डाॅ.नीरज वर्मा की कहानी : ज़िंदगी गुजर गई

डाॅ.नीरज वर्मा की कहानी : ज़िंदगी गुजर गई

ज़िंदगी गुजर गई

-डा.नीरज वर्मा

डाॅ.नीरज वर्मा की कहानी : ज़िंदगी गुजर गई
डाॅ.नीरज वर्मा की कहानी : ज़िंदगी गुजर गई

कोहरे का लबादा ओढ़े बीड़ी की टोंटी मुंह में दबाए झग्गन के लिए यह पहला मौका नहीं था जब आधे में उठना पड़ा था। फिर उस दिन की तो बात ही अलग थी। पूरे शहर की झारम-झार सफाई हो रही थी। मरदूद औरतें तो मानो कचड़ा गाड़ी लिए सर पर चढ़ी आ रही थीं….। ‘‘कलेक्टरीन की चढ़ाइ हैं सब मां की जनी’’ झग्गन भुन-भुना ही रहा था, तभी उसकी हंसी की ठिल्ली रोके न रूकी। सफाई कर्मचारी, संपत को उसकी ठिलिया गाड़ी सहित शहर से बाहर ले जाने के लिए घसीट रहे थे। बेचारा ज़ार-ज़ार रोता कभी साहबों के पैरों पर लोटता……‘‘साहब कुछ नहीं कमसे कम कचड़ा-कूड़ा खा कर पेट तो भर जाता है’’ ‘‘उधर जब आदमिये नहीं जाएंगे तो भीख कौन देगा। अपाज पर दया करिए सरकार’’,संपत पीकअप की चैन पकड़ कर लगभग लटक गया था। लेकिन यहां कौन किसकी सुनने के लिए बैठा था। स्वच्छ भारत का इरादा वाला चोंगा लगाए सफाईदारिने कोने-कोने का कूड़ा-करकट झटक रही थीं। सब्जी बजार की दीवारों पर गांधी के चश्मे वाले बड़े-बड़े बैनर लटकाए गए थे। वैसे झग्गन का क्या ? वो तो कभी पुत्तन साव तो कभी लहन सिंह के चबुतरे पर ही अपनी गुदरी, कथरी डालता और पसर जाता। बहुत हुआ तो दस रु का ठर्रा चढ़ा लेता….उसके लिए तो सड़े करेले और पिचके टमाटर की गंध रोज मर्रा की बात थी। उस दिन पिचके टमाटर की सड़न से पूरा वातावरण भिन-भिना रहा था। तभी बाजार को रौंदती घर्र… की खड़-खड़ाती आवाज वाली मीनी ट्रक आकर रुकी तो दलाल ऐसे लपके मानो कचरे में डाली गई बासी को, झपटने के लिए कुत्ते लपक रहे हों। आढ़तियों का मोल तोल छिन झपट देख झग्गन मंद-मद मुस्कुरा रहा था….। उसकी बड़ी मेहनत की कमाई थी, एक-एक फल को ऐसे तोड़ा था मानो मोती चुन रहा हो….। खाद बीज उधार ले कर लगभग एक एकड़ में टमाटर लगाया था। उसके एक-एक वल्लरी में बांस की लकड़ी का सहारा दिया था, ताकि फल जमीन से लग कर सड़ें न। पौधे भी लहलहा के ऐसा उगे कि अपनी ही नज़र लग जाए। पुनिया तो कान का टाप्स लेने के सपने भी देखने लगी थी। झग्गन ने भी हिसाब लगाया था, एक दम किस्मत भी फूटी होगी फिर भी महाजन का कर्जा काढ़ कर अच्छी खासी रकम बच जाएगी। लेकिन कहते हैं न जब किस्मत खराब हो तो हाथी पर भी बैठे रहो तो कुत्ता चढ़ कर काट लेता है। तभी तो टमाटर की ऐसी बंफाड़ खेती हुई कि, रुपये किलो भी लेवाल मिलना मुश्किल था। टमाटर की तोड़ाई तक निकल पाना कठिन हो गया था। लोग टोकना का टोकना टमाटर सड़कों पर उड़ेल रहे थे। सरकार हमेशा की भांति मौन थी। कहां तो टाप्स के ख्वाब देखे जा रहे थे कहां साहूकार दरवाजे की माटी कोड़ रहा था। बहुत कहा सुनी ना-नुकुर के बाद सुरेश आढ़तिया से उधार लेकर साहूकारों का कर्ज उतारा था। सुरेश भी कौन सा खैरात बांट कर गया था। पक्के रुक्के पर लिखवा कर गया था, अब की टमाटर का एक-एक फल उसी के आढ़त से उठना चाहिए। सैकड़े पांच रुपये ब्याज के अलग। ‘‘खबरदार जो चोरी से कुछ भी इधर-उधर करने की कोशिश हुई..’’ ‘‘माई बाप जो समय पर काम आने वाले के साथ गद्दारी करे उसे दोगला ही समझिये फिर आप कौन सा फसल मुफ्त में लेंगे हमें तो बेचना ही है और कोई ना सही आपको ही देंगे।’’ लेकिन मालिक ब्याज ही कुछ कमर तोड़ाउ लग रहा है कुछ कम हो जाता तो’’….. झग्गन थोड़ा कतर ब्योंत किया था।

