कहानियों में वृद्ध विमर्श :
मेरी कहानियों में वृद्ध विमर्श
-तुलसी देवी तिवारी
यह सत्य है कि ‘साहित्य समाज का दर्पण है’समाज का सारा दुःखःदर्द, सारी करुणा, सारी संगतियां सारी विसंगतियॉं,सारे परिवर्तन, सारी रूढ़ियां,सारी समस्याएं,संस्कृति के जाने अनजाने पहलू और भी जो कुछ मानव समाज के आसपास घटित हो रहा है,घटित हो चुका है अथवा भविष्य के गर्भ में छिपा है,साहित्य का विषय है। साहित्य की अनेक विधाओं में कथा एक महत्त्वपूर्ण विधा है। यह पाठक का चित्त अपने में रमाये हुए उसके मनोभावों को सहलाती,उसकी दुःखती रगों पर सहानुभूति के मरहम लगाती बड़े सहज ढंग से विषय से तादात्म्य स्थापित कराती है।
कथाएं अपने समय को शब्द देतीं हैं,काल का प्रतिनिधित्व करतीं हैं। काल विशेष की समस्याएं कहानियों का विषय बनतीं हैं, कालान्तर में ये सामाजिक परिवर्तन का कारण बनतीं हैं जब किसी एक समस्या को लेकर कई लोग लिखने लगते हैं तब विशेष विमर्श का नामकरण होता है। जैसे- दलित विमर्श,जनजातीय विमर्श, स्त्री विमर्श, विकलांग विमर्श आदि-आदि। परिणामस्वरूप इनकी स्थिति में व्यापक परिवर्तन परिलक्षित हुआ है।
वर्तमान समय में सामाजिक सुरक्षा गारंटी एवं चिकित्सा विज्ञान में हुई अभूत पूर्व प्रगति के मद्दे नजर मनुष्य का जीवन काल बढ़ा है। शतायु लोगों की संख्या में भी वृद्धि हुई है, हालात ये हैं कि विश्व की 40.12 प्रतिशत आबादी साठ वर्ष से अधिक के लोगों की है। वार्धक्य स्वयं में एक बीमारी है,उसके आगमन का संकेत मानव को नैराश्य का उपहार देता है। उसके एक-एक अंग की शक्ति उसका साथ छोड़ने लगती है। केशों की कालिमा,धवल दंत पंक्तियाँ,नेत्र ज्योति,त्वचा की कसावट,संतानोत्पत्ति की क्षमता चुपचाप अलविदा हो जाती है। बदले में दे जाती है चेहरे पर झुर्रियां,उच्च रक्तचाप, मधुमेह,गठिया जैसी असाध्य बीमारियाँ इनके फलस्वरूप पक्षाघात,एवं अस्थायी,स्थायी अपंगता।
विश्व की लगभग आधी आबादी की विभिन्न समस्याओं ने समकालीन कथा साहित्य में अपना स्थान बनाया है। वृद्धजन की पहली समस्या है शारीरिक अक्षमता,उम्र बढ़ने के साथ इस मरणधर्मा देह की कार्य क्षमता घटती जाती है। यौवन काल की अपनी शक्तियों को याद करके उनका हृदय अन्दर ही अंदर आकुल व्याकुल रहता है। उनकी योग्य संताने चाहते हुए भी उन्हें समय नहीं दे सकतीं, मेरी बहुत सारी कहानियां वृद्धजन की समस्याओं की ओर पाठकों का ध्यान आकृष्ट करतीं हैं जिनमें मायाकान्त, विदाई, सदर दरवाजा, पाप अंजाना, बेचैन, निर्मला, सियान, मेरा घर, कहाँ गई सुनैना, बोया पेड़ बबूल का, भाग्य, पाप अंजाना, सियान, निर्मला, विदाई, प्रतिज्ञा लाल बाबू, आदि हैं ‘कहां गई सुनेना’ मे बेटे एवं पति की बहू के प्रति अंध अनुरक्ति, पति एवं पुत्र से मिलती लगातार उपेक्षा एक दिन सुनैना को घर छोड़ने पर विवश कर देती है। ‘बोया पेड़ बबूल का’ में नायिका अपने पति की सारी कमाई उनकी नौकरी, बड़े बेटे बहू को देने पर विवश की जाती है, पति के सेवानिवृत्ति के बाद मिले रूपये से जो मकान खरीदा जाता है उसमें से उसे तथा छोटे बेटे को निकाल दिया जाता है, उसकी पेंशन भी हड़प ली जाती है। उसके मुंह से आह निकलती है, वह कहती है ‘’मैंने अंतिम पाप कर लिया प्रकाश का हक मार कर। मैं वह पेड़ हूं जिसकी सारी शाखायें काट ली गईं हैं अब मुझे ठूँठ कहा जायेगा।‘’
(कहानी संग्रह ‘इंतजार एक औरत का ’पृष्ठ संख्या 23)
