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ईश्वर का अस्तित्व शाश्वत है ?-रमेश चौहान

ईश्वर का अस्तित्व शाश्वत है ?-रमेश चौहान

ईश्वर का अस्तित्व शाश्वत है ?

-रमेश चौहान

ईश्वर का अस्तित्व शाश्वत है ?-रमेश चौहान

ईश्वर क्या है ?

ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकारने या न स्वीकारने से पहले दो बातों का चिंतन आवश्यक है । पहला ईश्वर है क्या ? और दूसरा इसके अस्तित्व को स्वीकारने अथवा न स्वीकारने का आधार क्या होना चाहिए? ईश्‍वर कई रूपों में परिभाषित किया जाता है-

  • ईश्वर समस्‍त ब्रह्माण्‍ड और उसके नियमों का समवायात्मक नाम है | ईश्वर सारी सत्ता, उसके उद्भव, स्थिति, गति, संगति और विनाश को एक साथ सूचित करता है | यह किसी व्यक्ति का नाम नहीं है|
  • ईश्‍वर वह सर्वोच्च परालौकिक शक्ति है जिसे इस संसार का सृष्टा और शासक माना जाता है।
  • ईश्‍वर संस्‍कृत के ईश् धातु पर वरच् प्रत्‍यय लगा कर बनाया गया है । ईश् धातु का अर्थ नियंत्रण करना होता है । इसलिये ईश्‍वर का अर्थ नियंता या नियंत्रक होता है, इसलिये ईश्‍वर को जगत नियंता भी कहते हैैं ।

संतों की दृष्टिकोण से ईश्‍वर-

गोस्‍वामी तुलसीदास के अनुसार-

गोस्‍वामी तुलसी दास सगुणमार्गी भक्‍त कवि होने के बाद भी ईश्‍वर को व्‍यापक, अखण्‍ड, अनंत और सकल चराचर में व्‍याप्‍त मानते हैं । तुलसीदासजी के अनुसार ईश्‍वर सभी प्रकार के शक्ति हैं, जिस शक्ति का ईश्‍वर के अतिरिक्‍त किसी के पास उत्‍तर नहीं है । ईश्‍वर का न कोई विशेष गुण है न ही कोई ऐसा गुण है जिस पर ईश्‍वर का ईश्‍वरत्‍व न हो । ईश्‍वर के लिये चराचर एक समान है । ईश्‍वर पवित्र और निराकर है । चराचर पर व्‍याप्‍त होने के बाद भी निर्लिप्‍त और निर्मोही है । ईश्‍वर नित्‍य निरंतर सुख का स्रोत है । प्रकृतिगम्‍य न होने के बाद भी सभी हृदय पर विराजते हैं । ईश्‍वर एक ऐसी शक्ति है जिसका विनाश हो ही नहीं सकता ।

व्यापक व्याप्य अखण्ड अनंता । अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता 
 अगुन अदभ्र गिरा गोतीता । सब दरसी अनवय अजीता 
निर्मल निराकार निर्मोहा । नित्य निरंजन सुख संदोहा 
प्रकृति पार प्रभु सब उरवासी । ब्रह्म निरीह विरज अविनासी 

गुरूनानक देव के अनुसार-

गुरूनानक देवजी के अनुसार ईश्‍वर को देखा नहीं जा सकता, जिसके बारे में कुछ जाना नहीं सकता । ईश्‍वर के लिये न ही कोई समय है न ही कोई कर्म है । ईश्‍वर की न कोई जाति है न ही कोई योनी इसके बाद भी सर्वव्‍यापक एवं शाश्‍वत है-

अलख अपार अगम अगोचरि , ना तिसु काल न करमा । 
 जाति अजाति अजोनी संभउ, ना तिसु भाउ न भरमा।रहाउ ।। 
 साचे सचिआर विटहु कुरवाणु , ना तिसु रूप बरणु नहिं
 रेखिआ, साचे सबदि नीसाणु ॥1 ॥