‘‘चल बे गीदड़ ज्यादा होशियारी न दिखा’’

‘‘अब का बताएं मालिक तीन ठो बाल बच्चे हैं हारी बीमारी सब तो इसी में देखना है’’उकड़ू बैठा झग्गन रिरियाया था।

‘‘अच्छा चल चार फिसदी ही दे देना…तू भी क्या याद रखेगा’’….पीठ पर धौल जमाते हुए सुरेश बत्तीसी निकाल दिया था।

कुसुम चंवर में खर पतवार गोंड़ते पुनिया के पैर में कांच का टुकड़ा क्या धंसा, झग्गन के दिल में हुक सा उठा था…।‘‘का फायदा ऐसी किसानी से रे पुनिया जब एक जोड़ी चप्पल भी नसीब न हो सके’’ पनियायी आंखे उसकी वाणी को अवरुद्ध कर रही थीं।

‘‘धत् एक दमे पगला गये हो का कोनो चप्पल की कमी है, अब क्या किचड़ कादो में चप्पल चटकाते रानी बन कर डोलें। इतने हिरवइन नहीं हैं हम।’’ ‘‘और कटना-फटना किसान का नहीं होगा तो का कान में मोबाइल सटाए बाबुओं का होगा।’’‘‘ ए सब तो जीवन का ढर्रा है ।’’ पुनिया एक पल के लिए दार्शनिक हो रही थी लेकिन पलांश में ही पुलक उठी ‘‘अबकी बार टाप्स न खरीदे तो जो दो चार बाल है न सिर पर उसे भी नहीं रहने दूंगी’’ पुनिया ने बात इतनी दिल्लगी से की थी कि झग्गन के मुंह से ठिल्ली फूट पड़ी थी।

‘‘अच्छा चल अब ज्यादा बातें न बना चल चूल्हा में लकड़ी लगा मैं क्यारी में पानी पटा के झट आया।’’ ‘‘वैसे भी आज कोठार में ही सोना पड़ेगा, मिसाई के लिए दो चार खलियान अभी बचा ही है।’’ ‘‘रात को पहरेदारी न किया तो….आठ दस भार धान चटकाते देर न लगेगा, गुड्डन ताक ही लगाए बैठा है।’’

अभी बात खत्म भी नहीं हुई थी कि, फूलेश्वरी ठुनकती हुई पहुंची थी, ‘‘पापा स्कूल के एनवल फंक्शन में मैं डांस में पार्टिशिपेट कर रही हूं जिसके लिए मुझे परी ड्रेस चाहिए।’’

‘‘ क्या बोली एक बार फिर से बोल….मेरा बच्चा …….बेटी के मुंह से निकले दो चार अंग्रेजी के शब्द सुन कर झग्गन का सीना चौड़ा हो गया था।’’

‘‘लेकिन बेटा इतनी जल्दी कपड़ा कौन सील कर देगा’’
‘‘किराए पर सब मिल जाता है पापा मेरे फ्रेंड के पापा उसके लिए डांस ड्रेस लेने गये हैं।’’
‘‘ठीक है बेटा तू घर चल फसल में पानी पटा के मैं अभी आया’’ फूलेश्वरी को क्या पिता से तारा तोड़ने की फरमाईश करनी थी सो कर दी। अब यह तो झग्गन की समस्या थी, कि वो अपने पितृ धर्म का पालन करे। वह तो हवा सी आई थी और तितली हो गई।