बुर्जुगों की एक अहम समस्या उनकी तन्हाई है,बच्चे अपने संसार में व्यस्त हो जाते हैं,वृद्ध अकेले अपने जीवन के पुराने पृष्ठ पलटते पड़े रहते हैं, इसी समस्या की ओर इंगित करती मेरी कहानी ‘’समय-समय की बात’’ है कामिनी कामेश्वर सरकारी नौकरी में रहते हैं,विवाह के बहुत दिन बाद कामिनी तीन बच्चों को एक साथ जन्म देते समय शरीर से मुक्त हो जाती है। कामेश्वर अपनी बहन शुभांगी की मदद से अपने बच्चे पालता है,शुभांगी की राय मान कर वह दूसरी शादी के लिए बहुत प्रयास करता है किन्तु तीन-तीन बच्चों की जिम्मेदारी लेने के लिए कोई औरत तैयार नहीं होती। किसी तरह जब बच्चे बड़े होकर अपना जीवन जीने लगते हैं और कामेश्वर तन्हाई का दंश झेलने लगता है,तब पवित्रा नाम की औरत जो तीन बेटियों की माँ एक विधवा है उसके पास विवाह प्रस्ताव भेजती है। कामेश्वर को लगता है यही उसकी समस्या का समाधान है परंतु बाद में उसे लगता है कि इस उम्र में विवाह उसे नई जिम्मेदारियों में बांध कर उसका जीवन और दूभर कर देगा और वह इस फंदे में फंसने से स्वयं को बचा लेता है। वह पवित्रा के पत्र का उत्तर इन शब्दों में देता है- देखिये एक छोटा सा अंश-
‘’मैडम! मैंने इतने झंझावात सहे हैं जीवन में कि अब बस शांति की ही कामना शेष रह गई है, फिर जरा सोचिये है!आप युवती होकर जब इसी प्रकार के दायित्व न उठा सकीं तो मैं उम्र के अंतिम पड़ाव पर कैसे हिम्मत कर सकता हूँ । अच्छा हो आप हिम्मत पैदा करें अपने आप में, बच्चियों को परवान चढ़ा कर सीना तान कर खड़ी हो दुनिया के सामने, अपनी जीत का उत्सव मनाते हुए।‘’
(कहानी संग्रह ‘इंतजार एक औरत का’ पृष्ठ संख्या-136)
समय के साथ युवा वृद्ध हो जाते हैं, परिवार में नये सदस्य उनकी जिम्मेदारियाँ संभालने लगते हैं और ऐसे में कल के योद्धा आज निखट्टू कहे जाने लगते हैं,उनके साथ नौकर जैसा व्यवहार होने लगता है,एक समय ऐसा भी आता है जब पूरे घर का पालन करने वाला व्यक्ति स्वयं वृद्धाश्रम की राह पकड़ लेता है। मेरे कहानी संग्रह ‘आना मेरे घर में संगृहित कहानीबड़ी दीदी’प्रत्येक पाठक की करुणा की हकदार बन जाती है। उत्तर प्रदेश के एक गाँव में कृषक परिवार में जन्मी शांता अपने बड़े भाई एवं भावज के अत्याचार से दुःखी हो अपने दुध मुँहें भाई रतन और माँ के साथ चुपचाप घर छोड़ कर भटकते हुए सिवरीनारायण के मंदिर में शरण लेती है, अथक परिश्रम करके वह अपने भाई रतन और माँ को पालती है। समय पाकर रतन पुस्तकों की दुकान खोल लेता है शांता केटर्स ग्रुप में काम करती है, जब उनका घर बन रहा होता,तब रात भर सामान ढोने के कारण उसे भट्ठे के पास काम करते हुए झपकी आ जाती है जिससे उसके कपड़ों में आग लग जाती है और वह बुरी तरह जल जाती है। रतन की सेवा सुश्रूषा के फलस्वरूप वह एक साल में ठीक तो हो जाती है किंतु जलने के कारण उसका चेहरा वीभत्स हो जाता है तथा भट्ठे के पास काम करने में असमर्थ हो जाती है। रतन और उसकी बहुओं के आग्रह पर वह घर में रहने लगती है,बहुएं उसे दूसरों के सामने आने से रोकती हैं घर का पूरा काम करा कर भी रूखा सूखा खाने को देती हैं,ऊपर से पालने का ताना देतीं हैं,शांता अपने भाई से कुछ नहीं कहती क्योंकि विधुर हो चुके रतन का जीवन भी दुःखमय हो जाने का उसे अंदेसा होता है। वह बिलासपुर के वृद्धा आश्रम कल्याणकुंज में आकर रहने लगती है,राखी के समय वह अपने भाई को याद कर बहुत उदास रहा करती है ऐसे ही एक राखी पर उसका भाई रतन उसे खोजता हुआ आ जाता है और उसे अनेक प्रकार से समझा कर अपने साथ घर ले जाता है । शांता की तरह सबके भाई नहीं होते प्रायः जो एक बार घर से निकले दुबारा घरवाले नहीं बन पाते उन्हें दूसरों की दया पर जीवित रहना पड़ता है जो इनके लिए सबसे अधिक दुखदाई है–देखिये बड़ी दीदी का एक छोटा सा अंश-