कबीरदास के अनुसार-

कबीरदासजी ईश्‍वर को उसी प्रकार व्‍यापत मानते जिस प्रकार लकड़ी पर अग्नि व्‍याप्‍त होता है । लकड़ी को आप काट सकते हों किन्‍तु उस लकड़ी में व्‍याप्‍त अग्नि तत्‍व का विनाश नहीं कर सकते । लकड़ी में जिस प्रकार अग्‍नी व्‍याप्‍त है उसी प्रकार ईश्‍वर व्‍याप्‍त है –

जैसे बाड़ी काष्‍ठ का ही, अगिनि न काटे कोई । 
सब घटि अंतरि तुँहि व्‍यापक धरै सरूपै सोई ।।

ईश्‍वर के अस्तित्‍व के प्रमाण का आधार-

किसी भी बात या तथ्‍य को स्‍वीकारने या नकारने का कुछ न कुछ आधार अवश्‍य होता है । उसी प्रकार ईश्‍वर के अस्तित्‍व को स्‍वीकारने या नकारने का कुछ न कुछ आधार अवश्‍य निर्धारित किया जाना चाहिये । ये आधार तीन प्रकार से हो सकते हैं –

  1. भौतिक सत्‍यापन
  2. तार्किक सत्‍यापन
  3. स्‍वअनुभूत सत्‍यापन

भौतिक सत्‍यापन-

ईश्‍वर स्‍थूल है या सूक्ष्‍म, दृश्‍य है या अदृश्‍य, प्रत्‍यक्ष है या अप्रत्‍यक्ष, साकार है या निराकार इसका भौतिक रूप से प्रदर्शन ही भौतिक सत्‍यापन है । भौतिक सत्‍यापन की दृष्टिकोण ईश्‍वर का अस्तित्‍व को स्‍वीकार नहीं किया जा सकता ।

तार्किक सत्‍यापन-

तर्को की सहायता से किसी बात को पुष्‍ट करना तार्किक सत्‍यापन कहलाता है । ईश्‍वर के अस्तित्‍व को तर्को की सहयाता से कुछ तर्कशास्‍त्री नकारते है तो कुछ तर्कशास्‍त्री स्‍वीकारते हैं । तार्किक सत्‍यापन से यह निर्णय संभव नहीं दिखता कि ईश्‍वर का अस्तित्‍व है अथवा नहीं ।

स्‍वअनुभूत सत्‍यापन-

जब कोई व्‍यक्ति अपने शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, तार्किक शक्ति से किसी बात का अनुभव करता है तो वह उसके लिये सत्‍य है यदि वह इस अनुभव को दूसरों को कराने में सफल होता है वह उसके लिये भी सत्‍य है । किन्‍तु जो अनुभव नहीं कर पाता उसके उस बात को स्‍वीकारना आसान नहीं होता । ईश्‍वर के अस्तित्‍व को स्‍वअनूभूत करने वाले लोग स्‍वीकार करते हैं ।

क्या ईश्वर का अस्तित्व शाश्वत है ?

ईश्‍वर का अस्तित्‍व है ? इस प्रश्न का उत्तर इस बात पर निर्भर है कि हम ‘ईश्वर’ का अर्थ क्या लेते हैं।  ईश्‍वर के प्रति हमारी मान्‍यता क्‍या है ? इसके तीन विकल्‍प हो सकते हैं –

  1.   ईश्वर सर्वशक्तिशाली और सभी प्रकार से सभी जीवों के लिए कल्याणकारी है ।
  2.  ईश्वर सर्वशक्तिशाली है पर सभी जीवों के लिए कल्याणकारी नहीं है।
  3. ईश्वर सब प्रकार से सब जीवों का कल्याण करनेवाला है किन्‍तु जीवों पर कल्याण करने की उनकी शक्ति जीवों के कर्मों द्वारा नियंत्रित होती है।

1. ‘ईश्वर सर्वशक्तिशाली और सभी प्रकार से सभी जीवों के लिए कल्याणकारी है’ मान्‍यता का अस्तित्‍‍व-

यदि हम मान लें कि ईश्वर सर्वशक्तिशाली और सभी प्रकार से सभी जीवों के लिए कल्याणकारी है । यदि हम ईश्‍वर को सभी जीवों के लिये कल्‍याणकारी मानते हैं तो हमेें संसार में अनेक जीव दु:खी दिखाई देते हैं । इस तर्क के आधार पर दिखनेवाले दुःखी जीवों और पापात्माओं को देखकर कह सकते हैं कि ईश्वर का अस्तित्व नहीं है। 