गांव भर के बच्चे लंगोट बांधे डांगरों के पीछे घुमते फिरते हैं….और इसे देखो कितना फर-फरा के अंग्रेजी बोल रही है। भगवान इसे खूब आगे बढ़ाए। झग्गन के भीतर उमंग की फसल लह-लहा गई थी। लोग तो माटी के लौंदो पर पैसां का परनाला बहा देते यहां तो मेरी बेटी ज़हीन है। टमाटर की क्यारी में पानी डाल कर झग्गन गांव से सटे शहर में ड्रामे बाजी का ड्रेस के लिए पहुंचा तो उसके होश फाख़्ता हो गये थे। यहां तो नये कपड़े की दुकान से ज्यादा भीड़ उमड़ी पड़ी थी। कोई परी ड्रेस उलट-पलट रहा था तो किसी की मांग राक्षसों वाले कपड़ां की थी। किराया सुन कर तो चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी। मन मसोस कर टमाटर पर दवाई का छिड़काव करने वाले पैसे से परी ड्रेस लाना पड़ा। फूलेश्वरी की देह पर परी ड्रेस फब भी खूब रहा था। पर यहां तो झंझट ही अलग खड़ा हो गया था। परी ड्रेस देख कर बाकी दोनों के कलेजों पर सांप लोटने लगा था। चिल्ल-पों का ऐसा रैला आया मानो घर में तूफान आ गया हो। बच्चों की छिना-झपटी में परी के डण्डे में लगा तारा टूट कर धूल में लोट रहा था। वो तो पुनिया लपक ली थी वर्ना घाघरे के चिथड़े उड़ते नज़र आते। लड़ाई शांत कहां होती अगर झग्गन की टेंट में खुंसा कुछ खुचरा छुन्नू के कंपास और मंझली की कापी के लिए ढिले न हुए होते। शांति वार्ता के प्रयास में पुनिया की चप्पल हवन हो गई थी जिसे मन मसोस कर बाद में खरीदने हेतु टाल दिया गया था।

बाल बच्चों के रोज रोज के खिटिर-पिटिर से पुनिया का मन कुढ़ा हुआ था…‘‘.अब हिरनिया का चारा दाना नहीं सकाता एक बारगी ढोर डांगर को बैठा कर खिलाने में आंख निकल जाती है।’’‘‘ पाव छटाक के दूध को भी तो आदमी मुहाल है।’’

‘‘लक्ष्मी के नाम पर यही तो एक बची है। अब तुम कहो तो कसाई से बात करुं’’ झग्गन के चेहरे पर झांई आ गई थी।

‘‘खुद महादेव बने रहो और सारा पाप मेरे सिर पर डाल दो खुद ही कसाई काहे नहीं बुलाते मुझसे हुंकारी काहे भरवाते हो’’ पुनिया चिढ़ गई थी ‘‘सुरेश साव कल ही आया था…टमाटर के हरियाए खेत को ऐसे देख रहा था मानो आंखो से ही लील जाएगा।’’ ‘‘कहे देती हूं टमाटर का एक फल भी उठाने न दूंगी’’….‘‘हाड़ तोड़ मेहनत करें हम मजा मारे साव’’

‘‘वाह रे लक्ष्मी बाई….बड़ा आई रोकने वाली।’’ ‘‘पक्का रुक्का लिखवा कर दबाया है अपनी संदूकची में…’’और लिखवाए भी क्यों न बेचारा पिछली बार टमाटर की भरपाई करने के लिए साव न खड़ा होता तो….जाने सब मार ही डालते।’’

‘‘मण्डी में किसान की औकात क्या है रे पगली…..वो तो पानी है बस, पानी ही पानी’’…झग्गन कवियाना हो कर हो.. हो कर हंसने लगा था।

‘‘तो धरे रहो अपनी किसानी आग लगे तुम्हारी खेती में ऐसी खेती का क्या?’’‘‘ न मुस मरे का न मोटाए का….।’’

‘‘काहे कुढ़ती हो मेरी रानी साव टमाटर का बजार भाव ही तो देगा कोई सेंत में माल थोड़ी उड़ाएगा।’’ ‘‘शर्त बस इतनी है, फसल उसके आढ़त से ही उठेगी।’’‘‘ वैसे इसमें बुराई भी क्या है?’’ झग्गन का चेहरा भोला हुआ जा रहा था।

