काव्य विधा कह मुकरियां-उदाहरण सहित शिल्‍प विधान

काव्य विधा कह मुकरियां

-रमेश चौहान

काव्य विधा कह मुकरियां-उदाहरण सहित शिल्‍प विधान
काव्य विधा कह मुकरियां-उदाहरण सहित शिल्‍प विधान

काव्य विधा कह मुकरियां का परिचय-

“कह-मुकरी” एक बहुत ही पुरातन और लुप्तप्राय: काव्य विधा है ।  इस विधाा के माध्यम से समसमायिक, सामाजिक-राजनैतिक विषयें को हास्य, तीखे व्यंग्य, दर्शन आदि के साथ प्रस्‍तुत किया जाता है । वास्तव में इस विधा में दो सखियों के बीच का हास-पहिास होता है, जहाँ एक सखी अपने प्रियतम को याद करते हुए कुछ-कुछ पहेली की भंति अपनी बात रखती हुई दूसरी सहेली से पूछती है, जब दूसरी सखी उत्‍तर में साजन कहती है तो पहली सखि इस बात से मुकर जाती है । वास्‍तव में पहली सखी अपने साजन की ही बात कर रही होती किन्‍तु बाद में उस से मुकर जाती है । इसी से इसका नाम कह-मुकरी पड़ा ।

काव्य विधा कह मुकरियां का इतिहास-

हज़रत अमीर खुसरो को काव्‍य शिल्‍प कह मुकरीयां का जनक माना जाता है । कह मुकरी या कह मुकरियां का प्रारम्भ, पहेलियों की तरह ही, अमीर खसरो से माना जाता है । आगे चल कर इस विधा काे भारतेंदु हरिश्चंद्र ने आगे बढ़ाया किन्‍तु इसके बाद. वर्षो तक कोई विशेष काम नहीं हुआ । इसे पुनर्जीवित करने का श्रेय श्री योयराज प्रभाकार को जाता है जिसने 2011 में ओपन बुक्‍स ऑनलाइन फोरम पर कह-मुकरियां  प्रस्‍तुत की ।

कह-मुकरी का अर्थ-

.कह मुकरियाँ या मुकरियाँ  का सीधा सा अर्थ उसके नाम से ही स्‍पष्‍ट है, होता है – ‘कही हुई बातों से मुकर जाना’ और इस कह-मुकरी शिल्‍प में भी यही होता है ।  कह मुकरी चार पंक्तियों का एक बंद होती हैं, जिसमें पहली तीन पंक्तियाँ  में इस प्रकार कथ्‍य प्रस्‍तुत किए जाते हैं जो एक साजन का भी  गुण हो और किसी दूसरे का वर्णन भी  परन्तु स्पष्ट कुछ भी नहीं होता ।  चौथी पंक्ति दो वाक्य-भागों में होती है, पहला भाग उस वर्णन का प्रश्न-सा होता है,  जबकि दूसरा भाग वर्णनकर्ता का उत्‍तर होता है जो पहले भाग में बूझ गयी है ।

शिल्प व विधान

कह मुकरी के शिल्‍प विधान को दो भागों में बांटा जा सकता हे एक कथ्‍य गठन और दूसरा मात्रिक गठन । इन दोनों का निर्वाह करने पर ही कह-मुकरी का सृजन होता है ।

कथ्‍य गठन

कह मुकरी का कथ्‍य इस प्रकार प्रस्‍तुत किया जान चाहिए जिसमें  की जाने वाली व्‍याख्‍या एक साजन के गुणों की भी व्‍याख्‍या करता हो और साथ ही उस लक्ष्‍य के गुणों की भी व्याख्‍या हो जिससे साजन के गुणों  मुकर कर जो शब्‍द कहा जाये उसकी पुष्टि हो ।

उदाहरण – 

मुँह जब लागै तब नहिं छूटै ।
जाति मान धरम धन लूटै ।
पागल करि मोहिं करे खराब ।
क्यों सखि साजन ? नहिं शराब !
-भारतेंदु हरिश्चंद्र

इसमें प्रथम दो पंक्ति में जो गुण कहा गया है, जिसका प्रभाव तीसरे पंक्ति में व्‍यक्‍त किया गया है, ये गुण और प्रभाव दोनों साजन और शराब दोनों के हैं । वास्‍तव में पहली सखि अपने साजन के प्रेम के संबंध में कह रही है कि जब साजन से प्रेम हो तो छोड़े नहीं छूटता चाहे जाति, धर्म या धन ही क्‍यों न जाए और साजन का प्रेम उसे पागल बना के खराब कर दिया है । किन्‍तु इससे मुकर कर जब वह शराब कहती है तो यही सारे गुण शराब के हो जाते हैं शराब से मुॅह लगने के बाद शराब छोड़ते नहीं बनता चाहे जाति-धर्म ही नष्‍ट हो या धन । शराब, पीने वालों को पागल और खराब कर देता है ।

