हिन्दी को अपना अधिकार चाहिए
– रमेश चौहान
हिन्दी का अधिकार-
हिन्दी राजभाषा है इसका अभिप्राय है कि हिन्दी का प्रयोग भारतीय गणराज्य के राजकाज हिन्दी में होना चाहिए । राजकाज मूल रूप से हिन्दी में होना चाहिए और उसका अनुवाद अंग्रेजी में प्रसारित किया जा सकता है । राजभाषा का यह कतई अभिप्राय नहीं है कि राजकाज मूल रूप में अंग्रेजी में हो और उसका अनुवाद हिन्दी में प्रसारित किए जायें । हिन्दी का यही अधिकार है कि उसे राजभाषा होने का व्यवहारिक अधिकार मिले ।
हिन्दी मूक और लाचार क्यों ?
अपने अधिकारों के लिए अनेक व्यक्ति, अनेक संगठन आवाज बुलंद करते रहते हैं । अनेक पर्यावरण प्रेमी, पशु प्रेमी मूक जानवरों, वृक्षों के लिए आवाज उठाते हैं उनके अधिकारों के प्रति सचेत रहते हैं । अनेक संगठन संविधान की दुहाई देकर धरना-प्रदर्शन करते हैं, तो कई संगठन अपने विचारों को फैला रहे हैं । ऐसे में लोगों को जुबान देने वाली भाषा हिन्दी स्वयं मूक और लाचार क्यों बनी हुई हैं? राजभाषा होते हुए भी व्यवहारिक रूप में राजभाषा होने का अस्तित्व मांग रही है । अपने उद्धारक की बाट जोह रही है ।
हिन्दी का अधिकार हमारे कर्तव्यों पर अवलंबित-
अधिकार और कर्तव्य परस्पर एक दूसरे के अनुगाामी हैं । एक का अधिकार तभी संरक्षित हो सकता है जब दूसरा अपना कर्तव्य करे । जैसे प्रत्येक व्यक्ति को समानता का मौलिक अधिकार है, यह तभी संरक्षित है जब लोग अपने भाईचारे को बढ़ावा देने का मौलिक कर्तव्य करें । भारत के प्रत्येक नागरिक का प्रथम मौलिक कर्तव्य है कि वह भारत के संविधन सहित भारत के राष्ट्रीय प्रतिकों का सम्मान करें । यदि हम सब इस मौलिक कर्तव्य का पालन करते हैं तो हिन्दी को उसका अधिकार स्वमेव प्राप्त हो जावेगा ।
राष्ट्रभाषा का न सही राजभाषा का तो अधिकार मिले-
माना हिन्दी को राष्ट्र भाषा का दर्जा प्राप्त नहीं हो सका किन्तु राज भाषा का तो दर्जा प्राप्त है । भारतीय गणराज्य संघ की राजभाषा नीति के अनुसार हिन्दी का यह मौलिक अधिकार है । उसे भी वे सभी अधिकार बिना न नुकार के प्राप्त होने चाहिए जो राजभाषा अधिनियम कहता है । बात-बात में संविधान की दुहाई देने वाले लोग हिन्दी के अधिकारों के प्रति उदासीन कैसे रह सकते हैं ।
राजभाषा हिंदी की संवैधानिक स्थिति-
संविधान निर्माताओं ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने की मांग को दृष्टिगत रखते हुए संविधान सभा में 14/9/1949 को हिंदी को संघ की राजभाषा स्वीकार करते हुए राजभाषा हिंदी के संबंध में प्रावधान किए। अनुच्छेद 343. संघ की राजभाषा के रूप हिन्दी का स्पष्ट उल्लेख है । पहले 15 वर्षो के लिए अंग्रेजी को विकल्प के रूप में काम चलाने के लिए स्वीकार किया था किन्तु 26 जनवरी 1965 से हिन्दी को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया जाना था जो व्यवहारिक रूप से आज तक संभव नहीं हुआ ।
(संदर्भ स्रोत- राजभाषा हिंदी की संवैधानिक स्थिति)
