शानदार, जानदार ,ज़िन्दगी की हकीकतबयाँ करती ये सजल।

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