‘’सब कुछ तो है यहाँ पर, पक्की दीवारें, विस्तृत छत, सामने सुंदर सा गार्डन, दरवाजे की बगल में तुलसी चौरा, लाइन से बिछे पलंग, दो पलंग के बीच एक सीलिंग फैन, सफाई वाली नियमित आती है। भोजन बनाने वाली भोजन बनाती है, अक्सर अन्नदाता आते रहते हैं, हमदर्दीर् जताते हैं। मन के अन्दर कहीं कुछ खटकता है, निगाहें अपने आप झुक जातीं हैं, जिन्दगी भर मेहनत मजदूरी करके परिवार पालने वाले लोग आज दया के पात्र बन गये हैं, यही तो वह बात है जो इस सुंदर सी इमारत को घर नहीं बनने देती।
(बड़ी दीदी, आना मेरे घर पृष्ठ संख्या 50)
कई घरों में जहाँ माँ अपने जीवन साथी से बिछुड़ चुकी होती है, अपनी पूरी जिन्दगी बिना बाप की संतानों के पालन पोषण में लगा देती हैं लेकिन विवाह के पश्चात् पुत्र अपनी पत्नी के प्यार में ऐसा डूब जाता है कि उसे मात्र वही बातें सच लगती हैं जो उसकी पत्नी कहती है, ऐसे में कुछ बहुएं अपने पति पर सास के अधिकार को न सह पाने के कारण षड़यंत्र पूर्वक उन्हें लांछित करके घर से निकाल देती हैं, ‘दान-दहेज’नाम की कहानी कुछ ऐसे परिवेश से आती है- आकाश अल्पवय में ही अपने पिता को खो देता है,उसे अपने पिता की नौकरी मिलती है,उसकी माँ अपने बेटे का मुँह देखकर एकाकी जीवन व्यतीत करती है,विवाह के बाद आकाश अपनी पत्नी सारिका के मोह जाल में ऐसा उलझता है कि उसे अपनी माँ संसार की सबसे अत्याचारी औरत लगने लगती है, एक दिन सारिका के लगाये अत्यंत घिनौने आरोप को सच मानकर वह माँ की लानत-मलानत करता,सारिका की आत्महत्या की धमकी से प्रभावित हो वह रोती-कलपती घर छोड़ कर जाती माँ को रोकता तक नहीं,वह डॉक्टर बल्देव के घर में काम करके अपना जीवन गुजारती है,सारिका आकाश की तीन पुत्रियाँ होती हैं, सर्व गुण सम्पन्न होने पर भी उनकी शादी में अड़चन आने लगती है,लड़के वाले ऐसे घर से लड़की लाना नहीं चाहते जिस घर में बुर्जुग न रहते हों,बडी लड़की हिमानी की बार-बार टूटती शादी से परेशान होकर वह अपने पति और बेटियों के साथ अपनी सास को घर वापस लाने जाती है। देखिये कुछ पंक्तियाँ—-
‘’तुमने यह कैसे सोच लिया कि मैं उस घर में वापस जाऊँगी जहाँ से मुझे दुश्चरित्र ठहराकर निकाल दिया गया था, वह चिट्ठी तुम्हीं ने रखी था न बहूरानी । मेरे बेटे की नजरों से मुझे गिराने के लिए, मेरा दुर्भाग्य! मेरे बेटे ने भी नहीं सोचा कि भरी जवानी में वैधव्य का अभिशाप ढोते इसकी माँ ने किस दुःख से इसे पाला। अधेड़ उम्र में वह प्यार की पींगे कैसे बढ़ा सकती थी।‘’
‘’और किसी तरह इनके ऊपर कोई असर होता न देख कर मुझे वैसा करना पड़ा माँ जी, मुझे माफ कर दीजिए!’’ सारिका अपराधी की तरह निगाहें झुकाये हुए थी।
‘’सुनो बहू रानी! तुम्हारे पाप की सजा मैं अपनी पोतियों को नहीं दूंगी, इसलिए जब लड़के वाले आयें तब मुझे फोन कर देना, ड्राइवर मुझे छोड़ देगा, किसी को भी पता नहीं चलेगा कि तुमने षड़यंत्र करके अपनी सास को घर से निकाल दिया है, परंतु एक वादा करो बच्चियों!’’