 2. ‘ईश्वर सर्वशक्तिशाली है पर सभी जीवों के लिए कल्याणकारी नहीं है।’मान्‍यता का अस्तित्‍‍व-

यदि हम यह मान लें कि ईश्वर सर्वशक्तिशाली है पर सभी जीवों के लिए कल्याणकारी नहीं है। जैसा कि कुछ धर्म में माना गया है उनके धर्म न मानने वालों के लिए ईश्‍वर कल्याणकारी नहीं है। तो यह मानना पड़ता है कि हमारे संसार में ईश्वर नहीं है किसी शैतानी सत्ता का राज्य है, जो भेदभाव करता है । इस स्थिति में भी ईश्‍वर का अस्तित्‍व स्‍वीकार नहीं किया जा सकता ।

3.’ईश्वर सब प्रकार से सब जीवों का कल्याण करनेवाला है किन्‍तु जीवों पर कल्याण करने की उनकी शक्ति जीवों के कर्मों द्वारा नियंत्रित होती है।’ मान्‍यता का अस्तित्‍‍व-

यदि हम यह मान लें कि ईश्वर सब प्रकार से सब जीवों का कल्याण करनेवाला है किन्‍तु जीवों पर कल्याण करने की उनकी शक्ति जीवों के कर्मों द्वारा नियंत्रित होती है। जब-जब जीव सत्‍कर्म करता है, वह ईश्‍वर के कर्मबन्धन के द्वार को खोल लेता है । तब-तब उन पर भगवान की कृपा होती है।

इस मान्‍यता के आधार पर ईश्‍वर का अस्तित्‍व स्‍वीकारा जा सकता है क्योंकि इस मान्‍यता से जीव की स्वतन्त्रता, ईश्वर की अच्छाई और न्यायपूर्ण संसार के अस्तित्व को मानने में कोई समस्या नहीं आती। साथ ही इस बात की भी व्याख्या हो जाती है कि हर किसी को ईश्वर की कृपा या उनके अस्तित्व का एहसास क्यों नहीं प्राप्त होता।

ईश्वर का अस्तित्व शाश्वत है ?’ तार्किक सत्‍यापन-

1. ईश्वर समस्‍त ब्रह्माण्‍ड और उसके नियमों का समवायात्मक नाम है-

क्या आपने कभी यूनिवर्स को देखा है? नहीं । आप यूनिवर्स को नहीं देख सकते क्‍योंकि आप यूनिवर्स के बाहर जा ही नहीं सकते, उसे समग्र रूप में देखेंगे कैसे? तो क्‍या इसका निष्‍कर्ष यह निकाल सकते हैं कि यूनिवर्स का अस्तित्‍व नहीं है, कदापी नहीं । आप यूनिवर्स के अस्तित्‍व को स्‍वीकार करते ही हैं । सारा यूनिवर्स नियमबद्ध चलता रहता है – प्रकृति के नियमों के अनुसार। ईश्वर समस्‍त ब्रह्माण्‍ड और उसके नियमों का समवायात्मक नाम है ।  ईश्वर सारी सत्ता, उसके उद्भव, स्थिति, गति, संगति और विनाश को एक साथ सूचित करता है । यह किसी व्यक्ति का नाम नहीं है । इसप्रकार ईश्‍वर का अस्तित्‍व स्‍वप्रमाणित है ।

2.ईश्वर की प्रतिति

हमारा सांसे लेना, रात को सो कर सुबह उठना, उठने के बाद पूर्व का याद रहना । हमारे जैसे कईं जीवों का पालन पोषण यह सारी बातों में ईश्वर की प्रतिति होती है । अच्छे कामों का अच्छा नतीजा और बुरे कामों का बुरा नतीजा आना किसी सटीक व्यवस्था और व्यवस्थापक के अस्तित्व को मानने पर मजबूर करता है ।