‘‘तुम तो बस सपना देखो किसान जी।‘‘ इन व्यापरियों की चाल तुम नहीं समझोगे ’’ ‘‘तुम्हारे हाथ फूटी कौड़ी आ जाए तो कहना।’’ कटहल के छिलके उतार फांक करती हुई पुनिया के चेहरे पर चिन्ता फुनगिया रही थी। ‘‘तुम भी तो जनम गंवार रह गये मैं न कहती थी डेबरी सीख लो कम से कम पेट परदा तो चलता’’ किसानी के भरोसे रहोगे तो एक दिन फंसिया मरोगे।

‘‘तू एक दम मत घबरा जब तक मैं हूं सब ठीक रहेगा। अभ्भी के अभ्भी नन्हक लाला कह के गये हैं धान की खेती का अध बटईया देंगे’’ कुछ तो कमाई होगी ही…।’’

‘‘कोढ़ फूटे नन्हक लाला को उसके खेत में न सरस है न खाद, पानी भी भगवान भरोसे ढोढ़ी के पानी से कहीं खेती होगी’’ देहीजारा छिछोरा भी कम नहीं है….चुनिया महुवा के डांड़ में महुआ बिनने गई थी तो लगा लपड़ झपड़ करने नास पीटे को शर्म नाम की चीज नहीं है। उम्र का लिहाज भी तो किया होता मन तो किया वहीं चप्पल से मुंह रंग दूं।’’

‘‘तू भी न पुनिया किसी को कुछ भी कह देती है। तुझसे देवर भौजी का रिश्ता रखते हैं सो हंसी ठिल्ली किये होंगे’’ ‘‘वर्ना तुझमें ऐसा क्या है जो नन्हक बाबू तुम्हारी तरफ ताकेंगे…?’’ कही सो कही दुबारा भूल के भी कहना मत नहीं गांव जवार में रहना मुहाल हो जाएगा।’’

‘‘वाह रे मेरा मर्द….’’ पुनिया गुस्से में तम तमा गई थी।

पुनिया का गुस्सा उबला तो हिरनिया की जान को आफत आ गई। खचिया भर कोढ़ा नन्दलाल से मांग कर लाई थी तम-तमा के कोठार में पटक आई बेचारी को रात भर फांका करना पड़ा था।

वैसे तो पति-पत्नी का बतकुच्चन नित्य की दिन चर्या थी लेकिन आज मामला कुछ ज्यादा गर्मा गया था। आदमी का मन ठीक होता है तो उपलों सी रोटी और बासी सब्जी भी छप्पन भोग जान पड़ती है, वर्ना…पुनिया जब खाने के लिए हांक मारते-मारते थक गई तो ओसारे में ही थाली ढंक कर चली गई । लेकिन क्या मजाल जो झग्गन कौर भर भी मुंह में डाला हो। मच्छरों की भुन-भुनाहट से भरी रात बाध वाली खटिया में उलट-पलट करते बीत गई । दो एक बार टमाटर बारी में कुछ खुर-खुराने की आवाज आई भी तो मारे क्रोध के उस तरफ ध्यान ही नहीं दिया। रात तो जैसे आंखो में ही कट गई थी। भोर में थोड़ी झपकी आई भी तो…..‘‘शौचालय में ही निपटना हो ….. वाली कोटवार की कर्कश आवाज से उनकी नींद उचट गई। लगा अब नींद उचट ही गई है तो क्यों न लगे हाथ हाज़त से निपट लिया जाए। लेकिन आज जो मुसिबत आई भगवान दुश्मन को भी न दे…अभी बैठा ही था तभी बेशर्मो की खिखियती टोली धमक पड़ी थी…..‘‘झग्गन भाईय अब डांड मैदान से काम नहीं चलने वाला…..’’बेशर्मी की हद ही कहिए उनमें से एक ने आगे बढ़ कर फोटो उतार ली थी। बात यहीं तक निपट जाती तो कुछ और थी। सचिव से अपनापा करता हुआ गन्झू लपक कर पंचायत भवन से जुर्माने की रशीद ले आया था।

‘‘ला भाई झग्गन निकाल दो सौ पचास रुपये…’’सचिव की आवाज में पैना पन था।
‘‘दो सौ पचास रु काहे के भाई’’….झग्गन एक दम से ऐंठ गया था।