‘’क्या दादी माँ तीनों एक साथ बोलीं।
‘’तुम तीनों ससुराल जाकर अपनी माँ का आचरण नहीं दोहराओगी।‘’
(कहानी संग्रह ‘आना मेरे घर’ पुष्ठ संख्या 137)
वृद्ध जन की एक अहम समस्या शारीरिक दुर्बलता है,जीवन भर आदमी कठिन श्रम करके अपने दायित्व पूर्ण करता है सेवा निवृति के पश्चात् शेष जिन्दगी अपने सपनों के साथ जीना चाहता है। कठिन परिश्रम के बाद उसके पास भले ही कुछ रूपये हो किंतु शरीर रुग्ण और दुर्बल हो जाने के कारण वह अपने कार्यों का सम्पादन भलि-भाँति नहीं कर सकता, और बची-खुची पूँजी भी देखते ही देखते उसके हाथ से निकल जाती है । कहानी संग्रह आना मेरे घर में संगृहित एक अन्य कहानी ‘’आयेंगे फिर लौट कर’’मे कुछ ऐसा ही मंजर पाठकों की नजरों के सामने आता है। कोल माइंस के सेवानिवृत कर्मचारी जयन्त और उनकी पत्नि शीला गृहस्थ जीवन के सारे दायित्व पूर्ण करने के बाद प्रकृति के बीच रह कर कृषक का जीवन जीना चाहते हैं क्योंकि अर्थाभाव ने उन्हे अपने पुस्तैनी खेत बेचने पर विवश किया था जिसकी कसक जयंत के दिल में पूरी जिंदगी रही आई थी। वे कम दाम में एक बंजर जमीन खरीद कर उसे उपजाऊ बनाकर खेती करते हैं। कुछ समय बाद दमा के मरीज जयंत बहुत बुरी तरह बीमार हो जाते हैं, समय पर बच्चों से फोन पर सम्पर्क नहीं हो पाता, पति की जान बचाने के लिए शीला एक ट्रक वाले से लिफ्ट लेकर खेती-खार का मोह छोड़कर भागती है शहर की ओर जहाँ उसके पति का ईलाज करने वाले चिकित्सक और सुविधा सम्पन्न चिकित्सालय होते हैं। एक छोटा सा अंश—
‘’रिटायरमेंट के बाद सारी जमा पूंजी लगाकर यह खेत खरीदा था जयंत ने। बोर करवाया, दो कमरे बनवाये, दिन-रात मेहनत की दोनो ने, अपने सपनों का संसार बसाने के लिए। जहाँ दो साल पहले बंजर था वहाँ आज गेंहूँ की फसल लहलहा रही है। मजदूरों की यहाँ सहुलियत है,पिछड़ा इलाका होने के कारण रोजगार -धंधे बहुत कम हैं। आस- पास के गाँव वाले उनके यहाँ से पीने का पानी ले जाते हैं, परे हारे गाय का दूध, रूपया-पैसा देने में कभी पीछे नहीं हटे जयंत, लेकिन जब आज उनको मदद की जरूरत है कोई दिखाई नहीं दे रहा है। बेटे की राय से नहीं चले इसलिए शायद वह भी खुन्नस रखता है मन में, या फिर हो सकता है वह भी हमें फोन लगा रहा हो जब टावर नहीं है तो वह भी क्या करे। (पृष्ठ संख्या 162)
वृद्धावस्था के पूर्व मनुष्य बाल्यावस्था और युवास्था व्यतीत कर चुका होता है, बाल्यकाल के अपराधों की कोई गिनती नहीं होती किंतु युवावस्था के कार्यों का दायित्व निश्चय ही कर्त्ता पर होता है यौवन काल में बुरी संगत में पड़ चुके लोग अपना घर, परिवार, धन, मान ,इज्जत आबरू सब कुछ गँवा कर बुढ़ापे मे पराश्रित होकर जिल्लत की जिन्दगी जीने के लिए विवश होते हैं, मेरे कहानी संग्रह पिंजरा में संगृहित ’लाल बाबू’ ऐसी ही कहानी है ,सम्पन्न किसान भकला का इकलौता बेटा लालबाबू ए. ई. सी .