मात्रिक गठन-

कह मुकरी छंद एक प्रकार से मात्रिक छंद है, जिसमें प्रथम दो पंक्ति चौपाई की भांति 16-16 मात्रा के साथ सुम तुकांत होती है । तीसरी और चौथी पंक्ति भी 16-16 मात्रा के साथ सम तुकांत होती है किन्‍तु यह चाौपाई की भांति हो यह आवश्‍यक नहीं है। चौथी पंक्ति दो भागाें  में बंटा होता है एक प्रश्‍न भाग दूसरा उत्‍तर भाग जिसमें 16 मात्रा को समान्‍यत 8-8 मात्रा में बांटा जाता है किन्‍तु सुविधा अनुसार यति में रखा जा सकता हैै । पहले की रचनाओं में तीसरी पंक्ति औ चौथी पंक्ति के मात्रा में भी शिथिलता दिखाई देती, इनकी मात्र 15,16 या 17 हो सकती है । किन्‍तु चारों पंक्तियों की मात्रा 16-16 होना यथेष्‍ठ माना जाता है ।

कह-मुकरियों की प्रकृति

कहमुकरियों की प्रकृति पहेलियों और उलटबासियों  दोनों से भिन्‍न होती है । जहां पहेली में पहेली का उत्‍तर काव्‍य बंद में नहीं आता वहीं कह मुकरी में उसका उत्‍तर काव्‍य बंद के अंत में आता ही आता है । उलटबासी रहस्‍यमय होने के कारण आम पाठक के समझ से परे होता है तो कह मुकरियां आम पाठक के आनंददायी औ सहज होता है ।

कुछ कह मुकरियां-

श्याम, रंग मुझे है लुभाये ।
रखू नैन में उसे छुपाये ।
नयनन पर छाये जस बादल ।
क्या सखि साजन ? ना सखि काजल ।

मेरे सिर पर हाथ पसारे
प्रेम दिखा वह बाल सवारे ।
कभी करे ना वह तो पंगा ।
क्या सखि साजन ? ना सखि कंघा

उनके वादे सारे झूठे ।
बोल बोलते कितने मीठे ।
इसी बल पर बनते विजेता ।
क्या सखि साजन ? ना सखि नेता ।।

बाहर से सदा रूखा दिखता ।
भीतर मुलायम हृदय रखता ।।
ईश्वर भी हो जाये कायल ।
क्या सखि साजन ? न सखि नारियल ।।

हमेशा मेरे साथ रहते ।
बात सदा करने को कहते ।
उनसे बाते कर करू स्माइल ।
क्या सखि साजन ? ना मोबाइल ।।

मेरे तन वह घुल मिल जाये ।
अपने रंग मुझे रंगाये ।।
मुखड़ा देख करूं मे मलाल ।
क्या सखि साजन ? ना सखि गुलाल ।।

मुख पर इंद्रधनुष की शोभा ।
जो देखे उनके मन लोभा ।।
होली पर करते खूब तंग
क्या सखि साजन ? ना सखि न, रंग ।।

श्याम रंग पगड़ी सोहे है ।
लाल रंग कलगी मोहे है।
उसे देख मेरे मन हराश ।
क्या सखि साजन ? ना सखि पलाश ।।

देख देख मन अति हर्षाये
उपमा को इक शब्द न भाये
बात कहे वह मीठे सखि री
क्या सखि साजन ? ना ‘सखि मुकरी

मोहित हुई देख कर सूरत ।
लगे हैं काम की वह मूरत ।।
मधुवन के कहते उसे कंत ।
क्या सखि साजन ? ना सखि बसंत

प्रतिक्षा में मै नैन बिछाये ।
बारह माह बाद वह आये ।।
प्रेम रंग की रखकर झोली ।
क्या सखि साजन ? ना सखि होली ।

जब वो आये गांव सहेली ।
अपना जीवन लगे पहेली ।।
चुनने का मन पले तनाव ।
क्या सखि साजन ? ना सखि चुनाव ।।

देखूं वही जो वो दिखाये ।
उसको रखती नाक बिठाये ।।
उनके रंग से जहां रौनक ।
क्या सखि साजन ? ना सखि ऐनक ।।

निकट नहीं पर दूर कहां है ?
उनके नयन सारा जहां है ।
पलक झपकते करते कमाल
क्या सखि साजन ? न अंतरजाल ।।

मित्र न कोई उनसे बढ़कर ।
प्रेम भाव रखे हृदय तल पर ।।
सीधे दिल पर देते दस्तक ।
क्या सखि साजन ?
ना सखि पुस्तक ।।

हाथ धर उसे अधर लगाती ।
हलक उतारी प्यास बुझाती ।।
मिलन सार की अमर कहानी ।
क्या सखि साजन ?
ना सखि पानी ।।

रोम रोम वो रमते कैसे ।
कमल पत्र पर जल हो जैसे ।
मिठाई नही बिन मीठापन ।
क्या सखि साजन ?ना सखि भगवन ।।

जिसके बल पर वह तने खड़े ।
उसके बिन हम डंड सम पड़े ।।
उनके रहते वह तो सजीव ।
क्या सखि साजन ? ना सखि न जीव ।।

-रमेश चौहान

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