‘‘अब अकड़ने से काम नहीं चलने वाला तुम्हे नहीं पता ग्राम सभा में प्रस्ताव पारित हो गया है। अब खुले में जाने वाले को दण्ड भरना पड़ेगा।’’‘‘ और जब तुम ही नहीं मानोगे तो फिर बाकी लोगों का तो भगवान ही मालिक है।’’

‘‘बात तो ठीक ही कह रहे हैं साहब लेकिन जाएं तो जाएं कहां अब पेट में तो सड़ाएंगे नहीं’’……झग्गन पिनक गया था।

‘‘वाह जी वाह लगता है, थाना फौजदारी होगा तभ्भी मानोगे’’ ‘‘शौचालय बनवाने के लिए जो पैसा तुम्हारे खाते में जमा हुआ है उससे क्या बेटी ब्याहोगे ?

‘‘सबेरे सबेरे ज्यादा पंचायती मत बघारो गन्झू कौन सा लाख दो लाख भर दिये हो…..।’’ ‘‘पांच हजार में कहीं संडास बनेगा।’’ झग्गन के भीतर का गुस्सा पीलपीलाए जख्म सा छर्राका मार के फूट पड़ा था।

‘‘जान के अंजान मत बनो पंचायत की बैठक में तो तुम थे न’’ ‘‘अभी तो यह पहली किस्त मिली है।’’ ‘‘ शेष रकम तुम्हे खुद लगाना होगा।’’ ‘‘ काम पूरा होने पर वह राशी तुम्हे मिल जाएगी।’’ सचिव की बात में सूखापन था।

‘‘देखो झग्गन खुले खेत में तो तुमको बैठने नहीं देंगे।’’ ‘‘और रही जुर्माने की बात तो टेंट ढीली कर के दो सौ पचास रुपये धर दो नहीं तो वसूलना हमको अच्छे से आता है।’’
‘‘तो अब दादा गीरी करोगे क्या?’’

‘‘अब तुम जो समझो’’। बातों की मेड़ से फूट कर निकलने वाले पानी के रेलम पेल को रोक पाना कठिन हो जाता है। वो तो पलांश में मार्ग के उबड़-खाबड़ को तोड़ते-फोड़ते मन चाहे मार्ग में निकल पड़ता है। झग्गन से बतकुच्चन हो ही रही थी, तभी नन्दकेश्वर उसका बकरा हांक लाया। ढाई सौ जमा करना और पंचायत भवन से ले जाना ग्राम सचिव की चापलुसी करता नन्दकेश्वर कीट लगे पूरे दांत निकाला था।

जीवन के चक्रवाती भंवर में चक्कर घिन्नी खाता झग्गन अतल गहराई में डूबता जा रहा था।….‘‘चिन्ता में काहे घुले जा रहे हो किसान जी कोई चोरी तो किये नहीं हो जो थाना फौजदारी होगी….’’रही पांच हजार की बात अब उठ ही गया है तो फांसी पर लटका देंगे का..?’’‘‘ सरकार हमारा गुदड़ा, टिना जो भी ले जाना है ले जाए लेकिन कहे देती हूं ,इस घर से एक भी बोट न डालने दूंगी उल्टा बोट मांगने आएंगे तो झाड़ू ले कर पूजा करुंगी। ’’और पहिले तो मैं थाना में जाके रिपोर्ट लिखवाउंगी देहीजारा हमारा तैयार बकरा खोल के ले गया है। लपट-झपट का ऐसा मामला बनवाउंगी कि पट्ठा जनम भर जेहल में सड़ जाएगा।’’

‘‘चल चुप कर छिनार अब यही सब बचा है’’। ‘‘सचिव को कम मत समझ, झोटा पकड़ कर भरे गांव में घसीट-घसीट कर मारेगा।’’हाकिम मुलाजीम सब उसके जेब में रहते हैं।’’ पार्टी वाले भी सब उसी का सपोट करते हैं।’’ झग्गन लगभग चीखा था।

‘‘तो जान दे दोगे क्या?’’ पुनिया के चेहरे पर उतावलापन स्पष्ट झलक रहा था।

‘‘पांच हजार ही तो हैं भगवान चाहेगा तो मण्डी में टमाटर उठतेे ही संडास की टपरी डाल लूंगा।’’ घरी खाण्ड की ही तो बात है,’’ ‘‘समय पर समय की परत चढ़ते समय नहीं लगेगा।’’ तब तक हाथ पैर जोड़ कर काम चला लूंगा।