एल कर्मचारी अपने से अधिक अपने मित्र परस पर विश्वास करता है उसके कहे में आकर सरपंच का चुनाव लड़ता है खर्चे के लिए वह परस से अपने खेतों को रेहन रखकर 5000 हजार रूपये उधार लेता है। सारा सरकारी पैसा परस खा जाता है, स्कूल की बिलि्ंडग गिर जाने और एक बच्चे के मर जाने के कारण लालबाबू को ग्राम सभा बुलाकर अपदस्थ कर दिया जाता है ,उसकी नौकरी भी चली जाती है। परस 5000 में दो शून्य बढ़ाकर पाँच लाख बना लेता है और लालबाबू का पूरा खेत हड़प लेता है। भकला यह सदमा बर्दास्त नहीं कर पाता और मर जाता है। सरकारी धन के दुरूपयोग का मामला सिद्ध हो जाने पर लालबाबू को पाँच साल की सजा हो जाती है, वहाँ से छूट कर आने के बाद लालबाबू को अपने जीवन यापन के लिए गाँव के ही एक भले आदमी के यहाँ नौकरी करनी पड़ती है जहाँ मालिक का बेटा उसे बात- बात पर अपमानित करता रहता है हरेली के दिन नारियल फेंकने के खेल में भैरा गाँव के लड़कों से झगड़ा कर लेता है कई लोग उसे घेर कर मारने लगते हैं , लाल बाबू उसको बचाता है तब कृतज्ञ होने के बजाय वह उसकी लानत मलानत करता हुआ कहता है–
’’ बड़ा बहादुर बन गया न अब मुझे बचाकर? तेरे ही कारण सब हुआ डोकरा,तेरे ही कारण!सबेरे से ही कह दिया था कि साथ चलना,मर रहा था यहाँ मक्कारी, हरामखोरी कर रहा था, बाप साला बैरी है नहीं तुझे पालने से अच्छा तो कुत्ता पाल लेता,जेल खट के आया तो कौन नदी किनारे से लाया तुझे? किसने तेरा विश्वास किया? किसने काम पर रखा ? मेरे बाप ने, और तू साला हरामी गू खाता फिरता है कहा नहीं मानता! वह बक- झक करता बाबू को मारने लगा। बाबू की आँखों से आँसू गिरने लगे,इस मदहोश से क्या जबान लड़ाये? वैसे वह ठीक ही तो कह रहा है, फेंकू ने ही उसे जीने का सहारा दिया। जेल से छूट कर जब बाबू घर आया तो घर के नाम पर एक तिनका भी शेष नहीं था। वह पुराना कोसम का पेड़ सब का साक्षी बना अकेला ही जी रहा था जिसकी छाया में खेल कर उसका बचपन बीता था। वह नदी के किनारे दो दिन बिना खाये पीये पड़ा रहा, किसी ने उसे घास न डाली , फेंकू उसे अपने साथ अपने घर लेकर आया था
(कहानी संग्रह पिंजरा पृष्ठ संख्या-32)
कहानी संग्रह ’सदर दरवाजा’ में 13 में से पाँच कहानियाँ वृद्ध विमर्श पर की केन्द्रित हैं। शीर्षक कहानी सदर दरवाजा की नायिका रागिनी ए.ई. सी.