हिन्दी राजभाषा के देह में जंजीर-
संविधान सभा द्वारा 14 सिंतम्बर 1949 को हिन्दी को राजभाषा के रूप स्वीकार कर हिन्दी राजभाषा का देह तो तैयार कर दिया किन्तु इस देह को अलंकृत करने के बजाए इसे लगातार जंजीरों से लकड़ा जाने लगा । प्रथम राजभाषा आयोग की सिफारिशें 1960, एक प्रकार से हिन्दी की अनिवार्यता समाप्त ही कर दिया । 1965 तक अंग्रेजी को मुख्य राजभाषा और हिन्दी को सहायक राजभाषा तथा 1965 के बाद हिन्दी को मुख्य राजभाषा और अंग्रेजी को सहायक राजभाषा की संशुति कर दी गई साथ ही कहा गया ‘-‘संघ के प्रयोजनों में से किसी के लिए अंग्रेजी के प्रयोग पर कोई रोक इस समय नहीं लगाई जानी चाहिए और अनुच्छेद 343 के खंड (3) के अनुसार इस बात की व्यवस्था की जानी चाहिए कि 1965 के उपरान्त भी अंग्रेजी का प्रयोग इन प्रयोजनों के लिए, जिन्हें संसद् विधि द्वारा उल्लिखित करे तब तक होता रहे जब तक वैसा करना आवश्यक रहे ।’ राजभाषा अधिनियम 1963 के अनुसार 1965 के बाद भी अंग्रेजी का राजकीय प्रयोजन और संसदीय कार्य के संव्यवहार में प्रयोग की जा सकेगी । राजभाषा नियम, 1976 जिसमें लगातार 1987, 2007 तथा 2011 में संशोधन किया गया, के अनुसार पूरे देश को तीन क्षेत्रों में विभाजित कर राज्य और केन्द्र के बीच पत्राचार का भाषा निर्धारण करती है, जो हिन्दी की स्वतंत्रा को एक प्रकार से बाधित ही कर रही है ।
हिन्दी व्यवहारिक राजभाषा होते ही व्यवहारिक राष्ट्र भाषा भी होगी-
जिस दिन शतप्रतिशत व्यवहारिक रूप से हिन्दी को राजभाषा का अधिकार प्राप्त होगा उसी दिन से हिन्दी का व्यवहारिक रूप से राष्ट्रभाषा होने का मार्ग प्रशस्त हो जायेगा । लोग शिक्षा का माध्यम कामकाज के आधार पर तय करते हैं चूंकि आज अंग्रेजी व्यवहारिक रूप से राजभाषा बनी हुई है इसलिए लोग अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने-पढ़ाने में उत्साहित रहते हैं । जिस दिन राजकाज की व्यवहारिक भाषा हिन्दी होगी लोगों का रूझान भी हिन्दी की ओर होगा ही होगा और अतिशीघ्र ही सैद्धांतिक न सही व्यवहारिक रूप से राष्ट्रभाषा हो जावेगी ।
देश की एकता एवं उन्न्ति के लिए हिन्दी आवश्यक –
महात्मा गांधी ने कहा था- ‘राष्ट्रीय व्यवहार में हिन्दी को काम में लाना देश की एकता एवं उन्न्ति के लिए आवश्यक है ।’ जो हिन्दी भारत के आजादी में लोगों को एकसूत्र में बांधने में सक्षम रही वही आगे भी लोगों को एक सूत्र में बांध सकती है । देश की एकता में यह निश्चित रूप से सहायक थी, है और रहेगी । हिन्दी आज भारत की प्रथम संपर्क भाषा होने के साथ-साथ भारत में इंटरनेट, साोशल मीडिया, टी.वी. रेडियो, सिनेमा आदि की आय अर्जित करने वाली प्रथम भाषा भी है । व्यवहारिक रूप से हिन्दी की स्वीकार्यता न केवल भारत अपितु विश्व में बढ़ रही है । इस प्रकार हिन्दी देश की उन्नित में सहायक है और आशा ही नहीं विश्वास है भविष्य में भी हिन्दी भारत की उन्निति का पर्याय होगी ।
-रमेश चौहान