ईश्‍वर के अस्तित्‍व का स्‍वअनुभूत सत्‍यापन-

इस प्रकार के ईश्वर के अस्तित्व का अनुभव असङ्ख्य सन्त महात्माओं को अपने आध्यात्मिक अनुभवों में और भक्तों को अपने जीवन के खास प्रसङ्गों में होता रहा है। इनमें से हर अनुभव को मात्र आत्मगत कहकर झूठलाया नहीं जा सकता। अतः हमें मानना पड़ता है कि ईश्वर का अस्तित्व अवश्य है।

विज्ञान ने कभी यह नहीं कहा है कि- ‘ईश्वर नहीं है।’-

विज्ञान ने कभी यह नहीं कहा है कि- ‘ईश्वर नहीं है।’ विज्ञान केवल यह कहता है कि वैज्ञानिक अनुसन्धान,  प्रयोग आदि की प्रक्रिया में ईश्वर जैसी कोई सत्ता पकड़ में नहीं आती।  वस्‍तुत: विज्ञान में इन्द्रिय बोध के आधार पर सूक्ष्मदर्शी उपकरणों की सहायता से प्रयोगशालाओं में वैज्ञानिक अनुसन्धान चलते हैं। इस सीमा के अंतर्गत जो विषय आ सकते हैं केवल वही विज्ञान के प्रतिपाद्य विषय हैं । विज्ञान की भी अपनी एक सीमा है। इस सीमा में यदि ईश्वर नहीं आया है तो उसका अर्थ यह नहीं कि ईश्‍वर का अस्तित्‍व है ही नहीं। विज्ञान एक-एक नियम को आधे-अधूरे जानने की कोशिश करता है ।  विज्ञान बहुत से नियमों को जान सका है, बहुत नियमों की झाँकी भर मिली है, बहुत सारे नियम अज्ञात हैं।  विज्ञान अपने शैशव से क्रमशः विकसित होता हुआ किशोरावस्था में प्रवेश कर रहा है अभी उसे प्रौढ़, वृद्ध एवं परिपक्व होने में बहुत समय लगेगा।

विज्ञान भी विश्‍वसनीय नहीं है –

विज्ञान का कोई कथन, सिद्धांत  सर्वकालिक सत्‍य नहीं है । यह आने वाले समय में नये शोध अध्‍ययन के आधार पर झूठलाये जा सकते हैं । विज्ञान के अभी तक केे इतिहास सेे इसे  आसनी से देखा जा सकता है । ऐसे बहुत से सिद्धांत   हैं जिसे या अमान्‍य कर दिया गया या संशोधित कर दिये । इस आधार पर यह कैसे कह सकते हैं जो वैज्ञानिक तथ्‍य आज मान्‍य है आने वाले समय में भी मान्‍य होंगे ? ऐसे प्रमुख उदाहरण इस प्रकार है-

1.न्‍यूटन सिद्धांत की अमान्‍यता-

न्यूटन की खोजें किसी समय अत्यन्त सत्य मानी गई थीं, पर अब परिपुष्ट विज्ञान ने उन्हें क्षुद्र, असामयिक एवं व्यर्थ सिद्ध कर दिया है। गुरुत्वाकर्षण की खोज किसी समय एक अद्भुत उपलब्धि थी अब आइंस्टीन का नवीनतम सिद्धान्त प्रामाणिक माना गया है और गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त को बाल−विनोद ठहराया गया है। ‘आइंस्टीन के अनुसार देश, काल और एकीकरण की− स्पेश टाइम और काजेशन− के एकीकरण सिद्धान्त की एक वक्राकृति मात्र है जिसे हम पृथ्वी का घुमाव मानते हैं। यह इस वक्रता के दो उपाँशों का आनुपातिक सम्बन्ध भर है। इसी से पृथ्वी घूमती दीखती है और उसकी गतिशीलता को अनुभूति में एक कड़ी गुरुत्वाकर्षण की भी जुड़ जाती है। यह आकर्षण तथ्य नहीं वरन् हलचलों की एक भोंड़ी सी अनुभूति मात्र है।” इस प्रकार विज्ञान का कोई कथन सर्वकालिक सत्‍य नहीं हो सकता । यह आने वाले समय में नये शोध अध्‍ययन के आधार पर झूठलाये जा सकते हैं ।