‘‘लेकिन मैं तो अपना बकरा नहीं छोड़ने वाली…..।’’ बड़ा आई बकरा वाली…हो….हो की हंसी के साथ झग्गन बात को हल्का करने का प्रयास किया था।

‘‘अब तूझे क्या हो गया रे?’’ ‘‘चल जा यहां से, मुंह से बात खींच लेती है।’’ ‘‘नाम कटता है तो कटन दे, पढ़ लिख कर कोन सा कलेक्ट्टरी करनी है।’’ फूलेश्वरी जब बे समय फीस की रार मचाई तो पुनिया फुन्न हो गई थी……।

‘‘अब बच्चों पर दांत पीसना बंद कर।’’ ‘‘आपद विपद तो जनम गठरी है।’’ जाने किस जनम का पाप है जो हम भोग रहे हैं।’’ इनको तो अपना जीवन जी लेने दो’’…‘‘इनके सामने तो पूरी ज़िंदगी खड़ी है।’’ ‘‘रात की उमर ज्यादा नहीं होती’’। ‘‘तू टमाटर के लत्तर में बांस का सहारा दे मैं अभी आया पंचायत भवन से अपना बकरा ले कर ज्यादा बकेंगे तो कहूंगा …‘‘रखे रहो अपना धन मैं अपना संडास खुद खुदवा लूंगा।’’ ‘‘बिकने दो टमाटर उनके पैसे मुंह पर न दे मारुं तो कहना।’’
‘‘बड़ा आए मुंह पर मारने वाले गंजी में बारह छेद भरे पड़े हैं और नवाबी देखो तो लाट साहबों वाली’’। पुनिया मुंह बिचकाई थी।

उस दिन ठहा ठह पानी बरस रहा था, ऊपर से घुप्प अंधेरा, बिजली तो मानो देह पर गिरी आ रही हो। जाने कब गोथो, पांड़े जी की बछिया ढो लाया था। फिर क्या था, हरिजन बस्ती में उत्सव का माहौल बन गया था। लप-लपाती ढिबरी में इधर-उधर डोलती परछांही को देख कर लोगों की खुशी का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता था। झांय-झायं करती घुप्प अंधेरी रात, नशे में झूमते लोग और बस्ती से दूर अकेली औरत जात तिस पर गजराज का प्रकोप अलग जाए तो कहां जाए। पुनिया का बेचैन मन उथल पुथल कर ही रहा था तभी हिलती हुई परछाई देख मन शांत हुआ था।
‘‘सचिव तो बड़ा नेक दिल है रे…’’ ‘‘चमचा नन्दकेसर ही जादा फड़-फड़ा रहा था….’’ ‘‘मैं तो खुदई कह दिया अब गांव जवार के लोग एक ठो पठिया खा ही लेंगे तो कौन सा महाकाल पसर जाएगा।’’ प्लास्टि की थैली में लगभग पाव भर मांस झूलाता ठर्रे की पिनक में झूलता झग्गन पंचायत भवन से लौटा तो कुछ अलग ही मिजाज में था। बात-बात में खिखियाते हुए दस का सिक्का उछाला ‘‘लपक के गुड्डन चाय की दुकान से एक पुडा़ सरसों तेल ले कर आ आज पठिया मैं खुदै पकाउंगा…..।‘‘ और बड़की गोथो घर से जा के दो ठो प्याज ले आ’’।

‘‘कोई जरुरत नहीं है गोथो के घर जाने का….’’पुनिया लगभग चीखी थी।

‘‘अच्छा चल भात का अधन चढ़ा और हां दो मुट्ठी ज्यादा चावल डालना आज बकरा भात दबा के खाना है।’’कीट भरे पीले दांतो को निकाल कर झग्गन गुं..गुं वाली हंसी हंसा था।

‘‘वाह किसान जी बड़ा गये थे, फैसला करने और कर आए हवन दो हजार का बकरा’’ ‘‘जब भाग ही फूटे हों तो किसके आगे दीदा फोड़ूं…।’’ ‘‘मां बाप जिसका हाथ धराए वो नास पीटा रंडीबाज निकल गया।’’ इसके साथ भाग कर आई तो…करनी न करतूत बातें बस बड़ी-बड़ी’’ ‘‘ अगर बच्चे न हुए होते तो कब का छोड़ दी होती’’।