एल. के उच्चाधिकारी की पत्नि , उच्चशिक्षिता उदारमना रागिनी वर्मा को पति की मृत्यु के बाद वृद्धाश्रम की शरण लेनी पड़ती है , क्योकि बेटा एक बड़ी कंपनी का मालिक बनकर अपने आप में व्यस्त हो जाता है और बेटियाँ अपने पतियों के साथ अमेरिका में बस जातीं हैं। कुछ पंक्तियाँ—रागिनी समाज सेवी मीरा वशिष्ठ से कहती है– ’’तुम्हारे अंकल जब तक रहे हम दोनो साथ- साथ रहे,पाँच वर्ष हो गये उन्हें साथ छोड़े। जीवन का ये रंग देखे बिना यात्रा अधूरी रहती इसीलिए ईश्वर ने ये दिन दिखाया है, अब अकेले रहना मुश्किल हो गया सो घर बेच पैसा जमा करा दिया, जो ब्याज मिलेगा खर्च करूंगी और मूलधन बाद में आश्रम के काम आयेगा। कम से कम यहाँ अपने जैसों के बीच तो रहूंगी ।’’ उनके स्वर में घुली पीड़ा को मीरा ने अपनी अन्तरात्मा में अनुभव किया।
(कहानी संग्रह सदर दरवाजा कहानी सदर दरवाजा पृष्ठ संख्या-25)
’पाप अंजाना’ एक ऐसी कहानी है जिसका नायक अपनी पूरी कमाई गाँव में रहने वाले अपने पुत्र के लिए भेज देता है बाप के दबाव के अभाव में पाले पूरी तरह बिगड़ जाता है , शादी के बाद तो वह अपनी माँ को बात- बात पर प्रताड़ित कर के पैसा ऐंठने लगता है, मना करने पर ऐसा मारता है कि उसके हाथ- पैर टूट जाते है,ं समाचार पाकर नायक घर जाता है और अपनी घायल पत्नि का ईलाज कराता है , उसके सामने प्रश्न उठता है कि उसने ऐसा कौन सा पाप किया जिसका ऐसा फल मिला। निर्मला और सियान भी संतानों के द्वारा माता के उत्पीड़न की मार्मिक कथाएं हैं। ’भाग्य ’ विधूर ससुर के ऊपर चरित्र हीनता का आरोप लगा कर बेटे के द्वारा प्रताड़ित कराने, शक्ति से अधिक श्रम करने के लिए विवश करने , भूखा रखने और गंभीर बीमारी में मरने के लिए छोड़ देने की मारक कथा है।
सयाने हमारी जड़ हैं उनके बिना हमारे जीवन का अस्तित्व में आना संभव ही नहीं था। आज छोटे परिवार के चलन के कारण बच्चों को सामाजिक अनुकूलन , सहिष्णुता, और परमार्थ का अभ्यास कम हो पा रहा है, संयुक्त परिवार के विघटन की यह अपूरणीय क्षति हमारे समाज को उठानी पड़ रही है। जिन घरों में दादा-दादी हैं भी वहाँ माता – पिता द्वारा उनके प्रति किये जा रहे दुर्व्यवहार को देख- देख कर बच्चे अपने दादा- दादी को अनादरणीय समझने लगते हैं , स्वार्थ सध जाने के बाद वे भी अपने दादा- दादी के साथ माँ बाप के द्वारा किया गया व्यवहार करने में कोई झिझक अनुभव नहीं करते, यही कारण है कि वृद्ध, समाज के हासिये में चले जा रहे हैं , उनके दुःख दर्द की फिक्र करने वाले विरले होते जा रहे हैं। सरकार के लिए वृद्धों की पृथक सुव्यवस्था स्थापित करना टेढ़ी खीर जैसा है। मैंने अपनी कुछ कहानियों में वृद्धों के मुँह फेर लेने का परिणाम दिखाकर पाठकों को सतर्क करने का सद् प्रयास किया है।
इस प्रकार की और भी हजारों कहानियां समकालीन साहित्य में लिखीं गईं हैं । कथा साहित्य विश्व की आबादी की समस्याओं की ओर समाज का ध्यान आकृष्ट करना चाहता है ताकि सामाजिक परिवर्तन की अपनी भूमिका का निर्वहन कर सके।
-श्रीमती तुलसी देवी तिवारी
बी/ 21 हर सिंगार राज किशोर नगर
बिलासपुर छ. ग.
मो.9907176361