2. डार्विन विकासवाद की अमान्‍यता-

डार्विन द्वारा विकासवाद का सिद्धान्त देने के बाद आकस्मिक रूप से उत्पन्न उत्परिवर्तनों को जैवविकास का कारण माना गया था। अब तथ्य इस धारण के विपरीत पाए गए है। मेडीसिन तथा फिजियोलाजी में 1978 का नोबल पुरस्कार प्राप्त करने वाले प्रोफेसर वर्नर अर्बर का कहना है कि उत्परिवर्तन आकस्मिक रूप से उत्पन्न नहीं होते। उत्परिवर्तनों को प्रकृति की भूल नहीं माना जा सकता। अपने अनुसंधान के दौरान प्रोफेसर वर्नर अर्बर ने देखा कि उत्परिवर्तन किसी उद्देश्‍य के सन्दर्भ में आणविक स्तर पर समझदारी से उठाए गए कदम का परिणाम होते हैं।

सृष्टि के सृजन एवं संचालन के प्रश्‍नों का उत्‍तर विज्ञान के पास नहीं –

विज्ञान प्रयोग द्वारा पुष्ट बात पर विश्‍वास करता है। ईश्‍वर की उपस्थिति को प्रयोग द्वारा अभी तक नहीं दिखाया जा सका है। जोसेफसन के अनुसार यह कमी विज्ञान की कार्य प्रणाली की है। वैज्ञानिक अपने अनुसंधान के क्षेत्र का चयन अपनी इच्छा से करता है। अभी तक वैज्ञानिक-अनुसंधान विज्ञान के मूलभूत सिद्वान्तों तक सीमित रहा है। कई ऐसे क्षेत्र हैं जिन्हें जटिलमान कर छोड़ दिया जाता है। कई समस्याओं के समाधान नहीं मिलने पर यह मान लिया जाता है कि भविष्य में इन समस्याओं को सुलझा लिया जाएगा। सृष्टि के सृजन एवं संचालन के कई प्रश्‍न हैं जिनका जवाब विज्ञान के ज्ञात नियमों के आधार पर नहीं दिया जा सकता। उदाहरण के लिए मनुष्य जैसे बुद्धिमान जीव की उत्पति को अभी तक ठीक से नहीं समझाया जा सका है।

ईश्‍वरी शक्ति के अस्तित्‍व को स्‍वीकार कर ही सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया समझा जा सकता है-

चर्चित विज्ञान लेखक विष्‍णुप्रसाद चतुर्वेदी ईश्‍वर की अवधारणा को विज्ञान के परिप्रेक्ष्‍य में देखते हुये लिखते हैं- ‘विज्ञान द्वारा प्रस्तुत भौतिक उपलब्धियों द्वारा विश्‍व चमत्कृत है। इन उपलब्धियों के आधार पर अनुसन्धान से जुड़े वैज्ञानिक भौतिक विज्ञान में सभी समस्याओं का समाधान देखने लगे हैं जबकि विज्ञान द्वारा जुटाए संसाधनों का समुचित उपयोग करने के बावजूद मानव, पूर्व के किसी काल की तुलना में, आज अधिक भयभीत है। अनिश्‍चतता व अविश्‍वास का निरन्तर प्रसार हो रहा है। मानव सभ्यता विनाश के कगार के जितनी समीप आज है उतनी पहले कभी नहीं रही। कई वैज्ञानिकों का मानना है कि ईश्‍वर की उपेक्षा कर, विज्ञान की भौतिक उपलब्धियों में सुख खोजने के कारण ही, यह स्थिति बनी है। विश्‍व के कई महान वैज्ञानिकों ने अपने क्षेत्र में किए अनुसंधान के दौरान अनुभव किया है कि सृष्टि के संचालन को मात्र भौतिक नियमों के बल पर नहीं समझा जा सकता। ईश्‍वर जैसी अदृश्‍य शक्ति की भूमिका को स्वीकार करके ही सृष्टि के निर्माण एवं इसके संचालन को ठीक तरह समझा जा सकता है।’

फुटनोट-

hindi.speakingtree.in- विज्ञान ईश्वर के अस्तित्व से इन्कार नहीं कर सकता

साइंटिफिक वर्ल्‍ड – ईश्वर की अवधारणा, विज्ञान की कसौटी !

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मानवता धर्म से भिन्‍न नहीं धर्म का अभिन्‍न अंग है

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