‘‘तू भी क्या नाम लेगी मण्डी में चढ़न तो दे टमाटर दरवाजे पर ट्रेक्टर न खड़ा कर दूं तो मैं भी असल बाप का बूंद नहीं’’ झग्गन की लड़-खड़ाती आवाज का आलाप ऊंचा हो गया था।
‘‘जिन्दगी पे खूब चढ़ी जिं़दगीए इश्क, ज़िंदगी गुजर गई ज़िंदगी आते आते।’’

वाह रे झग्गन की मेहनत टमाटर के वल्लरी वो उमगे कि, देख कर मन गद-गद हो उठा था। लाल टमाटर सेव से प्रतिस्पर्धा करते नजर आते। टमाटर की हुमक से पुनिया आस पड़ोस के लोगों के सामने अकड़ कर चलती। कई बार तो बात करने से कतराने भी लगी थी। झग्गन से सारे गिले शिकवे भूल कर ध्यान बस कर्ण फूल में अटका गया था।

‘‘मैं न कहता था किस्मत हमेशा खोटी नहीं रहती।’’ ‘‘घरी समय की बात है, बाजार में टमाटर चढ़ने भर की तो बात है, सब दलिद्दर दूर हो जाएगा।’’ सबसे पहिले तो सचिव के मुंह पर नोट की गड्डी दे मारुंगा। धुंए की रास छोड़ती चिमनी की लपलपाती रोशनी में झग्गन का चेहरा दिप-दिपा रहा था।
गम के जख़्म अभी पपड़िया ही रहे थे कि, उन्हे कुरेदता खून के फुचकारे उड़ाता सुरेश साव अपनी जंग लगी खड़-खड़ाती पीकअप में लद कर पहुंच गया था। न हाल चाल न दुआ सलाम एक दम सपाट आदेश ‘‘अरे झगना टमाटर का ट्रे ला दिया हूं तोड़वा के भरवा देना’’।

पुनिया फुन्न होती बाघिन सी दहाड़ी ‘‘टमाटर किसी के बाप का नहीं है जो तुम्हे दे दें’’। ‘‘हम खुद ही ले जाएगें मण्डी के मोल भाव कर के जो ज्यादा देगा उसी को देंगे’’। ‘‘रही बात तुम्हारे पैसे की तो चिन्ता न करो मिल जाएगा।’’

एक गन्दी सी गाली उछालते हुए सुरेश तम-तमा गया था…‘‘का रे झगना ए का बक रही है, जब पैसे की जरुरत थी तो हाथ पसार के खड़ा हो गया था।’’ अब घरवाली के घाघरे के नीचे मुंह छिपा रहा है।’’ ‘‘पक्का रुक्का लिख के दिया है, पता है कि नहीं….’’।‘‘थाने में ऐसा घसीटूंगा कि…….’’। ‘‘वैसे भी एक ही माघ ठण्ड नहीं जाती।’’

‘‘मालिक औरत जात घाम जाड़ा खट के खेती की है न इस लिए थोड़ा सठिया गई है।’’ ‘‘पहिले बैठिये तो सब हो जाएगा…आदेश करें तो पउआ पेटी का जुगाड़ करुं। खटिया बिछा कर झग्गन उकड़ू बैठ गया था।

‘‘तेरा भी ट्युब लाइट देर से भुक-भुकाता है’’ सुरेश साव ऐसे दांत निपोरा मानो कुछ हुआ ही न हो।
‘‘लेकिन रेट का कुछ बताते मालिक…’’झग्गन हकलाया था।

‘‘अब दाम का क्या बताउं झग्गन इस साल भी टमाटर बंफाड़ पैदा हुआ है।’’ब्याज छोड़ भी दूं तो कुछ समझ नहीं आ रहा है। बाजार उठने की भी कोई गुंजाइश नहीं है।’’ अब बहस मुबाहिसे की कोई जगह नहीं थी। टमाटर तोड़ने में घर वालों की दिहाड़ी भी मुफ्त में चली गई ………।

-डा.नीरज वर्मा, अम्बिकापुर छत्‍तीसगढ़

Loading

One thought on “डाॅ.नीरज वर्मा की कहानी : ज़िंदगी गुजर गई

  1. यह एक यथार्थ किसान की यथार्थ समस्या और दर्द को जीवंत करती कहानी है । कहानीकार को हार्दिक बधाई

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *